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________________ 112 परिशिष्ट - १ राक्षसवंश की स्थापना तब वहाँ राक्षस नामक व्यंतर देवों के इन्द्र ने घनवाहन को कहा "आप भगवान की शरण में आये हैं, यह बहुत अच्छा हुआ। अब वैताढ्य पर्वत पर न जाकर समुद्र के बीच में स्थित राक्षस द्वीप में जाईये। वहाँ पर किसी भी प्रकार की चिन्ता नहीं होगी। अतः वही पर राज्य कीजिए।" इस प्रकार कहकर उसने उछलते हुए भावों के साथ राक्षसी आदि अनेक विद्याएँ व देव रक्षित हार साधार्मिक भक्ति के रूप में, घनवाहन को दिया। आज से असंख्यात वर्षों पहले की बात है। इस पृथ्वी पर ऋषभदेव भगवान हुए। चारों तरफ लोग भी निष्कपट व निर्लोभी थे। उनका ईक्ष्वाकु वंश था। उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती थे। उनके पुत्र आदित्ययश से सूर्यवंश चला। उसमें अनरण्य, दशरथ, राम, लक्ष्मण वगैरह हुए। भगवान ऋषभदेव की दीक्षा में उनके पौत्र नमि-विनमि अनुपस्थित थे। वे दीक्षा के बाद आकर भगवान के पास राज्य मांगते थे। एक बार धरणेंद्र ने उन दोनों को वैताढ्य पर्वत की दोनों श्रेणि का राज्य व अनेक विद्याएँ दी। भरत क्षेत्र में उत्तर व दक्षिण के विभाजक वैताढ्य पर्वत के उत्तर क्षेत्र में विनमि और दक्षिण क्षेत्र में नमि राज्य करने लगे। उनसे विद्याधर वंश शुरु हुआ। उसमें असंख्य राजा हुए। कई राजा मोक्ष, तो कई देवलोक में गये। उनके बाद जब अजितनाथ भगवान् हुए, उस वक्त दक्षिण वैताढ्य के रथनुपुर नगर में पूर्णघन राजा था। उसके पुत्र का नाम घनवाहन था। उत्तरीय वैताढ्य क्षेत्र के गगनवल्लभ नगर में सुलोचन राजा था। उसका पुत्र सहस्रनयन व पुत्री रूपवती थी। पूर्णघन राजा ने घनवाहन राजकुमार के लिए राजकुमारी रूपवती की मंगनी की। पूर्णघन राजा द्वारा घनवाहन के लिये माँग करने पर भी ज्योतिषियों के वचन के अनुसार सुलोचन राजा ने अपनी कन्या की शादी अजितनाथ भगवान के चचेरे भाई सगर चक्रवर्ती के साथ करने का सोचा। घनवाहन, राक्षस द्वीप की लंका में राज्य करने लगा। उसकी पत्नी सुप्रभा ने पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम महाराक्षस रखा गया। इससे सुलोचन व पूर्णघन के बीच में भयंकर युद्ध हुआ। भौतिक आनन्द हेतु युद्ध की भयंकर हिंसा शुरु हो गई। अन्त में पूर्णघन ने सुलोचन को मार डाला, तब उसका पुत्र सहस्रनयन अपनी बहन को लेकर जंगल में भाग गया। एक दिन उसे जंगल में सगर चक्रवर्ती मिले। सहस्रनयन ने अपनी बहन की शादी उसके साथ कर दी। सगर चक्रवर्ती ने उसे एक राज्य दिया। एक दिन घनवाहन राजा अजितनाथ भगवान को वन्दन करने गया था, तब उसने भगवान की देशना सुनी । उसे वैराग्य भावना जागृत हुई। 'आहा ! मैं पाँच इन्द्रियों में कितना लुब्ध बन ___ गया हूँ, स्त्री के राग में दब गया हूँ व सत्ता के लुभावने कीचड़ में फँस गया हँ ? मेरा क्या होगा? मैंने वास्तव में अपनी आत्मा को ठगी है। क्योंकि अपने योग्य साधना न करके दूसरी झंझटों में आज तक पड़ा रहा हूँ। स्वप्न के समान क्षणिक, बिजली के समान चंचल जीव का क्या भरोसा है। अतः उस पर विश्वास कैसे रखा जाए ? वह कब समाप्त होगा ? क्या भविष्य काल की भयंकर व्यथाओं को यह परिवार व राज्य की सत्ता रोक सकेगी? नहीं, तो फिर इसे तुरन्त छोड़कर संयम साधना में क्यों न लग जाऊँ?' इस प्रकार वैराग्य पाकर उन्होंने महाराक्षस का राज्याभिषेक किया । राजा घनवाहन ने अजितनाथ भगवान के पास आकर दीक्षा ग्रहण की व चारित्र का पालन करते हुए कर्मों को काटकर मोक्ष प्राप्त किया। ये दोनों राजा राक्षस द्वीप की रक्षा करते हुए वहीं पर रहे। इसलिए राक्षस कहलाये। जैसे जर्मनी एशिया वगैरह देशों में रहने वाला मनुष्य जर्मन, एशियन वगैरह कहलाता है। वास्तव में वे राक्षस नहीं थे, बल्कि विद्याधर मनुष्य थे। इनका वंश राक्षस वंश कहलाया। इस प्रकार इस वंश के प्रथम राजा घनवाहन हुए। उनके बाद असंख्येय राजा होने पर भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के शासन में राक्षसवंशीय रत्नश्रवस् राजा के पुत्र रावण, कुंभकर्ण व बिभीषण हुए। ये सभी राक्षसवंश के कहलाए। कुछ समय बाद सहस्रनयन शक्तिशाली बना। बदला लेने के लिये उसने पूर्णघन राजा व उसके पुत्र घनवाहन के सामने घोर युद्ध छेड़ा। क्रोध वगैरह कषायों की कितनी विचित्रता है ? इस महाभयंकर युद्ध में पूर्णघन राजा मारा गया । तब उसका पुत्र घनवाहन, अजितनाथ भगवान के शरण जाकर निर्भय बन गया। गर्व का त्याग कर सहस्रनयन भी वहाँ आया। दोनों ने भगवान की देशना में अपने पूर्व भव सुने । घनवाहन ने भगवान की स्तुति की। Jan Education International For Person a le Use Only
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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