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________________ प्रसंग में ध्वनित होता हुआ आदर्श, पति-विरह दुःसह्य होता है जिससे सीताजी को सुगंधी वाटिका में भी आनंद की अनुभूति नहीं हुई। यह आदर्श स्वीकारना चाहिए। हो सकता है कि उसमें पुष्प सफेद होंगे, मगर पतिविरह से रोती हुई सीताजी की आंखे लाल हो जाने से लाल महसूस हुए होंगे। इस प्रकार समन्वय करके आदर्श को स्वीकारना चाहिए। इसी प्रकार वाल्मिकी रामायण में राम की एक ही पत्नी बताई है, जबकि अन्य उत्तरपुराण, महापुराण, पउमचरियं वगैरह रामायण में अनेक पत्नियों का वर्णन है। इसके विवाद में न उलझ कर वे पातिव्रत्यधर्म पालन में दृढ थी। यह आदर्श स्वीकारना चाहिए। एक रामायणकार लेखक ने कहा है कि हनुमानजी ब्रह्मचारी थे, अन्यने कहा कि हनुमानजी ने शादी की थी। शादी की या नहीं, इस विवाद में न पड़कर सीताजी की खोज व प्राप्ति में रामभक्त हनुमानजी ने पराक्रम कर अद्भुत योगदान दिया था। यह आदर्श स्वीकारना चाहिए। इस आदर्श में सभी रामायणकार सर्वसम्मत है। किसी रामायणकार ने राम को नीलवर्ण व लक्ष्मण को गौरवर्ण के बताये हैं, जब कि उत्तरपुराण आदि में लक्ष्मण नीलवर्ण के व राम गौरवर्ण के बताये हैं। इस उलझन में न पड़कर उनका भ्रातृप्रेम व अद्भुत पराक्रम था, यह आदर्श स्वीकारना चाहिए। एक रामायणकार ने कहा कि रामचंद्रजी ने श्रेष्ठ आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की थी। अन्यने कहा कि दीक्षा लेकर आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की थी। इसमें सभी का आदर्श एक ही है। कवि कालीदासजी ने भी कहा है कि - शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । वार्धक्ये मुनि वृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।।१।। अर्थात् प्रौढावस्था में सूर्यवंशज मुनि वृत्तिवाले होते थे कहिए या दीक्षा लेकर मुनि बने, इसमें तात्त्विक भेद नहीं लगता, सिर्फ शाब्दिक भेद है। इतना ही नहीं, कई लेखक पांच-छ हजार वर्ष पहले राम वगैरह हुए ऐसा मानते है। कई मानते हैं कि करीब पौने बारह लाख वर्ष पहले हुए थे। इसलिये अलग अलग समय में होने वाले राम आदि की कुछ घटनाएं भिन्न भिन्न हो सकती है। इतने लम्बे समय के अन्तराल में राम, सीता, लक्ष्मण वगैरह समान नाम वाले भिन्न भिन्न व्यक्तियों की घटनाओं का भिन्न भिन्न होना कोई अशक्य बात नहीं है। जैसे कि जैनेतर वैदिक महाभारत में एक प्रसंग में कहा गया है कि अर्जुन के बाण से घायल होकर कर्ण गिर पडे, तब उसकी दानवीरता की परीक्षा करने के लिए श्रीकृष्णजी ने ब्राह्मण का रूप धारण करके कर्ण के पास आकर याचना की। तब उनके पास कुछ भी नहीं था। याचक को खाली हाथ न लौटाना पडे, इसलिए वे पत्थर लेकर सोने की रेखा वाला अपना दांत तोडने लगे। तब श्रीकृष्णजी ने अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट करके कहा-"मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, तुम वास्तव में दानेश्वरी हो।" तब कर्ण ने उनसे कहा, "यदि मुझ पर प्रसन्न हुए हो, तो मैं याचना करता हूँ कि मेरा अग्निसंस्कार उसी जगह पर करना, जहाँ पर किसी का अग्निसंस्कार न हुआ हो।" कुछ क्षणों में कर्ण का अवसान हो गया। श्रीकृष्णजी ने बहुत स्थानों की खोज की, मगर ऐसा स्थान न मिला । तब वे समुद्र के मध्य भाग में एक पहाड की चोटी पर गए। यहाँ पर किसी का अग्निदाह नहीं हुआ होगा, यह सोचकर उन्होंने चिता की रचना की। इतने में आकाशवाणी हुई कि - अत्र द्रोणशतं दग्धं, पांडवानां शतत्रयम् । दुर्योधनसहसं च, कर्णसंख्या न विद्यते ॥१॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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