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________________ 52 क्रोध से संदीप्त जटायु की स्वामिभक्ति अतुलनीय थी। अपनी तीक्ष्ण चोंच व पैने नाखूनों से उसने रावण का वक्षस्थल क्षतविक्षत कर डाला। जमीन पर हल चलाने वाले किसान की भाँति जटायु के नाखून, रावण का सीना फाड़ रहे थे। अंत में रावण ने अपने खड्ग का प्रहार उसके पंखो पर किया व उसे भूमि पर गिरने के लिये विवश किया। रावण, बलशाली एवं मायावी था। जटायु, पक्षी था... रावण की तुलना में उसके पास कुछ भी नहीं था। किंतु उसका सब से महान बल था धर्म । अधर्म को रोकने के लिए धार्मिक आत्माओं को जटायु की तरह अधर्मी से लड़ना चाहिए, ताकि अपने कर्तव्यपूर्ति का संतोष उन्हें मिले। अपनी राह से उन्हें पीछे हटना नहीं चाहिए। अन्यत्र कहा है कि, धर्मध्वंसे क्रियालोपे स्वसिद्धान्तार्थविप्लवे। पृष्टेनापृष्टेन वा यतितव्यं निषेधितुं । नम्रतापूर्वक वार्तालाप करने लगा। “मैं रावण, आकाशगामी एवं पृथ्वीपर बसे हुए अनगिनत राजाओं का स्वामी हूँ। आप मेरी पटरानी बनोगी, तो जो मेरा है, वह सब आपका हो जाएगा। अतः शोक के स्थान पर आपको हर्ष होना चाहिए। आपका भाग्य अब तक शक्तिहीन था, इसीलिए आप इतने दिन राम से जुड़ी रही। राम को आपके रूप के अनुरूप कुछ भव्य कार्य करना चाहिए था, किंतु उसने जो नहीं किया, वह मैं कर रहा हूँ। हे देवी ! मैं आपका दास हूँ.. आप मुझे ही अपना पति मानिये । जब त्रिखंडस्वामी रावण आपका दास बन सकता है, तब विद्याधरों का क्या कहना ? वे एवं उनकी स्त्रियाएँ आपकी दासदासी बनेगी।" अर्थात् धर्म का ध्वंस होता हो या धर्मक्रिया का लोप होता हो, तो बिना पूछे ही अशक्त व्यक्ति को भी प्रतिकार करना चाहिये । अशक्त व्यक्ति को जटायु की तरह निडर होकर प्राण की होड लगाकर भी प्रतिकार करना चाहिए। MANTIMa रत्नजटी राजा का प्रतिकार आकाशमार्ग से रावण का विमान सागर पर से गुजर रहा था। सीता "हे राम... हे लक्ष्मण.... हे भामंडल...." इन करुण शब्दों में अपने पति, देवर व अनुज का नाम ले लेकर विलाप कर रही थी। सीता का करुण विलाप सुनकर कंबुद्वीप के विद्याधर राजा रत्नजटी ने अपना खड्ग निकाला व रावण पर आक्रमण किया। परंतु रावण ने अपनी मायावी शक्ति से उसकी समस्त विद्याएँ छीन ली। अंत में रत्नजटी राजा बेहोश होकर कंबुद्वीप में जा गिरा। समुद्र की शीतल हवा के कारण जब उसे पुनः चेतना प्राप्त हुई, तब वह कंबु पर्वत पर चढा। विमान मैं बैठा रावण तीन खंडों का स्वामी था, बलशाली एवं बुद्धिशाली था, किंतु कामवासना का शिकार होकर वह शोकातुर सीताजी से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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