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________________ वे भी अयोध्या में चलते लोकप्रवाद को सुनकर पुनः लौटे। किंतु अब की बार जब वे रामचंद्रजी से वार्तालाप कर रहे थे, लक्ष्मण भी वहाँ उपस्थित थे। तब सीता की निंदा सुनते ही शीघ्रकोपी लक्ष्मण क्रोधित होकर बोले, "सती सीता के हर निंदक के लिए मैं यमराज हूँ। मैं, सीता की निंदा कतई सह नहीं सकता" रामचंद्रजी बोले, "हे अनुज विजय आदि गुप्तचरों ने मुझे इस प्रवाद से पहले ही परिचित किया था। मैं स्वयं छद्मवेश धारण कर नगर की परिक्रमा कर आया हूँ। लोगों की चर्चा मैंने स्वयं सुनी है। अब सीता का त्याग करने से ही यह प्रवाद मिटेगा । राजपुरुष के लिए उसकी व वंश की कीर्ति से बढकर कोई अन्य वस्तु नहीं हो सकती। लक्ष्मण शरीर के जिस अंग में विष फैलता है, उसे छेदकर वैद्य रुग्ण को जीवित रखते हैं। संपूर्ण विध्वंस से व्यक्तिगत हानि श्रेयस्कर है। “सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पंडितः । अर्थेन कुरुते कार्य कार्यध्वंसो हि दुःसहः ॥" सर्वनाश होने पर प्रज्ञ व्यक्ति, आधा त्यागकर बचे आधे से काम चलाता है क्योंकि संपूर्ण कार्य का नाश, दुःसह होता है। मेरे लिए अपनी एवं सूर्यवंश की कीर्ति अक्षुण्ण रखने के लिए सीता का त्याग करना अनिवार्य हो चुका है। इससे मैं व्यक्तिगत स्तर पर दुःखी बनूँगा, सीताविहीन जीवन मेरे लिए रौद्र यातनाओं से बढ़कर है, किंतु मुझे कुल की प्रतिष्ठा को जीवित रखने के लिए आत्मप्रेम की बलि चढ़ानी ही होगी।" लक्ष्मणजी ने विनति की, "लोकापवाद के लिए सीताजी का त्याग न कीजिये। लोग तो मृदंग के समान होते हैं। आज एक मुख से सीता की निंदा करनेवाले ये अनभिज्ञ लोग कल उनकी स्तुति करेंगे। हम किसीका मुख बाँध नहीं सकते। दूसरी ओर पवित्रतम नारीरत्न सीताजी पर ऐसा करने से क्या अन्याय नहीं होगा ? अतः मैं आपसे विनति कर रहा हूँ कि सीताजी का त्याग मत कीजिए । सीता गर्भवती है, ऐसी कोमल अवस्था में यदि आप उन्हें दुःखी करेंगे, तो राजकुल के भावी वंशजों पर इसका विपरीत परिणाम हो सकता है।" रामचंद्रजी ने कहा, "पिण्डे पिण्डे मतिर्भिन्नः । जितने जन उतनी ही जिहाऐं होती है। जनसामान्य की स्मरणशक्ति भी निर्बल होती है, किंतु क्या तुमने यह नहीं सुना Jain Education International 85 राजशक्ति को जनशक्ति का कभी अवमान नहीं करना चाहिये।” इतना कहकर उन्होंने सेनापति कृतान्तवदन के द्वारा सीता के लिए बुलावा भेजा। राम के पैर में गिरकर लक्ष्मण की विनति भावुक लक्ष्मण रामचंद्र के चरणों में गिरकर फूट-फूट कर रोने लगे। उन्होंने बारबार राम से कहा कि, “महासती सीता का त्याग अनुचित एवं अनैतिक है।" परंतु रामचंद्रजी ने उनकी एक नहीं सुनी, फिर भी लक्ष्मण उन्हें मनाते रहे, अंत में क्रोधावेश में आकर वे बोले, "अनुज लक्ष्मण ! तुम अब इस विषय में मौन रहोगे, क्यों कि मैंने निश्चय किया है और चाहे कुछ भी हो, अब उसमें परिवर्तन नहीं आने दूंगा।" यह सुनते ही दुःखावेग से गलितगात्र लक्ष्मण ने उत्तरीय से अपना मुख ढॉक लिया और वहाँ से चल दिये। उन्होंने रामचंद्रजी के साथ अन्य कोई प्रतिकार अथवा विद्रोह नहीं किया। सारथि कृतान्तवदन के आते ही रामचंद्रजी ने उसे कहा, “हमारी आज्ञा से आप वह कर्म करने जा रहा है, जो बहुत अप्रिय, अनैतिक होते हुए भी अनिवार्य है। सांप्रत चल रहे सीताजी के चारित्र्यहनन की चर्चा सुनकर मैंने राज्यहित एवं सूर्यवंश के निर्मल यश के लिए उन्हें त्यागने का निर्णय लिया है। गर्भवती सीता के मन में सम्मेतशिखरजी की यात्रा करने का दोहद उत्पन्न हुआ है। अतः यात्रा का निमित्त बनाकर उन्हें अयोध्या की सीमाओं से बाहर ले जाईये और कहीं भी भयंकर घनघोर बिहावणे जंगल में छोडकर पुनः लौट आईये।" For Personal & Private Use Only PILIP www.jainelibrary.org 96
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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