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उद्यान में धीरे-से रख दिया। इसके पश्चात् उसने पहले देवलोक की
ओर निर्गमन किया। उस समय अपने प्रासाद के गवाक्ष में बैठकर चंद्रगति राजा रात्रिशोभा निहार रहे थे। चंद्रगति राजा पूर्वभव में उस नवजात शिशु के पिता थे। नंदन उद्यान में रात्रि के समय अद्भुत प्रकाश देखकर उन्होंने विचार किया कि कहीं साक्षात् चंद्रमा तो भूलोक पर नहीं पधारे ? वे सत्वर नंदनउद्यान पहुँचे । दिव्य आभूषणों से मंडित उस शिशु को देखते ही उनके हृदय में वात्सल्य जागृत हुआ। बालक को उठाकर वे महल पधारे और उसे अपनी निद्रित महारानी के समीप रखा। महारानी पुष्पवती को कोई संतान न थी। महारानी को जगाकर वे बोले “हे महारानी ! देखिए, आपने कितने सुंदर बालक को जन्म दिया है।" यह सुनते ही महारानी ने कहा, "मैं ठहरी अभागिनी ...वंध्या स्त्री ! मेरे भाग्य में संतानजन्म का सुख कहाँ है ?" इस पर चंद्रगति राजा ने उन्हें संपूर्ण हकीकत सुनाकर कहा, “गर्भधारण एवं प्रसववेदना इत्यादि कष्टों का अनुभव किए बिना आप माँ बनी हैं ..हे देवी ! यह तो आश्चर्यजनक बात है।" इसके पश्चात् शेष रात्रि महारानी ने प्रसूति-कक्ष में बीताई। प्रातः होते ही पुत्रजन्म की उद्घोषणा कर दी गई।
मेरे किए किस कर्म का दंड मुझे अब भुगतना पड़ रहा है ? कहाँ है मेरा नन्हा, कहाँ है....?" इस प्रकार बिलखती महारानी विदेहा को सांत्वना देते हुए जनकजी ने कहा, "महारानी ! आप चिंता न करें ! मैं सत्वर राजदूतों को बालक को ढूंढने हेतु भिजवाता हूँ।'' परंतु राजदूत भी नवजात शिशु को ढूंढ निकालने में असमर्थ रहे। तब उन्होंने यह सब अपने ही कर्मों का फल है, इस हकिकत को स्वीकारा । पुत्री का नाम सीता रखा गया। सीता, इस नाम का अर्थ है - जिसमें अनेक सद्गुणरूप सस्य अर्थात धान्य के अंकुर फूट निकलते हैं, वह, अर्थात् भूमि अथवा मनोभूमि।
धीरे-धीरे पुत्र वियोग का दुःख महारानी भूलने लगी। सुख एवं दुःख दोनो अनित्य हैं... अशाश्वत हैं । वे आते-जाते रहते हैं। सुज्ञ व्यक्ति भौतिक सुख-दुःख के द्वंद्व से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करता हैं - क्योंकि केवल मोक्ष ही शाश्वत है, अनंत सुखमय
एक कवि ने क्या खूब कहा है -
एक ही डाल पर लगते है शूल, उसी पर लगते है फूल, दुःख के बाद सुख, सुख के बाद दुःख, यह है प्रकृति का रूल।
नगर में धूम-धाम से पुत्र जन्मोत्सव मनाया गया। उत्तमोत्तम रत्नों से युक्त कुंडल के कारण उस बालक का मुख अत्यंत तेजस्वी देदीप्यमान दीख रहा था। अतः उसका नाम भामंडल रखा गया। अपने पापकर्म के उदय से वह बालक अपनी जन्मदात्री से बिछड गया, परंतु पुण्यकर्म के उदय से उसने अपना शैशव चंद्रगति राजा के प्रासाद में सुख से बीताया। क्या कहें इस कर्म के पराक्रम का जो कभी पलभर में राजा महाराजाओं को सड़क की खाक छानने के लिए विवश करता है, तो कभी सड़क पर घूमनेवाले किसी निर्धन को अधिपति बना देता हैं।
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यहाँ चंद्रगति राजा की नगरी में पुत्रजन्म का उत्सव मनाया जा रहा था, तब वहाँ जनकराजा की नगरी में शोक के बादल मंडरा रहे थे। महारानी विदेहा ने युगल को जन्म तो दिया था, परंतु वे अपने पुत्र को देख भी न पायी । पुत्र विरह से व्याकुल हतप्रभ महारानी विलाप करने लगी, "अरे ! पूर्वजन्म के किस वैरी ने मेरे पुत्र को मुझसे छीन लिया है ? विधाता...! तुमने मुझे नेत्र दिए और उन्हें छीनकर मुझे पुनः नेत्रहीन बनाया। नवकमल से कोमल मेरा नन्हा किस यातनाओं का सामना कर रहा होगा? क्या मैंने किसी पूर्वजन्म में किसी माँ से उसका शिशु छीना था? क्या मैंने किसी निरपराधी को वियोग की अग्नि में जलाया था ?
+ चंद्रगति, पिंगलदेव एवं राजपुत्र भामंडल के पूर्वजन्मों की विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें परीशिष्ट क्र.२ Jain Education International
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