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परिशिष्ट - ९ बाग़रवंश की स्थापना
वाली, सुग्रीव वगैरह वानर कहलाते थे। वे काले मुँह व लम्बी पूंछ वाले बन्दर नहीं थे, किन्तु विद्याधर मनुष्य थे, फिर भी वानर वंश के होने से वानर कहलाये । वानर वंश की स्थापना इस प्रकार हुई......
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इस भरत क्षेत्र में जब श्रेयांसनाथ भगवान का शासन चल रहा था, तब राक्षसद्वीप में कीर्तिधवल राजा राज्य करता था । उस समय वैताढ्य पर्वत के दक्षिण भाग में मेघपुर नामक नगर में अतीन्द्र राजा था। उसकी पत्नी श्रीमती ने एक पुत्र व पुत्री को जन्म दिया। पुत्र का नाम श्रीकण्ठ व पुत्री का नाम देवी रखा। देवी, वास्तव में स्वर्ग की देवी के समान अत्यन्त रूपवती थी। यौवन अवस्था प्राप्त होने पर रत्नपुर नगर के राजा पुष्पोत्तर ने अपने पुत्र राजकुमार पद्मोत्तर के लिए राजकुमारी देवी की मंगनी की पुष्पोत्तर राजा को पद्मा नामक एक पुत्री थी । अतीन्द्र राजा ने पुष्पोत्तर की माँग ठुकरा दी और भाग्य योग्य से देवी की शादी राक्षस वंश के राजा कीर्तिधवल के साथ कर दी। इससे अतीन्द्र राजा व उनके पुत्र राजकुमार श्रीकण्ठ और पुष्पोत्तर के बीच में वैरभाव शुरू हुआ। दुनिया के अन्दर यह चलता ही रहता है कि जब कोई व्यक्ति किसी की बात नहीं मानता, तो विवेकहीन भौतिक वस्तु का प्रेमी उसे अपना शत्रु मान बैठता है। जबकि विवेकी मनुष्य यह सोचता है कि मेरी दृष्टि से मुझे कुछ योग्य लगा था, उसको अपनी दृष्टि से दूसरा योग्य लगा। अतः उसने वह किया होगा। उस पर अपनी दृष्टि थोपने का मेरा कोई अधिकार नहीं है। इस प्रकार विवेक द्वारा मन का समाधान न करने से मेघपुर व रत्नपुर के राजाओं के बीच में वैर के अंकुर का प्रादुर्भाव हो गया।
एक बार श्रीकंठ राजकुमार यात्रा के लिये गया हुआ था। वहाँ से लौटते उसने रत्नपुर में पद्मा नाम की राजकुमारी को देखा। देखते ही उसके प्रति प्रेम उभर आया। पद्मा की भी दृष्टि राजकुमार श्रीकण्ठ के ऊपर गिरी। आँखों से आँखें मिल गई। हृदय से हृदय मिल गया। प्रेम से प्रेम जुड़ गया। पद्मा सोचने लगी कि यह राजकुमार यहाँ से • अपहरण करके मुझे लेकर चला जाए, तो कितना अच्छा हो ? विचक्षण राजकुमार श्रीकण्ठ, पद्मा के मन की परिस्थिति को तुरन्त भांप गया और साहस करके पद्मा को अपने विमान में बैठाकर आकाश मार्ग से चल पड़ा।
पद्मा की दासियों ने हाहाकार मचाया। वे जोर से चिल्लाने लगी। अपहरण. पद्मा का अपहरण.... । यह हृदयद्रावक समाचार सुनते ही पुष्पोत्तर राजा क्रोध से तमतमाने लगा । अपना ही शत्रु अपनी पुत्री का अपहरण करके भाग गया, यह जानकर उसकी क्रोधाग्नि और भी भड़क उठी, मानो जलती हुई आहूति में घी डाल दिया हो ।
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उसने सेना सज्ज बनाई और सेना सहित श्रीकण्ठ का पीछा करने आकाश मार्ग से विमान द्वारा प्रयाण किया ।
भागता हुआ श्रीकण्ठ राजकुमार लंका नगरी में पहुँच कर अपने बहनोई राक्षस वंश के राजा कीर्तिधवल की शरण में गया और उसे राजकुमारी पद्मा की प्रेम कहानी सुनाई। इतने में पुष्पोत्तर राजा आ पहुंचा। उसने लंका नगरी को घेर ली। कीर्तिधवल राजा ने पुष्पोत्तर राजा के पास संदेशवाहक दूत भेजा। दूत ने पुष्पोत्तर
राजा के पास आकर कहा “आपका प्रयास निष्फल है क्योंकि आपकी कन्या दूसरे को ब्याहनी ही थी और उसने अपने आप अपना जीवन साथी ढूँढ लिया है, तो इसमें श्रीकण्ठ को दोषी क्यों माना जाए ? • आपको व हमें युद्ध भी क्यों करना चाहिये। युद्ध से तो आपकी पुत्री के दिल में भी दर्द होगा। अब अवसर तो यह है कि आप इन दोनों वर-वधु का विवाह कृत्य सानंद कर लें व युगल को अपने शुभ आशीर्वाद प्रदान करें मेरी दृष्टि से यही समयोचित है।"
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इतने में राजकुमारी पद्मा की
एक दासी ने पुष्पोत्तर राजा के पास आकर कहा "राजकुमारी पद्मा ने कहलाया है कि वास्तव में राजकुमार श्रीकण्ठ ने मेरा अपहरण नहीं किया है किन्तु मैंने ही उसको अपने जीवन साथी के रूप में पसन्द किया है।" यह सुनकर पुष्पोत्तर राजा का क्रोध शान्त हो गया। विचारशील पुरुषों का क्रोध अतितीव्र न होकर योग्य समाधान होने पर शीघ्र शान्त हो जाता है। पुष्पोत्तर राजा ने श्रीकण्ठ व पद्मा का विवाह धूमधाम महोत्सव पूर्वक किया और रत्नपुर नगर की ओर प्रयाण किया ।
कीर्तिधवल राजा ने श्रीकंठ से कहा "आप वैताढ्य पर्वत पर मत जाइये, क्योंकि वहाँ पर आपके बहुत से शत्रु हैं, मैं यह नहीं कहना चाहता कि आप डरपोक हो, मगर जीवन, युद्ध के भयंकर विचार में ही समाप्त करना उचित नहीं हैं। वास्तव में तो आपके हृदयस्नेह के तार से हमारे स्नेह के तार जुड़े हैं। अब उनके टूटने से भविष्य में होने वाले वियोग को मैं सहन नहीं कर सकूंगा। राक्षस द्वीप के पास में ही वानर, सिंहल, बर्बरकुल वगैरह अनेक द्वीप मेरे अधीन है उनमें से किसी एक द्वीप में आप अपनी राजधानी बनाकर निश्चिंत राज्य कीजिए।" यह सुनकर श्रीकण्ठ ने वानर द्वीप के किष्किन्ध नगर में राज्य करना प्रारम्भ किया। श्रीकण्ठ राजा वहाँ पर मनुष्यों के अलावा वानरों (बन्दरों पर
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