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________________ कैकेयी के लालित्य एवं लावण्य से विमोहित राजा, मन में विचार करने लगे कि, "क्या आज मेरे भाग्यरवि का उदय होगा ? क्या यह कन्या मेरे पास आकर मुझे अपने जीवनसंगी के रूप में स्वीकार करेगी? यहाँ तो एक से बढ़कर एक रूपशाली, धैर्यशाली, उत्तम कुलोत्पन्न राजवंशी उपस्थित है ? सभी ही के हृदय में कैकेयी को पाने की अभिलाषा है। क्या यह कन्या मुझे पसंद करेगी?' जैसे ही कैकेयी एक एक राजा के समक्ष आकर उनका निरीक्षण करती, वैसे ही उन राजाओं के हृदयसागर में आनंद एवं उमंग की लहर उमडती । मानो हृदयसागर में ज्वार आया हो। परंतु जब वह उन्हें देखा अनदेखा कर आगे चली जाती, तब उनके हृदयसमुद्र में निराशा का भाटा आ जाता। इस प्रकार स्वयंवर मंडप में उपस्थित बहुत से राजवंशियों को निराशासागर में जलसमाधि देते देते अचानक कैकेयी कार्पटिकवेशधारी दशरथ राजा के समक्ष आकर खड़ी हो गई। मानो विशाल सागर का रौद्रभीषण सौंदर्य देखकर आश्चर्य से वहीं की वहीं थमी हुई गंगा नदी हो । दशरथराजा का उन्नत ललाट, कमलदलसमान नेत्र, मनोहारी हास्य एवं पौरुषसभर प्रमाणबद्ध शरीर निहारते कैकेयी का शरीर रोमांचित हुआ। एक पल भी विलंब किये बिना कैकेयी ने दशरथ के कंबुसमान ग्रीवा में वरमाला पहना दी। हरिवाहनादि सब ही राजा यह दृश्य देखकर क्रोध से तमतमा उठे । स्वयंवर मंडप में सुंदर, बलशाली, पराक्रमी एवं कुलवान ऐसे अनेक राजवंशी थे। फिर भी उन्हें ठुकराकर राजकुमारी ने एक सामान्यतम कार्पटिक के गले में वरमाला डाल दी। यह घटना सब ही राजाओं को बड़ी अपमानजनक लगी। उनकी क्रोधाग्नि भडक उठी। वास्तविकता से यदि विचार किया जाए, तो इस में कुछ भी अपमानजनक नहीं था। स्वयंवर में अपने पति का चयन करने की संपूर्ण स्वतंत्रता राजकुमारी को दी जाती है। वह जिस किसी को भी चुनती है, उसी के साथ उसका विवाह संपन्न हो जाता है। फिर भी मोहाधीन जीव तात्विक विचार नहीं करते। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004226
Book TitleJain Ramayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunratnasuri
PublisherJingun Aradhak Trust
Publication Year2002
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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