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की प्रतीति हो जाएगी कि मैं आपसे मिला था।"
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क्रोध से तिलमिलाती सीता ने कहा, "हे पापिनि! हे दुर्मुखी ! तुम्हारे पति का मुख देखना भी पाप है और तुम्हारा मुख देखना तो उससे भी बढ़कर महापाप है। यहाँ से चली जाओ। अल्पसमय में ही तुम मुझे अपने पति के समीप देखोगी। खर, दूषण की जो गति हुई है, वह अब तुम्हारे पति की होगी। तुम्हारे पति के गले में यमपाश बाँधने के लिए मेरे देवर लक्ष्मण शीघ्र ही आ रहे हैं।" इस तरह सीताद्वारा तिरस्कृत मंदोदरी वहाँ से उठकर स्वस्थान के लिए रवाना हो गई।
यह वृत्तांत सुनकर प्रमुदित सीता ने हनुमान के अत्यंत आग्रह से अपने इक्कीस दिवसीय अनशन व्रत का पारणा किया। उन्होने हनुमान से कहा, "यह मेरा चूडामणि, जिसे मेरे प्राणनाथ ने मंगवाया था। इसे लेकर आप शीघ्र यहाँ से प्रस्थान कीजिये। अन्यथा यहाँ उपद्रव की संभावना है।"
- हनुमाजी ने मुस्कराकर कहा “माता ! वात्सल्यवश आप इस प्रकार बोल रही हैं। त्रिजगत् के जेता राम-लक्ष्मण का मैं सेवक हूँ। अपनी समस्त सेना समेत भी रावण मेरे समक्ष तृणवत् है। हे स्वामीनि! यदि आप आदेश दें, तो मैं सैन्यसहित रावण का पराभव कर, आपको अपने कंधों पर बिठाकर अपने स्वामी राम के पास ले जाऊँ?" सीताजी ने कहा, "वत्स ! आप ठीक कह रहे हैं, किंतु स्वेच्छापूर्वक अन्य पुरुष का स्पर्श सती के लिए उचित नहीं है। अतः आप शीघ्र दशरथनंदन की ओर प्रस्थान कीजिए, जिससे वे प्रयत्नशील बनेंगे” हनुमान ने कहा, “आपका आदेश शिरोधार्य है, किंतु चलते चलते इन मूर्ख राक्षस वंशियों के समक्ष शक्तिप्रदर्शन
इसके पश्चात् हनुमानजी सीता के समक्ष दृश्यमान होकर, बद्धांजली मुद्रा में स्थिर खड़े हुए, व कहने लगे, "हे देवी, मैं रामसेवक हनुमान हूँ। रामचंद्रजी एवं उनके अनुज लक्ष्मण सकुशल तो हैं, किंतु रामचंद्र की मनोदशा आपके विरहाग्नि के कारण अस्वस्थ है। रामचंद्रजी की आज्ञा से मैं उनकी मुद्रिका लेकर आपकी शोध करते करते यहाँ आया हूँ। शीघ्र ही मैं यहाँ से पुनःप्रस्थान करूँगा। मेरे लौटते ही रामचंद्र एवं लक्ष्मण सेनासमेत शत्रुविनाश करने यहाँ पधारेंगे।"
ये समाचार सुनते ही सीताजी के नेत्रों से आनंद के आँसू बहने लगे। वे बोली “हे महाबली ! आप कौन है ? इतना अथाग सागर आपने कैसे लाँघा ? लक्ष्मण समेत मेरे प्राणनाथ अब कहाँ है ? आपने उन्हें कहाँ व कब देखा था ? वे किस तरह काल व्यतीत कर रहें हैं?"
SALANATA
DILIPS
हनुमानजी ने शांतिपूर्वक उनसे कहा, "मैं पवनंजय व अंजनासुंदरी का पुत्र हूँ। आकाशगामिनी विद्या के माध्यम से मैं विशाल जलधि लाँघपाया। किष्किंधानगरी में लक्ष्मण समेत आपके प्राणनाथ हैं। अपनी माता से बिछडे हुए गाय के बचडे की तरह लक्ष्मण आपके वियोग से पीडित हैं व निरंतर आकाश की ओर शून्य नजर से ताकते रहते हैं। उनके हृदय में तनिक भी शांति एवं आनंद की अनुभूति नहीं है । आपके अनुज भामंडल एवं पाताललंका के अधिपति विराध अपनी अपनी सेना समेत रामचन्द्रजी के निकट है। किष्किंधाधिपति सुग्रीव की प्रेरणा से रामचंद्रजी ने अपनी मुद्रिका देकर मुझे यहाँ भेजा है और आपका चूडामणि मंगवाया है। चूडामणि देखकर उन्हें इस बात
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