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सीताजी की दीक्षा
परंतु सीताजी के मन में कुछ अन्य विचार चल रहे थे। संयत स्वर में वे राम से बोली, "हे आर्यपुत्र ! संपूर्णतया निर्दोष होने पर भी मुझ पर जो कलंकवर्षा की गई, उसका उत्तरदायित्व न आपका है, न अयोध्यावासियों का संपूर्ण निर्दोष होते हुए भी मुझे महाअटवी में जो दुःख भुगतने पडे, उसके लिए न आप दोषी है, न ये अयोध्यावासी। संपूर्णतया पति के आधीन होते हुए भी मुझे दो बार विरह अग्नि में दीर्घ समय जलना पड़ा, उसके लिए अपराधी न रावण है, न आप। यह सब मेरे अशुभ कर्मों का दोष है। एक जन्म में कर्मबंध करना, दूसरे जन्म में उन्हें भुगतकर और नया बाँधना..... कब तक चलता रहेगा, यह दुष्टचक्र ? अब इस संसार से मेरा मन उद्विग्न हो चुका है। अतः मैंने कर्मों का विनाश करनेवाली व मोक्ष मार्ग में सहायक दीक्षा का स्वीकार करने का निश्चय किया है।” इतना कहकर सीता ने अपनी मुट्ठी से अपने कुरल केशों को उखेडकर राम के हाथों में थमा दिए ।
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यह देखते ही उपस्थित जन दिव्यगण
के मानसपर भगवान के दीक्षा ग्रहण की स्मृति उभर आई। क्योंकि भगवान निर्विकार मुद्रा से स्वयं केशलोच कर उन्हें इन्द्र के हाथों में थमा देते हैं।
यह दृश्य देखकर रामचंद्र बेहोश हो गए। कुछ समय के पश्चात् वे स्वस्थ बने। परंतु उनके स्वस्थ होने के पूर्व सीता, केवलज्ञानी जयभूषण मुनि के पास पहुँच चुकी थी । वहाँ उन्होंने विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण की नूतन साध्वीजी सीता, सुप्रभा नामक गणिनी के परिवार में कठोर साधना एवं तपश्चर्या में तत्पर बन गई।
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