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________________ अरे कृष्णजी ! इस स्थान पर १०० द्रोणाचार्यजी, ३०० पांडव व १००० दुर्योधनों का अग्निदाह हो चुका है। कर्ण तो यहाँ पर इतने जला दिए हैं कि उनकी गिनती नहीं हो सकती। यदि समुद्र के मध्य में इतने द्रोणाचार्य आदि का अग्निसंस्कार हो चुका हो, तो सारी पृथिवी पर आज तक द्रोणाचार्य आदि करोडों हो गये होंगे। यह सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार आज राम आदि भी अनेक हुए होंगे, मगर हमें उनके जीवन से श्रेष्ठ आदर्श व गुण अपनाने चाहिये। जैन साधु-साध्वीजी महासती सीता के आदर्श को इतना महत्त्व देते हैं कि उनका नाम लिए बिना, अपने शयन स्थान से सुबह होने पर भी १०० कदम के बाहर नहीं जाते। अहो कितना महत्त्वपूर्ण आदर्श जिन्दा है महासती सीता का। इस प्रकार रामायण के पात्रों का चिन्तन-मनन करके जीवन श्रेष्ठ बनाना चाहिए। कबीरदासजीने कहा हैं कि, जीवन ऐसा चाहिए, जैसा शूप सुहाय। सार सार को ग्रही ले, थोथा देई उडाय ॥१॥ उपसंहार : इस सारे प्राक्कथन का यह उपसंहार है कि हमें भ्रातृप्रेम, पितृभक्ति, सास-बहु का प्रेम, देवरभोजाई का वात्सल्य, माता-पुत्री का स्नेह, पत्नी का समर्पणभाव, पतिकर्तव्य का उत्तरदायित्व आदि मार्गानुसारी गुणों समान पर्वत की तलहटी से प्रारंभकर सम्यग्दर्शन, देशविरति, सर्वविरति के सोपान पर चढ़कर पर्वत की चोटी समान मोक्षनगर तक पहुँचना है। यह सोपान क्रम रामायण में दृष्टि गोचर होता है। जैसे मित्र का संदेश सुनकर दशरथ के पिता राजा अनरण्य, वृद्ध कंचुकी को देखकर राजा दशरथ, राम, भरत, शत्रुघ्न, कैकेयी, सीताजी, लक्ष्मण की मृत्यु देखकर लव-कुश, रावण की मृत्यु से प्रभावित हुए कुंभकर्ण, ईन्द्रजित, मेघवाहन, मंदोदरी, सूर्यास्त देखकर हनुमानजी, राम की मृत्यु से प्रभावित सुग्रीव, बिभीषण आदि दीक्षा ग्रहणकर आत्मकल्याण व मोक्ष के उच्च शिखर तक पहुँच सके हैं। अतः कहा गया है कि रामायण दीक्षा की खान है। पुमर्थाः इह चत्वारः, कामार्थों तत्र जन्मिनाम्, । अर्थभूतौ नामधेयादनौँ परमार्थतः, ॥ अर्थस्तु मोक्ष एवैको, धर्मस्तस्य कारणम् ॥ यद्यपि धर्म-अर्थ-काम- मोक्ष, चार पुरुषार्थ कहलाते हैं, परंतु उनमें अर्थ और काम नाममात्र के पुरुषार्थ हैं। परंपरा में वे अनर्थ को साधनेवाले हैं। वास्तविक अर्थ में एक मोक्ष ही पुरुषार्थ है, और धर्म उसका कारण है। जो धर्म मोक्ष का कारण हो, वही धर्म पुरुषार्थ कहलाता है, अन्य नहीं। यह शास्त्रोक्त वचन है। रामायण के मुख्य पात्रों का चिंतन मनन करने से यह ज्ञात होता है कि अधिकतर पात्रों ने मोक्ष पुरुषार्थ को ही प्रधानत्व दिया है। आप भी मोक्षपुरूषार्थ करके परंपरागत मोक्ष प्राप्त करें, यही शुभेच्छा । इस पुस्तक व प्राक्कथन में कुछ भी शास्त्र विरुद्ध लिखा हो, तो मिच्छामि दुक्कडं ! श्रावण सुद १० - गुणरत्नसूरि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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