Book Title: Aagam 28 V TANDUL VAICHAARIK Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२८-वृ] श्री तन्दुलवैचारिक (प्रकीर्णक)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “तन्दुलवैचारिक” मूलं एवं अवचूर्णि: [मूलं एवं विजयविमल गणि विवृत्ता अवचूर्णिः] [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता→ मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र [२८-वृ]. प्रकीर्णकसूत्र [५] चतुःशरण" मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ~0~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं [-] ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: 'तन्दुलवैचारिकं' प्रकीर्णक (१) श्री देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार ग्रन्थाङ्क: ५९ श्रुतस्थवीर-प्रणीतं "तन्दुलवैचारिकं प्रकीर्णकं' एवं विजयविमलगणि विहित अवचूर्णि: AAAAAAAAS तन्दुलवैचारिक-प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाइका: २०+१३९ 'तन्दुलवैचारिक' प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: १६१ मूलांक: | सूत्र//गाथा पृष्ठांक: मूलांक: सूत्र//गाथा | पृष्ठांक: मूलाक: सूत्र//गाथा | पृष्ठांक: ००४ ०३६ ००१ । मङ्गलं-द्वाराणि । ०५८ । धर्मोपदेश: एवं तस्य फलम् | अनित्य-अशुचित्वादि । | ००४ | ०६५ | ११७ ११७ गर्भ-प्रकरणं देहसंहननं-आहारादि उपदेश:, उपसंहार: ००८ । ०६६ । ०८९ ०४३ । ०७५ । ०६६ जीवस्य दश-दशा काल-प्रमाणं । । Els ०८३ । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [२८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया ~ 2. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['तन्दुलवैचारिक' - मूलं एवं संस्कृतछाया इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत "श्रुतस्थविरदृब्ध तन्दुलवैचारिकप्रकीर्णकम" नामसे प्रकाशित हई, इस प्रतमे (आगम-२४) 'चतुःशरणं' नामक प्रकीर्णक-१ एवं वानर्षि गणि विवत्ता अवचूर्णि: सम्मिलित है इसके आद्य संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | हमारा ये प्रयास क्यों? : आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस ] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक विषय-आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | कई-कई पृष्ठो के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे खास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। .......मुनि दीपरत्नसागर... त मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र - [०५] "तन्दुलवैचारिक मूलं एवं संस्कृतछाया ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------- मूलं [--] ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक 8455084426 श्रेष्ठी-देवचंद-लालभाई-जैनपुस्तकोद्धार-ग्रन्थाङ्केश्रीआनन्दविमलसूरिशिष्यप्रवरश्रीविजयविमलविहितविवृतियुतं श्रुतस्थविरदृब्धं तन्दुलवैचारिकप्रकीर्णम् । CCCCCCCCCC--- अनुक्रम ऋषभं वृषसंयुक्तं, वीर वैरनिवारकम् । गौतमं गुणसंयुक्त, सिद्धान्त सिद्धिदायकम् ॥१॥ प्रणम्य स्वगुरुं भक्त्या, वक्ष्ये व्याख्यां गुरोः शुभाम् । तन्दुलाख्यप्रकीर्णस्ये, वैराग्यरसवारिधेः॥२॥ ननु कियन्ति प्रकीर्णकानि कथ्यन्ते, कथं तेषां चोत्पत्तिः, उच्यते 'नंदी १ अणुओगदाराई २ देविदत्थओ ३ तंदुकालवेयालियं ४ चंदाविज्झय ५ मित्यादीनि श्रीनन्दीसूत्रोक्तानि कालिकोत्कालिकभेदभिन्नानि चतुरशीतिसहस्रसंख्यानि द्र प्रकीर्णकान्यभवन् श्रीऋषभस्वामिनः, कथं, ऋषभस्य चतुरशीतिसहस्रप्रमाणाः श्रमणा आसीरन्, तैरकैकस्य विरचितत्वात् १, एवं संख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि आसीरनजितादीनां मध्यमजिनानां, यस्य यावन्ति भवन्ति तस्य तावन्ति गुरुकमामित्यपि २ प्रकीर्णतन्दुलारपस्येत्यपि । नामपि जिनानामित्यपि SUGARCAM तं.वै.प्र.१ वृत्तिकार-कृत् मङ्गलं एवं प्रकीर्णस्य प्रस्तावना ~4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------- मूलं [-]/गाथा||१|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[५] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं. .प्र. प्रत सूत्रांक A-CREASSACRACHAR दीप अनुक्रम प्रथमानुयोगतो वेदितव्यानि २, चतुर्दशप्रकीर्णकसहस्राणि आसीरन बर्द्धमानस्वामिनः ३ इति, तेषां मध्ये श्रीवर्द्ध- महालादि मानस्वामिस्वहस्तदीक्षितेनैकेन साधुना विरचितमिदं तन्दुलवैचारिकं प्रकीर्णक, तस्य व्याख्या क्रियत इति गा.१ निजरियजरामरणं वंदित्ता जिणवरं महावीरं । बुच्छं पयण्णयमिणं तंदुलवेयालियं नाम ॥१॥ 'निजरिय' निर्जरितं-सर्वथा क्षयं नीतं जरा च-वृद्धत्वं मरणं च-पञ्चत्वं जरामरणं यद्वा जरया-वृद्धभावेन जाजरायां-वृद्धभावे वा मरणं जरामरणं येन स निर्जरितजरामरणस्तं, वन्दित्वा-कायवाङमनोभिः नत्वा जिना:-राग-18 द्वेषादिजयनशीलाः सामान्यकेवलिनस्तेषु तेभ्यो वा वरः-प्रधानोऽतिशयापेक्षया श्रेष्ठो जिनवरस्तं जिनवरं, अतिशयस्वरूपं| समचायाङ्गोक्तं यथा-'चोत्तीस बुद्धातिसेसा पं० त०-अवहिए केसमंसुरोमणहे १ निरामया णिरुवलेवागायलट्ठी, अयं जन्मप्रत्ययः २ गोखीरपंडुरे मंससोणिए, जन्मप्रत्ययः३ पउमुष्पलगंधिए उस्सासनिस्सासे, जन्मप्रत्ययः ४ पच्छण्णे आहारणीहारे अदिस्से मंसचखुणा, जन्मप्रत्ययः ५ आगासगयं चकं ६ आगासगयं छत्तं ७ आगासियाओ सेयवरचामराओ ८ आगा|सफालियमयं सपायपीढं सीहासणं-आकाशमिव-यदत्यन्तमच्छं स्फटिकं तन्मयं ९ आगासगओ कुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामो इंदज्झओ पुरओ गच्छति १० जत्थ जत्थविय णं अरहंता भगवंतो चिट्ठति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थविय णं तक्खणादेव संछण्णपत्तपुप्फपल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झओ सघंटो सपडाओ असोगवरपायवो अभिसंजायति ११ ईसिं तानि च तीर्थस्वामिस्वहस्सदीक्षियाधुविरचितानि वा तीर्थकरतीर्थसाधुविरचितानि वा प्रत्येकवुद्धविरचितानिवेति, अनादी ग्रन्थकारो मालाचभिधानाय | गाथामाहेत्यपि २ स्तुतिं विधायेत्यपि ACCORPORAS REL भगवन् महावीरस्तुतिः, भगवत: ३४ अतिशयानां वर्णनं ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) "तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं -/गाथा ||१|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत ॐॐॐ4 दीप 4 पिढओ मउडठ्ठाणंमि तेयमंडलं अभिसंजायति, अंधकारेविय णं दस दिआसो पभासेइ, ईषद्-अल्पं 'पिट्ठओं' त्ति पृष्ठतः &ा पश्चाभागे 'मउडठाणमित्ति मस्तकप्रदेशे १२ बहुसमरमणिजे भूमिभागे १३ अहोसिरा कंटगा भवन्ति १४ उऊ विवरीया सुहफासा भवन्ति १५ सीयलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारुएणं जोयणपरिमंडलं सबओ समंता संपमजिजइ १६ जुत्तफुसिएण य मेहेण निहयरयरेणुयं कज्जइ-जुत्तफुसिएणं'ति उचितबिन्दुपातेन 'निहयरयरेणुय'ति वातोद्ध्मातमाकाशवर्ति रजः भूवर्ती तु रेणुरिति गंधोदकवर्षाभिधानः १७ जलथलयभासुरप्पभूएणं विंटट्ठाइणा दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं जाणुस्सेहपमाण| मित्ते पुप्फोवयारे कजइ', एतेने सूत्रेण यत् केचिदाहुः-वैक्रियाण्येवैतान्यतोऽचित्तानीति तदयुक्तं, अन्ये वाहः-यत्र प्रतिनस्तिष्ठन्ति न तत्र देवाः पुष्पवृष्टिं कुर्वन्ति१,अन्ये पाहुः-देवादिसंमर्दादचित्तता तेषांर,अपरे वाहुः-भगवदतिशयाद्यत्यादिसंचरणेऽपि न पुष्पजीववधः किन्तु पुष्टिरेवेति ३, प्रवचनसारोद्धारटीकायां तु सर्वगीतार्थसम्मतं तृतीयमतमङ्गीकृतमस्तीति १८, अमणुण्णाणं सहफरिसरसरूवगंधाणं अवकरिसो भवति अपकर्षः-अभावः १९, मणुण्णाणं सहफरिसरसरूवगंधाणं पाउम्भावो भवति प्रादुर्भावः २० पच्चाहरओऽवियणं हिययगमणीओ जोयणणीहारी सरो प्रत्याहरतो-व्याकुर्वतो 3 भगवत इति २१ भगवं च णं अद्धमागधाए भासाए धम्ममाइक्खइ २२ साविय णं अद्धमागधभासा भासिज्जमाणी तेसिं सर्सि आयरियमणारियाणं दुपयचउप्पयपसुपक्खीसरीसिवाणं अप्पप्पणो हियसिवसुहदाइ भासत्ताए परिणमति२३ पुषवद्ध-IPI अस्य वृत्तिः-जलस्थलर्ज भास्वरं प्रभूतं च कुसुमं तेन वृन्तस्थामिना-उध्वमुखेन दशार्धवर्णेन जानुना उत्सेधस्य-उञ्चयस्य यत् प्रमाणं तदेव प्रमाण यस स जानूत्सेधप्रमाणमात्रः पुष्पोपचार:-पुष्पप्रकर इत्यष्टादशा, अन्न केचिदाहुः-पत्र प्रतिन० इत्यपि अनुक्रम %BS aditional ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [१] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + अवचूर्णि:) - मूलं [-] / गाथा || १ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[ २८ ], प्रकीर्णकसूत्र - [५] “तंदुलवैचारिकं” मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णिः तं. वै. प्र. ॥२॥ वेरावियणं देवासुरणागसुवन्नज क्खर क्खसकिन्नरकिंपुरिस गरुलगंधबमहोरगा अरहओ पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामंति२४ अण्णउत्थियपावयणीविय णं आगया वंदति २५ आगया समाणा अरहओ पायमूले निप्पडिवयणा भवंति २६ जओ जओविय णं अरहंता भगवंतो विहरंति तओ तओविय णं जोयणपणवीसाएणं ईती ण भवति २७ मारी न भवति २८ सचकं न भवति २९ परचकं न भवति ३० अइवुट्ठी न भवति ३१ अणावुट्टी न भवति ३२ दुभिक्खं न भवति ३३ पुप्पण्णावियणं उष्पातिया वाही खिप्पामेव उवसमंति ३४ । अत्र च 'पच्चाहरउ' इत आरभ्य १४येऽभिहितास्ते प्रभामण्डलं च कर्मक्षयकृता अतिशेषाः, शेषा भवप्रत्ययेभ्योऽन्ये देवकृता इति । ननु प्राकाराम्बुरुहाद्यतिशया देवकृता अपि चतुखिंशद्बहिः कथम्?, उच्यते, चतुस्त्रिंशत् किल नियता अन्ये त्वनियता इति इदं च किल न स्वबुद्ध्या प्रोच्यते, यदुक्तं श्रीजिनभद्रक्षमाश्रमणैः विशेषणवत्यां - " होऊण व देवकया चउतीसाइसयवाहिरा कीस ? । पागारंबुरुहाई अणण्णसरिसावि लोगम्मि ॥१॥ चोत्तीस किर णियया ते गहिया सेसया अणिययत्ति । सुत्तंमिण संगहिया जह लद्धीओ विसेसाओ ॥२॥” इति, तथा ननु यत्र तीर्थकरा विहरन्ति तत्र देशे पञ्चविंशतियोजनानामादेशान्तरेण द्वादशानां मध्ये तीर्थकरातिशयात् न वैरादयोऽनर्था भवन्तीत्यत्रोक्तं तत्कथं श्रीमन्महावीरे भगवति पुरिमताले नगरे व्यवस्थित एवाभग्नसेनस्य विपाकश्रुताङ्गवर्णितो व्यतिकरः सम्पन्न इति १, अत्रोच्यते, सर्वमिदमर्थानर्थजातं प्राणिनां स्वकृतकर्म्मणः सकाशादुपजायते, कर्म तु द्वेधा-सोपक्रमं निरुपक्रमं च तत्र यानि वैरादीनि सोपक्रमकर्मसम्पाद्यानि तान्येव तीर्थकरारातिशयादुपशाम्यन्ति, सदोषधात् साध्यव्याधिवत्, यानि तु निरुपक्रमकर्मसम्पाद्यानि तानि अवश्यं विपाकतो वेद्यानि नोपक्रमकरणविषयानि, Pre & Pomonal Use Only ~7~ ३४ अति शयाः ॥ २ ॥ jainelibrary.org Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं -/गाथा ||१|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम है असाध्यव्याधिवत् , अत एव सर्वातिशयसम्पत्समन्वितानां जिनानामप्यनुपशान्तवैरभावा गोशालकादय उपसर्गान् विहितवन्त इति । महांश्चासौ वीरश्च-कर्मविदारणसहिष्णुमहावीरस्तम्, 'बुच्छे'ति वक्ष्ये-भणिष्यामि प्रकीर्णकं-श्रीवीरहस्तदीक्षितमुनिविरचितं नन्दीसूत्रोक्तग्रन्थविशेषमिदं-प्रत्यक्षं तन्दुलानां वर्षशतायुष्कपुरुषप्रतिदिनभोग्यानां सङ्ख्याविचारेणोपलक्षितं तन्दुलवैचारिकं नामेति ॥ १॥ मङ्गलाचरणमभिधेयं च प्रतिपाद्यात्र द्वारगाथाद्वयमाह सुणह गणिए दह दसा वाससयाउस्स जह विभजंति । संकलिए वोगसिए जं चा सेसयं होई ॥२॥ जत्तियमित्ते दिवसे जत्तियराईमुहत्तमुस्सासे । गम्भंमि वसह जीवो आहारविहिं च बुच्छामि ॥३॥ है। 'सुणह० जत्तिय०' अन्न पदानां सम्बन्धोऽयं- वर्षशतायुषो जन्तोयथा दश दशा-दशावस्था विभज्जन्ती'ति पृथग् भवन्ति तथा यूयं शृणुत, क सति?-गणिते-एकट्यादीति क्रियमाणे सति, तथा दशदशा सङ्कलिते-एकत्रमीलिते ६ तथा व्युत्कर्षिते-निष्कासिते सति 'वाससयं परमाउं इत्तो पन्नासं हरइ निदाए' इत्यादिना यच्चायु शेषकं भवति तदपि यूयं शृणुत ॥ २॥ यावन्मात्रान् दिवसान् यावद्रात्रीयोवन्मुहूर्तान् यावदुच्छासान् जीवो गर्भे वसति तान् वक्ष्ये, गों|दिके आहारविधि चशब्दाच्छरीररोमादिस्वरूपं च वक्ष्ये-भणियामीति ॥३॥ तत्र गर्भे अहोरात्राणां प्रमाणमाह दुन्नि अहोरत्तसए संपुण्णे सत्तसत्तरं चेव । गम्भंमि वसइ जीवो अद्धमहोरत्तमपणं च ॥४॥ | एए तु अहोरत्ता नियमा जीवस्स गन्भवासंमि । हीणाहिया उ इत्तो उवघायवसेण जायंति ॥५॥ कमिदं भनन्तरमेव वक्ष्यमाणं तन्दुलानामित्यादि इत्यपि २ सामान्येन मलमभिधेयं चाभिधाय विशेषतोऽभिधेयप्रतिपावनायेत्यपि ASACRACRACK 'तन्दुलवैचारिक' शब्दस्य व्याख्या, ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------- मूलं -/गाथा ||४-८|| ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं.वे.प्र. प्रत ॥३॥ मुहूत्रों सूत्रांक ||४-८|| ४-८ दीप अनुक्रम [४-८] अट्ठ सहस्सा तिन्नि उ सया मुहुत्ताण पन्नवीसा य । गन्भगओ वसइ जीओ नियमा हीणाहिया इत्तो ॥६॥ द्वारनिर्देतिन्नेव य कोडीओ चउदस य हवंति सयसहस्साई। दस चेव सहस्साइं दुन्नि सया पण्णवीसा य ॥७॥ शः २-३ उसासा निस्सासा इत्तियमित्ता हवंति संकलिया।जीवस्स गम्भवासे नियमा हीणाहिया इत्तो ॥८॥ अहोरात्र "दुन्नि" द्वे अहोरात्रशते (२००) सम्पूर्णे सप्तसप्तत्यधिके (७७) अन्यदर्धमहोरात्रं च जीवो गर्भे वसति-तिष्ठति, एतावता नव मासान् सार्धसप्तदिनांश्च जीवो गर्भे तिष्ठतीत्यर्थः ॥४॥ "एए तु” एते-उक्तरूपा अहोरात्रा निश्चयेन जीवस्य | कच्छासमानं & गर्भवासे भवन्ति 'इत्तो'त्ति अस्मादुक्तादहोरात्रप्रमाणात् उपघातवशेन-वातपित्तादिदोषेण हीनाधिका अपि 'जायंति'त्ति | धातनामनेकार्थत्वात् भवन्तीत्यर्थः, तु शब्दोऽप्यर्थः स च योजित इति ॥ ५॥ अथ गर्भ मुहूर्तानां प्रमाणमाह-"अट्ठ। सहस्सा" अष्टी सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि मुहूतानि (८३२५) निश्चयेन जीवो गर्भ वसति, तानि च कथं भवन्ति?, उक्तलक्षणाः सप्तसप्तत्यधिकद्विशताहोरात्राः (२७७) त्रिंशता गुणिताः (८३१०) एतावन्तो भवन्ति, अर्द्धाहोरात्रस्य च पञ्चदश मुहूर्तानि क्षिप्यन्ते जातानि ( ८३२५) इति, इत:-उक्तरूपात् (८३२५) वातदोषादि-| कारणेन हीनाधिकान्यपि मुहूर्तानि वसति गर्भ जीव इति ॥ ६॥ अथ गाथाद्वयन गर्भे निःश्वासोच्छ्वासप्रमाणमाह"तिन्नेव." "उस्सास" तिस्रः कोटयः चतुर्दश शतसहस्राणि-चतुर्दश लक्षाणीत्यर्थः दश सहस्राणि द्वे शते पञ्चविंशत्यधिके इति (३१४१०२२५) 'इत्तियमित्ता' इति एतावन्मात्राः सङ्कलिताः-एकीकृताः जीवस्य गर्भवासे निश्चयेन ॥३॥ निःश्वासोच्छवासा भवन्ति, कथं , एकस्मिन्नन्तर्मु(न्मु)हतें सप्तत्रिंशच्छतानि त्रिसप्तत्यधिकानि (३७७३)निःश्वासोच्छ्वासा गर्भमध्ये अहोरात्राणां प्रमाणं कथयते ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक ॥४-८॥ दीप अनुक्रम [४-८] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + अवचूर्णि:) मूलं [-]/गाथा ||४-८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[ २८ ], प्रकीर्णकसूत्र - [५] “तंदुलवैचारिकं” मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णिः भवन्ति, एतैश्च पदैः तानि (८३२५) उक्तरूपाणि मुहूर्त्तानि गुण्यन्ते तदा यथोक्तं ( ३१४१०२२५) एतद् भवतीति, इतः - उक्तरूपात् वातादिकारणेन हीनाधिका निःश्वासोच्छ्रासा भवन्तीति ॥ ७-८ ॥ अथाहाराधिकारे किञ्चिद्गर्भादिस्वरूपमाहआउसो !-इत्थीए नाभिहिट्ठा सिरादुर्गं पुष्कनालियागारं । तस्स य हिट्ठा जोणी अहोमुद्दा संठिया कोसा ॥ ९ ॥ तरस य हिट्ठा चूपस्स मंजरी [जारिसी] तारिसा उ मंसस्स । ते रिउकाले फुडिया सोणियलवया विमोयंति १० कोसायारं जोणिं संपत्ता सुकमीसिया जइया । तझ्या जीवबवाए जुग्गा भणिआ जिणिदेहिं ॥ ११ ॥ “आउसो ! इत्थी ०” हे आयुष्मन् ! हे गौतम! स्त्रियाः - नार्याः नाभेरधः - अधोभागे पुष्पनालिकाकारं सुमनोवृन्त| सदृशं शिराद्विकं धमनियुग्मं वर्त्तते, च पुनस्तस्य- शिराद्विकस्याधो योनिः स्मरकूपिका संस्थिता अस्ति, किंभूता ? - अधोमुखा, पुनः किंभूता ? - 'कोस'त्ति कोशा- खड्ग पिधानकाकारेत्यर्थः ॥ ९ ॥ " तस्स य०” तस्याश्च योनेरधः - अधोभागे 'चूतस्य' आम्रस्य यादृश्यो मञ्जर्यो- वलरयो भवन्ति तादृश्यो मांसस्य - पललस्य मञ्जरयो भवन्ति, ता मञ्जरयः स्त्रीणां मासान्ते यदजस्रमिश्रं दिनत्रयं श्रवति तद्ऋतुकालः - स्त्रीधर्मप्रस्तावस्तस्मिन् स्फुटिताः - प्रफुल्लाः सत्यः शोणितलवकान् - रुधिरबिन्दून् विमुञ्चन्ति - श्रवन्ति ॥१०॥ "कोसा०" ते रुधिरबिन्दवः कोशाकारां योनिं सम्प्राप्ताः सन्तः शुक्रमिश्रिताः - ऋतुदिनत्रयान्ते पुरुषसंयोगेन अपुरुषसंयोगेन वा पुरुषवीर्येण मिलिताः 'जय'त्ति यदा भवन्ति 'तय'त्ति तदा जीवोत्पादे गर्भसम्भूतिलक्षणे योग्या | भणिता-कथिता जिनेन्द्रैः सर्वज्ञैरिति । ननु कथं पुरुषासंयोगे पुरुषवीर्यसम्भव इति?, अत्रोच्यते, स्थानाङ्गाभिप्रायेण यथा-"पंचहिं ठाणेहिमित्थी पुरिसेण सद्धिं असंवसमाणीवि गन्भं घरेज्जा, तं० इत्थी दुबिप्पयडा दुन्निसन्ना सुकप्पोग्गले अधिट्ठिज्जा १ मुक Für Prate & Pomonal Use City ~10~ jainelibrary.org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------- मूलं -/गाथा ||९-११|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम प्पोग्गलसंसढे व से वत्थे अंतो जोणीए अणुपवेसेजारसय व से सुक्कपोग्गले अणुपवेसेजा३परो व से सुक्कपोग्गले अणुपवेसेजा गर्भस्वरूपं ४ सीओदगवियडेण वा से आयममाणीए सुकपोग्गले अणुपवेसेज्जापइच्चेतेहिं पंचजावधरेज्जा' दु०परिधानवर्जितेत्यर्थः । | दुनिषण्णा पुरुषशुक्रपुद्गलान् कथश्चित् पुरुषनिसृष्टान् आसनस्थानधितिष्ठेत्-योन्याकर्षणेन सङ्गहीयात् (१) तथा शुक्र- 1 वस्तयोपद्दलसंसृष्टं 'सेतस्याः स्त्रिया वस्त्रमन्तः-मध्ये योनावनुप्रविशेद्, इह च वस्त्रमित्युपलक्षणं तथाविधमन्यदपि अनुप्रवि-18| न्यादि शेदिति २ स्वयमिति पुत्रार्थिनीत्वाच्छीलरक्षकत्वाच्च 'से'त्ति सा शुक्रपुद्गलान् योनावनुप्रवेशयेत् ३ परो वत्ति श्वश्रृप्र-IC १२-१३ भृतिकः पुत्रार्थमेव से तस्या योनाविति ४ शीतोदकलक्षणं यद् विकटं पल्वलादिगतमित्यर्थः तेन वा 'से तस्याः आच-12 मन्त्याः पूर्वपतिता-उदकमध्यवर्तिनः शुक्रपुद्गलाः अनुप्रविशेयुरिति ५॥ ११॥ अथाध्वस्तध्वस्तयोनिकालमानं जीवसङ्ख्यापरिमाणं चाहबारस चेव मुहुत्ता उवरि विद्धंस गच्छई सा उ । जीवाणं परिसंखा लक्खपिहुत्तं च उक्कोसं ॥१२॥ पणपन्नाय परेणं जोणी पमिलायए महिलियाणं । पणसत्तरिइ परओ पाएण पुमं भवेऽवीओ॥१३॥ "बारस." सा पुरुषवीर्यसंयुक्ता योनिर्द्वादशैव मुहूर्त्तान् यावदध्वस्ता भवति, तथा 'उवरिन्ति द्वादशमुहर्तानन्तरं सा योनिर्विध्वंसं गच्छति प्रामोतीत्यर्थः, अयमाशयः-ऋत्वन्ते स्त्रीणां नरोपभोगेन द्वादशमुहूर्त्तमध्य एव गर्भभावः, तदनन्तरं वीर्यविनाशात् गभाभाव इति, तथा मनुष्यगर्भे जीवानां-गर्भजजन्तूनां परिसक्या-मानं|४ लक्षपृथक्त्वमुस्कृष्टतो भवति, सिद्धान्तभापया पृथक्त्वं द्विप्रभृतिरा नवभ्यः साया कथ्यते इति ॥ १२॥ अथ | [९-११] ANSACROSAX 'योनिर्विध्वंस' काल्मान कथयते ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) "तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [-/गाथा ||१२-१३|| ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ॥१२ CACCESS -१३|| कियद्भ्यो वर्षेभ्यः पुनरूज़ गर्भ स्त्रियो न धारयन्ति पुमांश्चाबीजो भवति इति प्रसङ्गतो निरूपयितुमाहW!"पणप०" महिलाना-स्त्रीणां प्रायः प्रवाहेण 'पणपन्नाय'त्ति पञ्चपञ्चाशवर्षेभ्यः परेणं'ति ऊर्व योनिः प्रम्ला-12 8| यति-गर्भधारणसमर्था न भवतीत्यर्थः, भावार्थोऽयं निशीथोक्तः यथा “इत्थीए जाव पणपन्ना वासा न पूरंति ताव अमि लाया जोणी-आत्तवं स्यात् गर्भ च गृहातीत्यर्थः 'पणपन्नवासाए पुण कस्सवि आतेवं भवति न पुण गम्भं गिण्हइ, पणप-16 नाए परओ नो अत्तवं नो गम्भं गिण्हइ" इति, तथा चोक्तं स्थानाङ्गटीकायाम्-"मासि मासि रजः स्त्रीणामजसं श्रवति व्यहम् । वत्सरात् द्वादशादूर्व, याति पश्चाशतः क्षयम् ॥१॥ पूर्णषोडशवर्षा खी, पूर्णविंशेन संगता । शुद्धे गर्भाशये१,18 मार्गे २, रक्ते ३ शुक्रे ४ ऽनिले ५ हृदि ६॥२॥ वीर्यवन्तं सुतं सूते, ततो न्यूनाब्दयोः पुनः । रोग्यल्पायुरधन्यो वा, गर्भो भवति नैव वा ॥शा" इति । शुद्धे-निर्दोषे गर्भाशयादिषट्रे इत्यर्थः । तथा च "ऋतस्त द्वादश निशाः, पूर्वास्ति-IN सोऽत्र निन्दिताः। एकादशी च युग्मासु, स्यात्पुत्रोऽन्यासु कन्यका ॥४॥ पद्मं सङ्कोचमायाति, दिनेऽतोते तथा यथा । ऋतावतीते योनिः सा, शुक्रं नैव प्रतीच्छति ॥५॥ मासेनोपचितं रक्त, धमनीभ्यामृती पुनः । ईषत् कृष्णं विगन्धं 8 च, वायुर्योनिमुखात्तुदेत् ॥ ६॥" तथा चाविध्वस्ता योनिरविध्वस्तं बीजं १ अविध्वस्ता योनिर्विध्वस्त बीजं २ विध्वस्तात योनिरविध्वस्त बीजं ३ विध्वस्ता योनिर्विध्वस्तं बीजं ४चतुर्यु भङ्गेषु आद्ये भङ्ग एवोत्पत्तेरवकाशः, न शेषेषु त्रिष्विति, तत्र, पञ्चपश्चाशिका नारी विध्वस्तयोनिः, सप्तसप्ततिकः पुमानिति, "द्वादश मुहूर्तान यावद् बीजं न विध्वस्तं स्यात्तत ऊर्च | SANGACASSAGAMACHA दीप अनुक्रम [१२-१३]] JHERINKhanal ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [-/गाथा ||१२-१३|| ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं. वै.प्र. पितृपुत्र प्रत संख्या १५ ५ ॥ सूत्रांक ॥१२-१३|| विध्वस्त” मिति द्वितीयाङ्गवृत्ताविति । तथा पुमान्-पुरुषः प्रायः पञ्चसप्ततिवर्षेभ्यः परत ऊर्ध्वमबीजो भवेत्, गर्भाधानयोग्यबीजविवर्जित इत्यर्थः ॥ १३॥ कियत्प्रमाणायुषामेतन्मानं द्रष्टव्यमित्याह वाससयाउयमेयं परेण जा होइ पुचकोडीओ । तस्सद्धे अमिलाया सवाउयवीसभागो य ॥ १४ ॥ | "वास" वर्षशतायुषामिदंयुमीनानामेतद् गर्भधारणादिकालमानमुक्तं, परेण तर्हि का वार्तेत्याह-'परे०' वर्षशतात् परतो वर्षद्वयं त्रयं चतुष्टयं चेत्यादि यावन्महाविदेहमनुष्याणां या पूर्वकोटिः सर्वायुषि स्यात् तस्य-सर्वायुषोऽध तदर्थे यावदम्लाना-गर्भधारणयोग्या स्त्रीणां योनिः द्रष्टव्या, ततोऽपि परतः सकृत्प्रसवधर्माणोऽम्लानयोनयोऽवस्थितयौवनत्वात्, पुंसां पुनः सर्वस्यापि पूर्वकोटिपर्यन्तस्यायुषोऽन्त्यो विंशतिमो भागोऽवीज इति ॥१४॥ अथ कियन्तः पुनर्जीवाः एकस्याः स्त्रियाः गर्भे एकहेलयैवोत्पद्यन्ते, कियतां च पितॄणां एकः पुत्रो भवति इत्याहरतुकडा उ इत्थी लक्खपुहुत्तं च वारसमुहुत्ता। पिअसंख सयपुहत्तं बारसवासा उ गम्भस्स ॥१५॥ "रत्तु०” अत्रान्यत्राप्यार्षत्वाद् विभक्तीनां वैचित्र्यं ज्ञातव्यमिति, मासान्ते त्रीणि दिनानि यावत् स्त्रीणां यन्निरन्तरमज श्रवति तदत्र रक्तमुच्येत, तेन रक्तेन-रुधिरेण उत्कटायाः पुरुषवीर्ययुक्तयोन्याश्च एकस्याः स्त्रियाः गर्भ जघन्यतः एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कृष्टतस्तु 'लक्खपुहुत्तंति लक्षपृथक्त्वं नवलक्षगर्भजजीवा उत्पद्यन्ते इत्यर्थः, निष्पत्तिं च प्रायः |एको द्वौ वाऽऽगच्छतः, शेषास्त्वल्पजीवितत्वात्तत्रैव नियन्ते, एको द्वौ वेत्युक्तं व्यवहारापेक्षया निश्चयापेक्षया तु ततोऽधिक न्यूनं वा भवतीति द्रष्टव्यमिति, चशब्दात् स्त्रियाः संसक्तायां योनी द्वीन्द्रिया जीवा जघन्यतः एको द्वौ वा त्रयो वोत्कृ दीप अनुक्रम [१२-१३] ॥५ ॥ स्त्री-गर्भ मध्ये उत्पद्यमान जीवानाम् संख्या कथयते ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) "तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं -/गाथा ||१५|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: 4 प्रत सूत्रांक ||१५|| %95 टतो नवलक्षप्रमाणा उत्पद्यन्ते, तप्तायःशलाकान्यायेन पुरुषसंयोगे तेषां जीवानां विनाशो भवति, स्त्रीपुरुषमैथुने मिथ्याकदृष्टयः अन्तर्मुहत्तायुषः अपर्याप्तावस्थाकालकारिणः नवप्राणधारकाः नारकदेवयुगलवर्जितशेषजीवस्थानगमनशीला:। नारकदेवयुगलाग्निवायुवर्जितशेषजीवस्थानागमनस्वभावाः मुहूर्त्तपृथक्त्वकायस्थितिकाः असङ्ख्येयाः संमूच्छिममनुष्या | उत्पद्यन्ते चेति, तथा 'बारसमुहुत्त'त्ति पुरुषवीर्यस्य कालमानं द्वादश मुहूर्तानि,एतावत्कालमेव शुक्रशोणिते अविध्वस्तयोनिके भवत इति, ' पित्ति पितॄणां पितृसंख्या तस्याः शतपृथक्त्वं भवति, अयमाशयः-उत्कृष्टतो नवानां पितृशताना-2 | मेकः पुत्रो जायते, एतदुक्तं भवति-कस्याश्चिद् दृढसंहननायाः कामातुरायाश्च योषितो यदा द्वादशमुहूर्तमध्ये उत्कृष्टतो नवभिः पुरुषशतैः सह सङ्गमो भवति तदा तद्बीजे यः पुत्रो भवति स नवानां पितृशतानां पुत्रो भवतीति, उपल|क्षणत्वात्तिरश्चां च बीजं द्वादशमुहूर्तान् यावद्योनिभूतं भवति, ततश्च गवादीनां शतपृथक्त्वस्यापि बीजं गवादियोनिप्रविष्टं बीजमेव, तत्र च बीज़समुदाये एको जीव उत्पद्यमानस्तेषां सर्वेषां बीजस्वामिनामुत्कर्षतः पुत्रो भवति, मत्स्यादीनामेक-| ★ संयोगेऽपि शतसहस्रपृथक्त्वं गर्भ उत्पद्यते निष्पद्यते चेत्येकस्मिन्नपि गर्ने लक्षपृथक्त्वं पुत्राणां स्यादिति । ननु देवानां शुक्रपुद्गलाः किं सन्ति उत न?, उच्यते,सन्त्येव, परं ते वैक्रियशरीरान्तर्गता इति न गर्भाधानहेतव इति,यदुक्तं श्रीप्रज्ञा| पनायां-"अस्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं सुफपुग्गला?" हंता अस्थि, ते णं भंते ! तेसिं अच्छराणं कीसत्ताए भुज्जो २ परिण मंति ?, गो०! सोइंदियत्ताए चक्खिदियत्ताए पाणिंदियत्ताए रसणिंदियत्ताए फासिंदियत्ताए इत्ताए कंतताए मणुन्नत्ताए बामणामत्ताए सुभगत्ताए सोहग्गरूवजोषणगुणलावन्नत्ताए एयासिं भुजो २ परिणमंति जाव तत्थ णं जे ते मणपरियारगा दीप अनुक्रम [१५] 6454555555555 -9649588 3 % ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) "तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [-/गाथा ||१५|| ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत ॥६ ॥ १६ सूत्रांक ||१५|| दीप तं. वै.प्र.15देवा तेसिं इच्छामणे समुप्पज्जइ इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियारणं करेत्तए, तो गं तेहिं देवेहि मणसीकए समाणे |3|| | गर्भेपुत्रा खिप्पामेव ताओ अच्छराओ तत्थगयाओ चेव समाणीओ अणुत्तराई उच्चावयाई मणाई पहारेमाणीओरचिट्ठति,तओ गंदादिस्थान ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं मणपरियारणं करेंति सेसं निरवसेसं तं चेव जाव भुजो २ परिणमंति'त्ति ॥ अथ कियन्त | | SIlकालं भवस्थित्या जीवो गर्भ वसतीत्याह-"बारस." गर्भस्य स्थितिःद्वादशवर्षप्रमाणा भवति, एतदुक्तं भवति-कोऽपि ट्र पापकारी वातपित्तादिदूषिते देवादिस्तम्भिते वा गर्भे द्वादश संवत्सराणि निरंतरं तिष्ठति उत्कृष्टतः, जघन्यतस्त्वन्तर्मुह तमेव तिष्ठति, भवस्थित्या गर्भाऽधिकारात् 'उदगगन्भे णं भंते! कालओ केवचिरं होइ ?, गो ! जहण्णेणं एक समय में 3 उक्कोसेणं छ मासा" उदकगर्भ:-कालान्तरे वृष्टिहेतुपुद्गलपरिणामः तस्य समयानन्तरं षण्मासानन्तरं च वर्षणात्, अयं च ४ मार्गशीपादिषु वैशाखान्तेषु सन्ध्यारागादिलिङ्गो भवतीति, तुशब्दात् मनुष्यतिरश्चा कायस्थितिः चतुर्विशतिवर्षप्रमाणा #अवगन्तव्या, यथा कोऽपि स्वीकार्य द्वादश वर्षाणि जीवित्वा तदन्ते च मृत्वा तथाविधकर्मवशात् तत्रैव गर्भस्थिते कले-1 वरे समुत्पद्य पुनः द्वादश वर्षाणि जीवतीत्येवं चतुर्विंशतिवर्षाण्युत्कर्षतो गर्भे जन्तुरवतिष्ठते, केचिदाहुः-द्वादश वर्षाणि हस्थित्वा पुनः तत्रैवान्यजीवस्तच्छरीरे उत्पद्यते तावस्थितिरिति ॥१५॥ अथ कुक्षौ पुरुषादयः कुत्र परिवसन्तीत्याह दाहिणकुच्छी पुरिसस्स होइ वामा उ इत्थीयाए य । उभयंतरं नपुंसे तिरिए अद्वैव वरिसाई ॥१६॥ 'दाहिणे'ति पुरुषस्य दक्षिणकुक्षिः स्यात्, दक्षिणकुक्षौ वसन् जीवः पुरुषः स्यादिति भावः १, स्त्रिया वामकुक्षिः स्यात्,15|| टू वामकुक्षी वसन् जीवः खी भवतीति भावः २, नपुंसकः उभयान्तरं स्यात्, कुक्षिमध्यभागे बसन् जीवो नपुंसको जायते ASHISAIGASSASSASSA अनुक्रम [१५] ॥६ ॥ स्त्री-कुक्षी मध्ये कुत्र पुत्र/पुत्री वसति? ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ----------- मूलं [१]/गाथा ||१७|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत ||१७|| SCALCCCCCCCASIA Pइति भावः ३, खीपुरुषनपुंसकलक्षणानि यथा-"योनिर्मूदुत्वमस्थैर्य, मुग्धता चलता स्तनौ । पुंस्कामितेति लिङ्गानि, सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥१॥ मेहनं खरता दाय, शौण्डीर्य श्मश्नु धृष्टता । स्त्रीकामितेति लिङ्गानि, सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥२॥ स्तनादिश्मश्रुकेशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधाः प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् ॥ ३ ॥” इति ॥ अथ तिरश्चां गर्भ में भवस्थितिमाह-'तिरिए'त्ति तिरश्चां गर्भस्थितिरुत्कृष्टतः अष्टौ वर्षाणि, ततः परं विपत्तिः प्रसवो वेति, जघन्यतः अन्त-17 मुहर्तमाना भवस्थितिरिति ॥ १६ ॥ अथ जीवो गर्भे उत्पद्यमानः किमाहारमाहारयति ततश्च किंस्वरूपो भवतीत्याह-६ इमो खलु जीवो अम्मापिउसंयोगे माउउयं पिउसुकं तं तदुभयसंसह कलुसं किविसं तप्पढमयाए आहार आहारिता गम्भत्ताए वकमद (सूत्रं १)'सत्ताहं कललं होई, सत्ताहं होइ अब्बुयं । अब्बुया जायए पेसी, पेसीओ य घणं भवे ॥१॥ (१७) तो पढमे मासे करिसूर्ण पलं जायइ १ बीए मासे पेसी संजायए घणा २४ ताए मासे माउए दोहलं जणइ ३ चउत्थे मासे माउए अंगाई पीणेह ४ पंचमे मासे पंच पिंडियाओ पाणिं पायं सिरं चेव निव्वत्तेइ ५छडे मासे पित्तसोणियं उवचिणेइ ६ सत्तमे मासे सत्त सिरासयाई ७०० पंच पेसीसयाई ५०० नवधमणीओ नवनउई चरोमकूवसयसहस्साई निवत्तेइ ९९००००० विणा केसमंसुणा सह केसम-| सुणा अबुट्टाओ रोमकूवकोडीओ निवत्तेइ ३५००००००, अट्ठमे मासे वित्तीकप्पो हवइ ८(सूत्रं २) 'इमो खलु'त्ति यावत् 'वक्कमइत्ति मुत्कलं, अयं जीवः खलु इति निश्चितं मातापित्रोः संयोगे 'माउउय'ति मातुरोजो-जनन्या आर्तवं शोणितमित्यर्थः 'पिउसुकंति' पितुः शुक्रं, इह यदिति शेषः 'त' ति तदाहारं तस्य-गर्भव्युत्क AAAAAA दीप अनुक्रम [१८] तं.वै.प्र.२ Misbaryana गर्भ-मध्ये जीवानाम् आहारस्य प्रमाणं कथयते ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [२]/गाथा ||१७...|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक” मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: वे.प्र. %A4% ||१७..|| SHARE मणस्य प्रथमता तत्प्रथमता तया 'आहारित्त'त्ति तैजसकार्मणशरीराभ्यां भुक्त्वा गर्भतया-गर्भत्वेन 'वक्कमइ'त्ति व्युत्ना- गर्भे मासा|मति उत्पद्यत इत्यर्थः, किंभूतमाहारं -तदुभयसंसिर्ल्ड'ति तयोः-शुक्रशोणितयोरुभयं तच्च तत् संसृष्टं च-मिलितं| शटकावस्था च तदुभयसंसृष्टं, कलुष-मलिनं 'किब्यिसंति कर्बुरमिति, ततः केन क्रमेण शरीरं निष्पाद्यते इत्याह-'सत्ताह'-४ सू. २ मित्यादि० यावद् भवेत्तिपा, सप्ताहोरात्राणि यावत् शुकशोणितसमुदायमात्रं कललं भवति १ ततः सप्ताहोरात्राणि | अर्बुदो भवति, ते एव शुकशोणिते किश्चित् स्त्यानीभूतत्वं प्रतिपद्येते इति २ ततोऽपि चार्बुदात् पेसी-मांसखण्डरूपा भवति ३ ततश्चानन्तरं सा घन-समचतुरस्रं मांसखण्डं भवति ॥ १७ ॥'तो पढमे' ततः-इह च तच्छुकशोणितमुत्तरोत्तरपरिणाममासादयत् प्रथमे मासे कर्पोन पलं जायते, पञ्चगुञ्जाभिर्मापः षोडशभिर्माषैः कर्षः चतुर्भिः कः पलमिति वचनात् त्रयः कर्षाः स्युरिति भावः १ द्वितीये तु मासे मांसपेसी घना-घनस्वरूपा भवति, समचतुरस्र मांसखण्ड जायत इत्यर्थः २ तृतीये मासे तु मातुर्दोहदं जनयतीत्यर्थः ३ चतुर्थे मासे मातुरङ्गानि प्रीणयति-पुष्टानि करोतीत्यर्थः । ४ पञ्चमे मासे पाणिद्वयपादद्वयमस्तकरूपाः पञ्च पिण्डिका:-पञ्चाङ्करान् निर्वतयति निष्पादयतीत्यर्थः ५ षष्ठे मासे पीयते | जलमनेनेति पित्तं पित्तं च शोणितं च पित्तशोणितं तत् उपचिनोति-पुष्ट करोतीत्यर्थः ६ सप्तमे मासे सप्त शिराश-IA लातानि ७०० पञ्च पेशीशतानि ५०० नव धमन्यो-नव नायः ९ नवनवति रोमकूपशतसहस्राणि निर्वर्त्तयति, रोम्णां-तनु-R रहाणां कृपा इव कूपा रोमकूपा रोमरन्ध्राणीत्यर्थः तेषां नवनवतिलक्षा इति केशश्मश्रुभिर्विना, तत्र केशाः-शिरोजाः श्मश्रृणि-कूर्चकेशाः९९०००००, केशश्मश्रुभिः सह 'अछुट्टाउ'त्ति सार्धाः तिम्रो रोमकूपकोटीः निर्वर्तयतीति ३५०००००० दीप अनुक्रम [१९]] A5%87-%ex ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) "तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ----------- मूलं [३]/गाथा ||१७|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: पत ||१७..|| ४ अष्टमे मासे तु शरीरमाश्रित्य 'वित्तीकप्पे' त्ति निष्पन्नप्रायो जीवो भवतीति ८॥ अत्राधिकारे इन्द्रभूतिः जनोपकाराय त्रैशलेयं सर्वशं सर्वभूतदयैकरसं प्रश्नयति यथा जीवस्स णं भंते ! गभगयस्स समाणस्स अस्थि उच्चारेइ वा पासवणेइ वा खेलेइ वा सिंघाणेइ वा वंतेइ वा पित्तेइ वा मुक्केइ वा सोणिएइ वा?, नो इणढे समढे, से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ जीवस्स णं गन्भगयस्स समाणस्स नथि उच्चारेइ वा जाव सोणिएइ वा?, गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे जं आहारं आहारेइ तं चिणाइ सोइंदियत्ताए १ चक्खुरिंदियत्ताए २ घाणिदियत्ताए ३ जिभिदियत्ताए ४ फासिंदियत्ताए ५ अहिअहिमिंजकेसमंसुरोमनहत्ताए, से एएणं अटेणं गोयमा ! एवं बुचइ जीवस्स णं गन्भगयस्स: समाणस्स नस्थि उच्चारेइ वा जाव सोणिएइ वा (सूत्रं ३) "जीवस्स णं भंते । इत्यादि, हे भदन्त ! जीवस्य-जन्तोः 'ण' वाक्यालङ्कारे गर्भगतस्य-गर्भवं प्राप्तस्य 'समाणस्स'त्ति ट्र सतः अस्ति-विद्यते वर्त्तत इत्यर्थः उच्चारो-विष्ठा 'ई' इति उपप्रदर्शने अलङ्कारे पूरणे वा वेति विकल्पार्थे 'प्रश्रवणं' मूत्रं 'खेलो' निष्ठीवनं 'सिंघाणेति नासिकाश्लेष्म 'वंत' वमनं 'पित्त' मायुः शुक्र-वीर्य शोणितं-रुधिरं 'सुके इ वा सोणिए इ वा' इति पदद्वयं भगवत्यादिसूत्रे न दृश्यते आगमज्ञैर्विचार्यमिति, 'नो इणढे समडे' नो-नैव 'इणडे'त्ति अयमनन्तरोक्तत्वेन प्रत्यक्षोऽर्थों-भावः समर्थो-बलवान्, वक्ष्यमाणदूषणमुद्गरप्रहारजर्जरितत्वात्, गौतमस्वामी प्राह'से केणटेणं'ति अथ केन कारणेन इत्यर्थः हे भदन्त ! एवं प्रोच्यते-जीवस्य गर्भगतस्य सतो नास्ति उच्चारो याव दीप अनुक्रम [२०] CR गर्भगत जीव-संबंधे विविध प्रश्ना: ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [3]/गाथा ||१७...|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व], प्रकीर्णकसूत्र-[५] "तंदलवैचारिक" मलं एवं विजयविमल गणि कता अवचर्णि: ||१७..|| नाच्छोणितमिति ?, भगवान् प्राह-हे गौतम! जीवः णं वाक्यालङ्कारे गर्भगतः सन् यदाहारमाहारयति तदाहारं श्रोत्रेन्द्रि-18 गर्भे उच्चा यतया १ चक्षुरिन्द्रियतया २ प्राणेन्द्रियतया ३ जिह्वेन्द्रियतया ४ स्पर्शनेन्द्रियतया ५ चिनोति पुष्टिभावं नयतीत्यर्थः राद्यभाव: ॥८॥ इन्द्रियाणि द्वैधानि-पुद्गलरूपाणि द्रव्येन्द्रियाणि १ लब्ध्युपयोगरूपाणि तु भावेन्द्रियाणि २, पुनर्निच्युपकरणलक्षा४ाणभेदात् द्वैधानि द्रव्येन्द्रियाणि, तत्र निवृत्तिचिधा-अन्तो १ बहिश्च २, तत्र अन्तः-श्रोत्रेन्द्रियस्य अन्तः-मध्ये नेत्र-18 दगोचरातीता केवलिदृष्टा कदम्बकुसुमाकारा देहावयवरूपा काचिन्निवृत्तिरस्ति या शब्दग्रहणोपकारे वर्तते १ चक्षुरिन्द्रि यस्यान्तः-मध्ये केवलिगम्या धान्यमसूराकारां देहावयवरूपा काचिन्निवृत्तिरस्ति या रूपग्रहणोपकारे वर्तते २ प्राणेन्द्रियस्य अन्तः-मध्ये केवलिदृश्या अतिमुक्तककुसुमाकारा देहावयवरूपा काचिन्निवृत्तिरस्ति या गन्धग्रहणोपकारे वर्त्तते ३ रसनेन्द्रियस्य अन्तः-मध्ये जिनगम्या क्षुरप्राकारा देहावयवरूपा काचिन्निवृत्तिरस्ति या रसग्रहणोपकारे वर्तते ४ स्पर्शनेन्द्रियस्य | अन्तः-मध्ये केवलिदृष्टा देहाकारा काचिन्निवृत्तिरस्ति या स्पर्शग्रहणोपकारे वर्त्तते ५-१ बहिनिवृत्तिस्तु या सर्वेषामपि श्रोत्रादूदीनां कर्णशष्कुलिकादिका दृश्यते सैव मन्तव्या २, उपकरणेन्द्रियं तु तेषामेव कदम्बगोलकाकारादीनां खङ्गस्य छेदनश-18 तिरिव ज्वलनस्य दहनशक्तिरिव वा या स्वकीय रविषयग्रहणशक्तिस्तत्स्वरूपं द्रष्टव्यम् २, तथा ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमाज्जीवस्य शब्दादिग्रहणशक्तिरूपं लब्धिभावेन्द्रियं १ यनु शब्दादीनामेव ग्रहणपरिणामलक्षणं तदुपयोगभावेन्द्रियमिति २, तत्र यानि द्रव्येन्द्रियाणि तानि जीवानामिन्द्रियपर्याप्ती सत्यां भवन्ति, यानि च भावेन्द्रियाणि | तानि संसारिणां सर्वावस्थाभावीनीति, तथा नयनस्य विषयोऽप्रकाशकवस्तु पर्वताद्याश्रित्यात्माङ्गलेन सातिरेक योजन दीप अनुक्रम [२०] SCRSSCRICKE ॥८ ॥ ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [3] + ॥१७..|| दीप अनुक्रम [२०] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं+अवचूर्णि:) मूलं [ ३ ] / गाथा || १७,,,|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: लक्षं स्यात्, प्रकाशके स्वादित्यचन्द्रादावधिकमपि विषयपरिमाणं स्यात्, नात्र विषये नियमः कोऽपि निर्दिष्टोऽस्ति सिद्धान्ते, यतः पुष्करवरद्वीपार्चे मानुषोत्तरपर्वतसमीपे कर्कसङ्क्रान्ती मनुष्याः प्रमाणाङ्गुलभवैः सातिरेकैरेकविंशतियो| जनलक्षैः व्यवस्थितं रविं पश्यन्तः प्रोच्यन्ते शास्त्रान्तरे इति, जघन्यतस्त्वत्यासन्नरजोमलादेरग्रहणादङ्गुलसङ्ख्येयभागात् परतः स्थितं वस्तु चक्षुषो विषयः १ श्रोत्रस्य द्वादश योजनान्युत्कृष्टविषयो मेघगर्जितादौ २ प्राणरसनस्पर्शनानां तूत्कृष्टं नव योजनानि ३-४-५ जघन्यतस्तु चतुर्णामप्यङ्गुलासवेयभागादागतं गन्धादिकं विषयः, मनसस्तु केवलज्ञानस्येव समस्तमूर्त्ता मूर्त्तवस्तुविषयत्वेन क्षेत्रतो नास्ति विषयप्रमाणं मनसोऽप्राप्यकारित्वादिति, विषयप्रमाणं चात्र इन्द्रियविचारे आत्माङ्गुलेनैव ज्ञेयमिति, तथा - 'अट्ठिअडिमिंज ०' अस्थ्यस्थिमिज केशश्मश्रुरोमनखतया चिनोतीति, तत्रास्थि-हडुं अस्थिमिंजा - अस्थिमध्यावयवः केशाः- शिरोजाः श्मश्रूणि - कूर्चकेशाः रोमाणि कक्षादिकेशा इति, 'से' अथ अनेनाथेन-अनेन कारणेन हे गौतम! हे इन्द्रभूते ! एवं पूर्वोक्तं प्रोच्यते-प्रकर्षेण प्रतिपाद्यते जीवस्य गर्भगतस्य सतो नास्ति उच्चारो यावच्छोणितमिति ॥ पुनर्गौतमो ज्ञातनन्दनं प्रश्नयति जीवे णं भंते! गभगए समाणे पट्ट मुहेणं कावलियं आहारं आहारितए ?, गोयमा ! नो इणट्टे समट्ठे, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ ? - गोयमा ! जीवे णं गन्भगए समाणे नो पहू मुहेणं कावलियं आहारं आहारितए ?, गोयमा ! जीवे णं गन्भगए समाणे सबओ आहारेइ सबओ परिणामेह सबओ ऊससेह सबओ नीससेह अभिकखणं आहारेह अभिक्खणं परिणामेह अभिक्खणं उससे अभि० नीससेह Fur Prate & Pomonal Use Only ~20~ jainelibrary.org Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) "तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ----- ----- मूलं [४]/गाथा ||१७...|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक” मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्र. हारपरि ||१७..|| आहच आहारेइ आहच परिणामेइ आहच्च ऊससेइ आ० नीससइ, माउजीवरसहरणी पुत्तजीवरसहरणी | गर्भ आमाउजीवपडिबद्धा पुत्तजीवं फुडा तम्हा आहारेइ तम्हा परिणामेइ अवरावि णं पुत्तजीवपडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा चिणाइ, से एएणं अटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जीवे णं गम्भगए समाणे नो पहू मुहेणं णामादि कावलियं आहारं आहरित्तए । (सूत्रं ४) | 'जीवेणं' हे भदन्त ! हे भवान्त ! हे दयैकरसकृतवाग्वृष्ट्याद्रीकृतभव्यहृदयवसुंधर ! जीवो गर्भगतः सन् प्रभुः-समर्थः मुखेन-वक्त्रेण कवलैर्भवं कावलिकं आहार-अशनादिकं 'आहारित्तए'त्ति आहर्तुं अदनं कर्तुमिति ?, आह जगदीश्वर:हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः, श्रीगौतमः प्राह-'से' अथ केनार्थेन एवं प्रोच्यते ?, विश्वकवत्सलो वीरः प्राह-हे गौतम! जीवो गर्भगतः सन् 'सबउत्ति सर्वात्मना-सर्वप्रकारेण आहारयति, आहारतया गृह्णातीत्यर्थः, सर्वात्मना परिणामयति, शरीरादितया गृह्णातीत्यर्थः, सर्वतः-सर्वात्मना 'उच्छसिति' सर्वप्रकारेण अर्ध्वश्वासं गृह्णातीत्यर्थः, सर्वतः-सर्वात्मना निःश्वसिति-श्वासमोक्षणं करोतीत्यर्थः, अभीक्ष्णं-पुनः पुनः आहारयति अभीक्ष्णं परिणामयति अभीक्ष्णमुच्छ सिति अभीक्ष्णं निःश्वसिति, 'आह'त्ति कदाचिदाहारयति कदाचिन्नाहारयति तथास्वभावत्वात् कदाचित् परि-1४ Wणामयति कदाचिन्न परिणामयति कदाचिदुच्छ्रसिति कदाचिनोच्छसिति कदाचिन्निन्वसिति कदाचिन्न निःश्वसिति अप-1&। कार्याधावस्थायां । अथ कथं सर्वतः आहारयतीत्याह-'माउजीवर रसः हियते-आदीयते यया सा रसहरणी नाभिनाल- II मित्यर्थः मातृजीवस्य रसहरणी मातृजीवरसहरणी, किमित्याह-पुत्रजीवरसहरणी, पुत्रस्य रसोपादाने कारणत्वात्, दीप अनुक्रम [२१] ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) "तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --- ----- मूलं [9]/गाथा ||१७...|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत ||१७..|| 5454645%%%%A5% कथमेवमित्याह-मातृजीयप्रतिबद्धा सती सा यतः पुत्रजीवं 'फुडा' इति पुत्रजीवं स्पृष्टवती, इह प्रतिबद्धता-गाढसचम्बन्धस्तदंशत्वात् स्पृष्टता च-सम्बन्धमात्र अतदंशत्वात् , अथवा मातृजीवरसहरणी १ पुत्रजीवरसहरणी २ चेति द्वे नाड्यौ स्तः, तयोश्चाद्या मातृजीवप्रतिबद्धा पुत्रजीवं स्पृष्टेति, 'तम्हा' इति यस्मादेवं तस्मान्मातृजीवप्रतिबद्धया रसहरण्या पुत्रजीवस्पर्शनात् आहारयति तस्मात् परिणमयति, 'अवरावि य'त्ति पुत्रजीवरसहरण्यपि च पुत्रजीवप्रतिबद्धा सती मातृजीवं स्पृष्टवती, यस्मादेवं तस्माञ्चिनोति शरीरं, उक्तश्च तन्त्रान्तरे-“पुत्रस्य नाभौ मातुश्च, हृदि नाडी निबध्यते । ययाऽसौ पुष्टिमाप्नोति, केदार इव कुल्यया ॥१॥” इति, 'से' अथ अनेनार्थेन हे गौतम ! एवं प्रोच्यते-जीवो & गर्भगतः सन् न प्रभुः-न समर्थः मुखेन कावलिकं आहारमाहर्तुमिति ॥ पुनः गौतमो वीर प्रश्नयति जीवे णं गम्भगए समाणे किमाहारं आहारेइ ?, गोयमा जं से माया नाणाविहाओ नव रसविगइओ तित्तकडुयकसायंविलमहुराई दवाइं आहारेइ तओ एगदेसेणं ओयमाहारेइ, तस्स फलबिंटसरिसा उप्पल|नालोवमा भवइ नाभिरसहरणी जणणीए सयाई नाभीए पडियद्धा नाभीए तीए गम्भो ओयं आइयह अण्हयंतीए ओयाए तीए गम्भो विवडइ जाव जाउत्ति (सू०५) ४. जीवो गर्भगतः सन् किमाहारमाहारयति?, गौतम! 'जं से'त्ति या से-तस्य गर्भसत्त्वस्य माता गर्भधारिणी 'नाणा नानाविधाः-विविधप्रकाराः रसरूपा रसप्रधाना वा विक्रतयो-दुग्धाद्या रसविकारास्ताः आहारयति, तथा यानि तिक्तकटुककषायाम्लमधुराणि द्रव्याणि चाहारयति, तत्र तिक्तानि-निम्बचिर्भटादीनि कटुकानि-आर्द्रकतीमनादीनि दीप अनुक्रम 5404545455450%A5%45 [२२] ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [५]/गाथा ||१७|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक” मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ॥१०॥ ||१७..|| तं. वै.प्र. कषायाणि-बल्लकादीनि आम्लानि-तक्रारनालादीनि मधुराणि-क्षीरदध्यादीनि ५, 'तओ एगदेसेणं'ति तासां-रस-18| गर्भे आ विकृत्यादीनामेकदेशस्तेन सह 'ओय'ति ओजसं-शुक्रशोणितसमुदायरूपं आहारयति, यद्वा त्वगेकदेशेन मातुराहारमिश्र | हारपोषओजः-शोणितं आहारयति । कथमित्याह 'तस्स फल' इत्यादि यावत् 'जाउ'त्ति, तस्य-गर्भजीवस्य 'जणणीए' त्तिणादिसू.५ भाजनन्या-मातुः नाभिरसहरणी-नाभिनालमस्ति, किम्भूता ?-फलवृन्तसदृशी-उत्पलनालोपमा च पुनः किंभूता?-'पडिवडा मातापित्रं गाढलग्ना, क?-नाभौ, कथं ?-सदा 'ई' इति वाक्यालङ्कारे 'तीए'त्ति तया 'नाभीए'त्ति जननीनाभिप्रतिबद्धया लगानि सू.६ रसहरण्या 'गम्भो ओयंति गर्भ:-उदरस्थः जन्तुः ओजः-मातुराहारमिदं शुक्रशोणितरूपं 'आइय'त्ति आददाति 18|गृहातीति, 'अण्हयंतीए ओयाए तीए'त्ति तस्यां 'अशश भोजने' अश्नत्यां यद्वा भुज पालनाभ्यवहारयोः' भुंजानायां-18 ट्राभोजनं कुर्वत्यां वा ओजसा-मातुराहारमिश्रेण शुक्रशोणितरूपेण गर्भो विवर्धते-वृद्धिं याति यावजात इति । 'भुजोर भुंजजिमजेमकम्मासमाणचमढचट्टा' इति (श्री सिद्ध० अ०८ पा० ४ सू० ११०) प्राकृतसूत्रेण भुजधातोः अण्ह इत्यादेश इति । पुनगौतमो वीरदेवं प्रश्नयतिदा कइणं भंते! माउअंगा पण्णत्ता, गोयमा! तओ माउअंगा पण्णत्ता, तंजहा-मंसे १ सोणिए २ मत्थुलुंगे १३, कइ णं भंते ! पिउअंगा पण्णत्ता?, गोयमा ! तओ पिउअंगा पन्नत्ता, तंजहा-अट्टि १ अट्टिर्मिजा 11२ केसमंसुरोमनहा ३ (सूत्रं ६) ॥१०॥ 'करणं भंते !' हे भदन्त ! णं इति वाक्यालङ्कारे कति मातुरङ्गानि आर्चवबहुलानीत्यर्थः प्रज्ञप्तानि !, जगदीश्वरो दीप अनुक्रम [२२] AKARSAKAL ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------- मूलं [६]/गाथा ||१७...|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: +C पत ||१७..|| जगत्राता जगद्भावविज्ञाता वीर आह-हे गणधर ! गौतम ! त्रीणि मातुरङ्गानि प्रज्ञप्तानि मया अन्यैश्च जगदीश्वरैः, तद्यथा-मांस-पललं १ शोणितं-रुधिरं २ मत्थुलुंगेति-मस्तकभेजकं, अन्ये त्वाः-मेदःफिफ्फिसादिः मस्तुलुंगमिति ३॥ ताकद णं भंते !' कति हे भदन्त! पैतृकाङ्गानि शुक्रविकारबहुलानीत्यर्थेः प्रज्ञप्तानि ?, हे गौतम! त्रीणि पैतृकाङ्गानि 8 ताप्रज्ञप्तानि, तद्यथा-अस्थि-ह९१ अस्थिमिञ्जा-अस्थिमध्यावयवः २ केशश्मश्रुरोमनखाः३, तत्र केशाः-शिरोजाः श्मश्रूणि कूर्चकेशाः रोमाणि-कक्षादिकेशाः नखा:-करजा इति, केशादिकं बहुसमानरूपत्वादेकमेव, उभयव्यतिरिक्तानि तु शुक्रशोणितयोः समविकाररूपत्वात् मातापित्रोः साधारणानीति ॥ गर्भस्थोऽपि किं कश्चिद् जीवो नरकं देवलोकं वा गच्छ-| टीतीति गौतमो वीरं प्रश्नयतिका जीवे णं भंते ! गम्भगए समाणे नेरइएसु उववजिजा?, गोयमा! अत्धेगइए उववजिजा अत्धेगइए णो |उववजिज्जा, से केण्डेणं भंते ! एवं बुच्चइ-जीवे णं गन्भगए समाणे नेरइएसु अत्धेगहए उववजिज्जा अत्थेगइए |नो उववजिजा?, गोयमा! जे णं जीवे गब्भगए समाणे सन्नी पंचिंदिए सचाहिं पजत्तीहिं पजत्तए वीरियलकाहीए विभंगनाणलद्धीए विउवियलद्वीए विउवियलद्धीपत्ते पराणीयं आगयं सुचा निसम्म पएसे निच्छुहइ निच्छुहित्ता विउवियसमुग्घाएणं समोहणइ समोहणित्ता चाउरंगिणि सिन्नं सन्नाहेइ सन्नाहित्ता पराणीएणं दसद्धिं संगाम संगामेइ, से णं जीवे अस्थकामए १ रजकामए २ भोगकामए ३ कामकामए ४ अत्धकंखिए १ रज्जकंखिए २ भोगकंखिए ३ कामकंखिए ४ अत्थपिवासिए १ भोग० २ रज.३ काम०४, तचित्ते १ दीप अनुक्रम [२३] | गर्भगत जीवस्य नरकस्थाने उत्पत्ति: ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------------------- मूलं [७]/गाथा ||१७...|| ----------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ACANCY स ||१७..|| तम्मणे २ तल्लेसे ३ तदझवसिए ४ तत्तिवझवसाणे ५ तयहोवउत्ते ६ तदप्पियकरणे ७ तब्भावणाभा गर्भस्थस्यैलाविए ८ एयंसिं च णं (चे) अंतरंसि कालं करिजा नेरइएसु उववजिजा, से एएणं अटेणं एवं बुच्चइवनरकगजीवे णं गम्भगए समाणे नेरइएसु अत्धेगइए उववजेजा अत्थेगइए नो उववज्जेजा गोयमा! (सूत्रं ७) | तिः सू.७ ४ 'जीवे णं गम्भग' हे भदन्त ! जीवो गर्भगतः सन् मृत्वेति शेषः नरकेषु उत्पद्यते?, हे गौतम! अस्ति-विद्यते 'एग-15 &ाइए'त्ति एककः कश्चित् सगर्वराजादिगर्भरूपः उत्पद्यते अस्त्ययं पक्षः यदुत एककः कश्चिन्नोत्पद्यते, 'से' अथ केनार्थेन, PI भदन्त ! एवं प्रोच्यते-जीवो गर्भगतः सन् नरकेषु अस्त्येककः उत्पद्यते अस्त्येकको नोत्पद्यते ?, हे गौतम ! 'जे णं'ति यो जीवः 'गं' इति वाक्यालङ्कारे गर्भगतः सन् आहारादिका संज्ञा विद्यते यस्य स संज्ञी पञ्च इन्द्रियाणि-श्रवण १ प्राण२रसन ३ चक्षुः ४ स्पर्शन ५ लक्षणानि विद्यन्ते यस्य स पञ्चेन्द्रियः सर्वाभिराहारशरीरेन्द्रियोच्छासभाषामनोलक्षणाभिः पभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः, मासद्वयोपरिवत्तीत्यनुक्तमपि ज्ञेयं, यतो मासस्यमध्यवर्ती मनुष्यो गर्भस्थो नरके देवलोकेऽपि न यातीत्युक्तं भगवत्यामिति, पूर्वभविकवीर्यलब्ध्या पूर्वभविकविभंगज्ञानलब्ध्या विभंगनाणलद्धीएत्ति पदं भगवत्यां| नास्ति, पूर्वभविकवैक्रियलब्ध्या वैक्रियलब्धि प्राप्तः सन् यद्वा वीर्यलब्धिकः विभङ्गज्ञानलब्धिकः क्रियलब्धिकः वैक्रिय लब्धि प्राप्तः सन् परानीक-शत्रुसैन्यं आगत-प्राप्तं 'सोचेति श्रुत्वा 'निसम्म'त्ति निशम्य-मनसा अवधार्य 'पएसे ४ानिच्छुभई'त्ति स्वप्रदेशान् अनन्तानन्तकर्मस्कन्धानुविद्धान गर्भदेशाद् बहिः क्षिपति-निष्काशयति निष्काश्य विष्कम्भ-13॥ बाहल्याभ्यां शरीरप्रमाणं आयामतः सङ्ख्येययोजनप्रमाणं जीवप्रदेशदण्डं निसृजति, वैक्रियसमुद्घातेन 'समोहणइत्ति दीप अनुक्रम [२४] ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) "तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------- मूलं [७]/गाथा ||१७...|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ||१७..|| तं. वै. प्र. असकृदनादौ संसारे तद्भावनया-अर्थादिसंस्कारेण भावितो यः स तद्भावनाभावितः८, 'एयंसित्ति एतस्मिन् 'ण' इति गर्भस्थस्यै वाक्यालङ्कारे चेत्-यदि 'अन्तरंसित्ति सङ्घामकरणावसरे कालं-मरणं कुर्यात् तदा नरकेषु गाढदुःखाकुलेषु उत्पद्यते, व देवेषू॥ १२॥ नरभवं त्यक्त्वा महारम्भी मिथ्यादृष्टिः नरके यातीत्यर्थः, 'से' अथ एतेनार्थेनैवं प्रोच्यते-हे गौतम! जीवो गर्भगतः सन् । त्पादः नरकेषु अस्ति एककः कश्चिदुत्पद्यते अस्ति एककः कश्चिन्नोत्पद्यते ॥ पुनीतमो वीर प्रश्नयतीत्याह| जीवेणं भंते! गभगए समाणे देवलोगेसु उववजिजा, गोअत्धेगइए उव० अत्धेगनो उव० सेकेणटेणं भंते ! एवं वुचइ-अत्थेगइए उ०अत्थेगइए नो उ०?, गोयमा! जेणं जीवे गभगए समाणे सन्नी पंचिंदिए सबाहिं। पज्जत्तीहिं पजत्तए वेउधियलद्धीए ओहिनाणलदीए तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स चा अंतिए एगमवि | आयरियं धम्मियं सुबयणं सुचा निसम्म तओ से भवइ तिवसंवेगसंजायसद्धे तिवधम्माणुरायरत्ते,से णं जीवे धम्मकामए १ पुषणकामए २ सग्गकामए ३ मुक्खकामए ४ धम्मकंखिए १ पुण्णकंखिए २ सग्गकंखिए| ३ मुक्खकंखिए ४ धम्मपिवासिए १ पुषणपिवासिए २ सग्गपिवासिए ३ मुक्खपिवासिए ४ तचित्ते १ तम्मणे ६२ तल्लेसे ३ तदज्झवसिए ४ तत्तिवझवसाणे ५ तदप्पियकरणे तयट्ठोवउत्ते ७ तम्भावणाभाविए ८ एयंसि (चे)अंतरंसि कालं करिजा देवलोएस उववजिजा, से एएणं अटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ अत्थेगइए उघव| जिजा अत्थेगइए नो उववजिज्जा (सूत्रं ८) 'जीवे णं भंते ! गम्भगए देव.' जीवो हे भदन्त ! गर्भगतः सन् मृत्वेति शेषः देवलोकेषु उत्पद्यते ?, हे गौतम ! अस्ति दीप अनुक्रम [२५] गर्भगत जीवस्य देवलोके उत्पत्ति: ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) ལྕསྒྲོ༣ +ང་ཟླ ॥१७..|| अनुक्रम “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं+अवचूर्णि:) मूलं [८] / गाथा || १७,,, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं. वै. प्र. ३ एककः कश्चित् उत्पद्यते अस्त्येककः कश्चिन्नोत्पद्यते, 'से' अथ केनार्थेन हे भदन्त ! एवं प्रोच्यते कश्चिदुत्पद्यते कश्चिनोस्पद्यते ?, हे गौतम! यो जीवो गर्भगतः सन् संज्ञी पञ्चेन्द्रियः सर्वाभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तः, मासद्वयोपरिवत्तीत्यवधार्य मासद्वयमध्यवर्ती तु स्वर्गे न यातीति, पूर्वभविकवैक्रियलब्धिकः पूर्वभविकावधिज्ञानलब्धिकः तथारूपस्य - तथाविधस्य उचितस्येत्यर्थः श्रमणस्य - साधोः वाशब्दो देवलोकोत्पादहेतुत्वं प्रति श्रमणमाहनत्र चनयोस्तुल्यत्वप्रदर्शनार्थः 'माहणस्स'त्ति मा हन २ इत्येवमादिशति स्वयं स्थूलप्राणातिपातादिनिवृत्तत्वाद् यः स माहनः यद्वा ब्रह्मणो-ब्रह्म| चर्यस्य देशतः सद्भावात् ब्राह्मणो- देशविरतस्तस्य वा यद्वा श्रमणः - साधुस्तस्य माहनः - परमगीतार्थस्तस्य वा 'अंतिए 'ति समीपे एकमप्यास्तामनेकं आर्य आराद् यातं पापकर्मभ्य इत्यार्थ अत एव धार्मिकमिति सुवचनं शोभनवाक्यं श्रुत्वा आकर्ण्य निशम्य मनसा अवधार्य 'तउत्ति तदनन्तरमेव सः - गर्भस्थजन्तुः भवति जायते 'तिवसं०' तीव्रसंवेगेन भृशं दुःखलक्षाकुलभवभयेन सञ्जाता - सम्यगुत्पन्ना श्रद्धा श्रद्धानं धर्मादिषु यस्य स तीव्रसंवेगसञ्जातश्रद्धः 'तिवध०' तीव्रो यो धर्मानुरागः- धर्म बहुमानस्तेन रक्त इव रङ्गित इव यः स तीव्रधर्मानुरागरक्तः स गर्भस्थः वैराग्यवान् जीवः 'णं' वाक्यालङ्कारे 'धम्मकामए'ति धर्मे श्रुतचारित्रलक्षणे कामो वाञ्छामात्रं यस्य स धर्मकामकः १ पुण्ये- तत्फलभूते शुभकर्मणि कामो यस्य पुण्यकामकः स्थानाङ्गे तु - अन्न १पानश्वखाश्ऽऽलय ४ शयना५ऽऽसन ६मनो७वचन ८ काय९लक्षणं नवविधं पुण्यं प्रतिपादितं जगदीश्वरेण भगवतेति २, स्वर्गे-देवलोके कामो यस्य स स्वर्गकामकः ३ मोक्षे-शिवे अनन्तानन्तसुखमये कामो यस्य स मोक्षकामकः ४, एवमग्रेऽपि, नवरं का-गृद्धिरासक्तिरित्यर्थः, Fur Prate & Pemonal Use Only ~27~ janelibrary.org Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ----------- मूलं [८]/गाथा ||१७|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक” मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत तं. वै. प्र. ॥१३॥ ||१७..|| धर्मे काङ्क्षा सञ्जाता अस्येति धर्मकाशितः १ पुण्यकाशितः २ स्वर्गकासितः ३ मोक्षकासितः ४ पिपासेव पिपासा-मा- गर्भगस्योप्लेऽपि धर्मेऽतृप्तिः धर्मपिपासा सा सजाता अस्येति धर्मपिपासितः १ पुण्यपिपासितः २ स्वर्गपिपासितः मोक्षपिपासितः४,मत्तानादि 'तचित्ते' इत्यादिअष्टविशेषणानि धर्मपुण्यस्वर्गमोक्षे शुभानि वाच्यानि, तच्चित्तः १ तन्मनाः २ तलेश्यः ३ तदध्यवसितः सू. ९-२१ ४ तत्तीव्राध्यवसायः ५ तदर्थोपयुक्तः ६ तदर्पित करणः ७ तद्भावनाभावितः ८, 'एयंसि गंति एतस्मिन्नन्तरे-धर्मध्या-लख्यादित्वं नावसरे कालं-मरणं 'करिज'त्ति कुर्यात् तदा देवलोकेषु उत्पद्यते, 'से' अर्थतेनार्थेन हे गौतम! एवमस्माभिःसू.१०-२३ ४ोच्यते-अस्ति एककः कश्चित् स्वर्गे उत्पद्यते 'अत्थि'त्ति अस्ति एककः कश्चित् नोत्पद्यते इति ॥ गर्भाधिकारे पुन- प्रसवादि है गौतमस्वामी श्रीमहावीरं प्रश्नयति है सू. ११ | जीवे णं भंते ! गन्भगए समाणे उत्ताणए वा पासिल्लए वा अंबखुन्जए वा अच्छिज्ज वा चिट्ठिज वा | निसीइज्ज वा तुयहिज वा आसइज्ज वा सइज्ज वा माउए सुयमाणीए सुयइ जागरमाणीए जागरइ सुहियाए गा.३० ट सुहिओ भवइ दुहियाए दुक्खिओ भवइ ?, हंता गोयमा ! जीवे णं गभगए समाणे उत्ताणए वा जाव दुक्खिओ भवइ । (सूत्रं ९) धिरजायंपिह रक्खइ सम्म सारक्खई तओ जणणी । संवाह तुपट्टा रक्खइ अप्पं|2| च गम्भं च ॥१॥(१८)अणुसुयइ सुयंतीए जागरमाणीऍ जागरइ गम्भो । सुहियाए होइ सुहियो दुहियाएर दुक्खिओ होइ ॥२॥ (१९) उच्चारे पासवणे खेलं संघाणओवि से नस्थि । अट्ठीट्टीमिंजनहकेसमंसुरोमेसु . परिणामो ॥३॥ (२०) एवं बुदिमइगओ गन्भे संवसइ दुक्खिओ जीवो । परमतमिसंधकारे अमिज्झभरिए दीप अनुक्रम [२४] गर्भाधिकारे विविध प्रश्नोत्तर ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---- ---- मूलं [९-११]/गाथा ||१८-३०|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक [९-११]] पएसंमि॥४॥(२१) आउसो! तओ नवमे मासे तीए वा पटुप्पन्ने वा अणागए वा चउण्हं माया अण्णयरं पयायइ, तंजहा-इत्थिं वा इत्थिरूवेणं १ पुरिसं वा पुरिसरूवेणं २ नपुंसगं वा नपुंसगरूवेणं ३ बिंब वा बिंवरूवेणं ४ (सू०१०) अप्पं सुकं बहुं उउयं, इत्थी तत्थ जायइ १।अप्पं उयं बहुं सुकं, पुरिसो तत्थ जायइ २॥१॥ (२२) दुण्हपि रत्तसुक्काणं, तुल्लभावे नपुंसओ३ । इथिउयसमाओगे, बिंब तत्थ जायइ ४॥२।। (२३) अह | लणं पसवणकालसमयंसिसीसेण वा पाएहि वा आगच्छइ समागच्छइ तिरियमागच्छह विणिघायमावजइ (सू०११) का कोई पुण पावकारी बारस संवच्छराई उक्कोसं । अच्छइ उ गम्भवासे असुइप्पभवे असुइयंमि ॥१॥ (२४) जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स वा पुणो। तेण दुखेण संमूढो, जाइं सरह नऽप्पणो ॥२॥ (२५) वीसरसरं ४ रसंतो जो सो जोणीमुहाओ निप्फिडइ । माऊए अप्पणोऽविय वेयणमउलं जणेमाणो ॥ ३ ॥ (२६) गम्भघर| यमि जीवो कुंभीपागंमि नरयसंकासे । वुत्थो अमिज्झमज्झे असुइप्पभवे असुइयंमि ॥४॥ (२७) |पित्तस्स य सिंभस्स य सुक्कस्स य सोणियस्स चिय मज्झे । मुत्सस्स पुरीसस्स य जायइ जह वञ्चकिमिउच ॥५॥ (२८) तं दाणि सोयकरणं केरिसर्य होइ तस्स जीवस्स। सुक्करुहिरागराओ जस्सुप्पत्ती सरीरस्स ॥६॥ (२९) एयारिसे सरीरे कलमलभरिए अमिज्झसंभूए । निययं विगणिजंतं सोयमयं केरिसं तस्स? ॥७॥ (३०) 'जीवे णं भंते! ग.' जीवो हे भदन्त! गर्भगतः सन् 'उत्ताणए वेति उत्तानको वा सुप्तोन्मुखो वेत्यर्थः 'पासिल्लिए । -३०|| ACCOUNCESCRECCC दीप अनुक्रम [२५-४२]] Encatory ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ----- ------ मूलं [९-११]/गाथा ||१८-३०|| ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक CSC -३०|| वै. प्र.13वत्ति पार्श्वशायी वा 'अंबखुजए वत्ति आम्रफलवत् कुज इति 'अच्छिज्जत्ति आसीनः सामान्यतः, एतदेव विशे-15| गर्भाव दोषतः उच्यते-'चिट्ठज वत्ति ऊर्ध्वस्थानेन 'निसीजए वे'ति निषदनस्थानेन 'तुयट्टेज व'त्ति शयीत निद्रया इति वेति । स्थादि. 'आसइज वत्ति आश्रयति गर्भमध्यप्रदेश 'सइज्ज व'त्ति शेते निद्रां विनेति, मात्रा मातरि वा 'सुयमाणीए'त्ति शयनं कुर्वत्या कुर्वत्यां वा 'सुयह'त्ति स्वपिति निद्रां करोतीत्यर्थः, 'जागरमाणीए'त्ति जाग्रत्या-जागरणं कुर्वत्या कुर्वत्यां वा जागर्ति, निद्रानाशं कुरुते इत्यर्थः, सुखितायां सुखितो भवति, दु:खितायां दु:खितो भवति, 'हन्ता गोयम !त्ति' हन्त इति कोमलामन्त्रणार्थो दीर्घत्वं च मागधदेशीप्रभवं, उभयत्रापि 'जीवे णं गभगए समाणे इत्यादेः प्रत्युच्चारणं तु18 स्वानुमतत्वप्रदर्शनार्थ, वृद्धाः पुनराहुः-'हंता गोयमा!' इत्यत्र हन्त इति एवमेतदिति अभ्युपगमवचनं, यदनुमतं तत्प्रहैदर्शनार्थ 'जीवे णं गभगए' इत्यादि प्रत्युच्चारितमिति, हे गौतम! जीवो गर्भगतः सन् उत्तानको वा यावहुःखितो. भवतीति । अथ पूर्वोक्तं पद्येन गाथाचतुष्टयेन दर्शयन्नाह-'थिरजा' स्थिरजातं-स्थिरीभूतं 'रक्खइ'त्ति रक्षति-सामान्येन पालयति ततः सा जननी तं सम्यग्-यत्नादिकरणेन रक्षति 'संवाहइ'त्ति संवहति गमनाऽऽगमनादिप्रकारेण 'तुयट्टईत्ति त्वग्वर्त्तयति-स्वापयति रक्षति-आहारादिना पालयति आत्मानं च गर्भ चेति॥१॥ 'अणु अनुस्वपिति-अनुशेते 'सुयंतीए'त्ति स्वपत्यां सत्यां जाग्रत्यां जागर्ति गर्भ:-उदरस्थजन्तुः जनन्यां सुखितायां सुखितो भवति दुःखितायां दुःखितो भवति | ॥२॥'उच्चारो' उच्चारो-विष्ठा प्रश्रवर्ण-मूत्रं खेलो-निष्ठीवनं 'सिंघाणं ति नासिकाश्लेष्मापि से तस्य गर्भस्थस्य नास्तीति, ॥१४॥ जननीजठरस्थो जीव आहारत्वेन तु यत् गृह्णाति तदस्थ्यस्थिमिंजनखकेशश्मनुरोमेषु (मसु) पूर्वव्याख्यातेषु 'परिणामोत्ति ACCCCCCACAMARCH दीप अनुक्रम [२५-४२]] 4%2-4-45-45 ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------- मूलं [११]/गाथा ||३०|| ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक [९-११] परिणामयतीत्यर्थः ॥३॥ एवं बु.' एवमुक्तप्रकारेण 'बुदि'मिति शरीरं अतिगतः-प्राप्तः सन् गर्भे-जननीकुक्षौ संवसति-1 सतिष्ठते चारकगृहे चौरवत् , 'दुक्खिओ जीवोत्ति अग्निवर्णाभिः सूचीभिः भिद्यमानस्य जन्तोः यादृशं दुःखं जायते 8 ततोऽप्यष्टगुणं यद् दुःखं भवति तेन सदृशेन दुःखेन दुःखितो भवति जीवः गर्भे, किंभूते गर्भे?-तमसा अन्धकार यत्र तमोऽन्धकारः परमश्चासौ तमोऽन्धकारश्च परमतमोऽन्धकारः महान्धकारव्याप्त इत्यर्थः तस्मिन्, अमेध्यभृते-विष्ठापूर्णे* प्रदेशे-जीववसनस्थानके ॥ ४ ॥ इति। 'आउसो! तओ' इत्यादि, हे आयुष्मन् !-हे इन्द्रभूते ! ततः-अष्टमासानन्तरं 8 नवमे मासे अतीते वा-अतिक्रान्ते वा प्रत्युत्पन्ने वा-वर्तमाने वा अनागते वा-अप्राप्ते वा 'चउण्ह' चतुर्णा ख्यादिरू-| पाणां वक्ष्यमाणानां माता-जननी अन्यतरत्-चतुर्णा मध्ये एकतरं 'पयायइ'त्ति प्रसूते 'तंजह'त्ति तत् पूर्वोक्तं यथास्त्रियं वा स्त्रीरूपेण-ख्याकारेण प्रसूते १ पुरुष वा पुरुषरूपेण-पुरुषाकारेण २ नपुंसकं वा नपुंसकरूपेण-नपुंसकाका-18 रेण ३ बिम्ब वा विम्बरूपेण-बिम्बाकारेण, विम्बमिति गर्भप्रतिबिम्ब गर्भाकृतिरार्त्तवपरिणामो नतु गर्भ एव ४, एते| कथं जायन्त ? इत्याह-'अप्पं अल्पं शुक्र 'बहुउउयत्ति बहुक-प्रभूतं 'उय'ति ओजः-आर्तवं स्त्री तत्र गर्भाशये| हाजायते-उत्पद्यते १, अल्प-ओजः बहु शुक्रं पुरुषस्तत्र जायते २, द्वयोरपि रक्तशुक्रयोः-रुधिरवीर्ययोः तुल्यभावे-समत्वे | दूसति नपुंसको जायते ३, 'इत्थी'त्ति स्त्रियाः-नार्या 'ओय'त्ति ओजसः 'समाओगे'त्ति समायोगः-वातवशेन तत्स्थिरी भवनलक्षणं ख्योजःसमायोगस्तस्मिन् सति बिम्बं तत्र-गर्भाशये प्रजायते ४ इति । 'अह ण' मित्यादि, अथानन्तरं 'ण' | वाक्यालङ्कारे प्रसवकालसमये-जन्मकालावसरे शीर्षेण वा-मस्तकेन वा पादाभ्यां वा-चरणाभ्यांवा आगच्छति 'समागच्छ -३०|| दीप अनुक्रम [२५-४२]] JHEditution A arjainsibrary.org ~31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------- मूलं [९-११]/गाथा ||१८-३०|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: -३०|| तं.वै.प्र. इत्ति समम्-अविषममागच्छति सम्मं आगच्छह'त्ति पाठे सम्यक्-अनुपघातहेतुना आगच्छति-मातुरुदरात् योन्या|४|निष्कामति, 'तिरियमागच्छइ'त्ति तिरश्चीनो भूत्वा जठरान्निर्गन्तुं प्रवर्तते यदि तदा विनिर्घातं-मरणमापद्यते निर्गमा-४ ॥१५॥ भावादिति । 'कोइ पुण' कोऽपि पुनः पापकारी-ग्रामघातरामाजठरविदारणजिनमुनिमहाशातनाविधायी वातपित्तादिदूपितो देवादिस्तम्भितो वेति शेषः, द्वादश संवत्सराणि उत्कृष्टतः 'अच्छइत्ति तिष्ठति, तुशब्दात् गर्भोक्तं प्रबलं दुःखं सहमानोऽवतिष्ठते गर्भवासे-गर्भगृहे, किम्भूते -अशुचिप्रभवे अशुचिके-अशुच्यात्मके इति ॥ १॥ ननु नवमासमात्रान्तरित-1४ मपि प्राक्तनं भवं सामान्यजीवः किं न स्मरतीत्याह-जायमा०' गाथा, जायमानस्य-गर्भान्निःसरतः तत्र उत्पद्यमानस्य कावा यदुःखं भवति वा-अथवा पुनर्वियमाणस्य यदुःखं भवति तेन दारुणदुःखेन संमूढो-महामोहं प्राप्तः जाति-प्राक्तनभवं? आत्मीयं-स्वकीयं मूढात्मा प्राणी न स्मरति-कोऽहं पूर्वभवे देवादिकोऽभवमिति न जानातीति ॥२॥'वीसर' गाथा, 'वीसर'त्ति परमकरुणोत्पादक'सर'ति' स्वर-ध्वनि 'रसंतो'त्ति भृशं कुर्वन्स गर्भस्थो जीवः योनिमुखात् 'निप्फिडइत्ति, कानिष्कामति मातुः आत्मनोऽपिच वेदनामतुला जनयन्-उत्पादयन् ॥ ३॥ 'गम्भत्थ' गाथा, गर्भगृहे जीवः कुंभीपाके-12 कोष्ठिकाकृतितप्तलोहभाजनसदृशे नरकसदृशे-नारकोत्पत्तिस्थानतुल्ये 'वुच्छो'त्ति उषितः-स्थितः, अमेध्यं-गूथं मध्ये यस्य ४ गर्भगृहस्य सः अमेध्यमध्यस्तस्मिन् अशुचिप्रभवे-जम्बालाद्युद्भवे अशुचिके-अपवित्रस्वरूपे ॥४॥ 'पित्त' पित्तस्य सिंभस्य श्लेष्मणः शुक्रस्य शोणितस्य मूत्रस्य पुरीषस्य-विष्ठायाः मध्ये-मध्यभागे जायते-उत्पद्यते, क इव ?-'चचकि|म्मिउद्य'त्ति वर्चस्वकृमिवत्-विष्ठानीलंगुवत्, यथा कृमिः-द्वीन्द्रियजन्तुविशेषः उदरमध्यस्थविष्ठायामुत्पद्यते तथा जीवोऽ दीप अनुक्रम [२५-४२]] or॥१५ ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------ ----- मूलं [९-११]/गाथा ||१८-३०|| -- -- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक [९-११] -३०|| पीति ॥५॥'तं दाणि' तत् 'दाणि'ति इदानीं-साम्प्रतं शौचकरणं-शरीरसंस्कारकरणं कीदृशं भवति तस्य गर्भनिर्गतस्य जीवस्य ?, यस्य भङ्गारशरीरस्योत्पत्तिः-प्रादुर्भावः शुक्ररुधिराकरात्-वीर्यरुधिरखनेः वर्तत इति ॥६॥ ४ाएया' एतादृशे शरीरे कलमलभृते-उदरस्थजलबटकदमादिपूर्णे अमेध्यसम्भूते-विष्ठाकीर्णोदरसम्भूते 'निययं विग|णिजंत' मिति पदद्वये 'सप्तम्या द्वितीये' (श्रीसि. अ० पा. ३ सू. १३७ ) ति सप्तम्यर्थे द्वितीया, निजके-आत्मीये 8 'विगणिज्जंत'मिति आत्मपरेषां जुगुप्सायोग्ये शौचमतं-पवित्रत्वाङ्गीकारलक्षणं, यथा मयाऽस्य स्नानचन्दनादिना पवित्रत्वं विधेयमिति, यद्वा शौचेन-वस्त्रचन्दनाभरणादिना मदो-गर्वो यत्र सनत्कुमारचक्रिवत् तत् शौचमदं । &यथा कीदृशं मम शरीरं शोभतेऽलङ्कारादिनेति, यदिवा एवंविधे शरीरे कुत्रापि रोगादिना विनष्टे शोकमतं-शोकाङ्गी कारकरणं यथा-हा मम सुन्दरं शरीरं स्फोटकादिना विनष्टमिति, कीदृशं तस्य जीवस्येति ॥ ७॥ अथ जीवानां ग्रन्थमुखे | द्वितीयगाथया सूचिता दश दशाः निरूप्यन्ते& आउसो! एवं जायस्स जंतुस्स कमेण दस दसा एवमाहिजंति तंजहा-बाला १किडा २ मंदा ३ बला य ४ पण्णा य५ हायणि ६ पवंचा ७ । पन्भारा ८ मुम्मुही ९सायणी य दसमा य १० काल४दसा ॥१॥ (३१) जायमित्तस्स जंतुस्स, जा सा पढमिया दसा । न तत्थ सुहं दुक्खं वा, नह लैजाणंति बालया॥१॥(३२) बीईयं च दसंपत्तो, नाणाकीलाहि कीडइन य से कामभोगेसु, तिचा उप्प बई रई॥२॥ (३३) तइयं च दसं पत्तो, पंचकामगुणे नरो । समत्थो भुंजिउं भोए, जइ से अस्थि घरे दीप अनुक्रम [२५-४२]] | जीवानां दश-दशाणाम् वर्णनं ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------- मूलं [११,,,/गाथा ||३१-४१|| -- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-८), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं. वै.प्र. गा.४१ -४१|| धुवा ॥३॥ (३४) चउत्थी उ बला नाम, जं नरो दसमस्सिओ । समत्थो बलं दरिसेउं, जइ भवे 8 दशदशा निरुवहवो ॥४॥(३५) पंचमी उ दसं पत्तो, आणुपुबीए जो नरो। समत्थोऽत्थं विचिंतेउं, कुटुंबं चाभि- स.१२ गच्छइ ॥५॥(३६) छट्ठीओ हायणी नामा, जं नरो दसमस्सिओ। विरजह उ कामेसुं, इंदिएसु य हायइ ॥ ६॥ (३७) सत्तमी य पवंचा ओ, जं नरो दसमस्सिओ । निच्छुभइ चिकणं खेलं, खासई य8 खणे खणे ॥ ७॥ (३८) संकुइयवलीचम्मो, संपत्तो अट्ठमीदसं । नारीणं च अणिट्ठो य, जराए परिणामिओ॥ ८॥ (३९) नवमी मुम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ। जराघरे विणस्संते, जीवो वसइ अका मओ॥९॥ (४०) हीणभिन्नसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खिओ सुयई, संपत्तो हादसमी दसं ॥१०॥(४१) ना 'आउसो ए' हे आयुष्मन्! एवम्-उक्तप्रकारेण जातस्य-उत्पन्नस्य जन्तोः-जीवस्य क्रमेण-अनुक्रमेण दश दशा-दशा-10 वस्थाः, दशवर्षप्रमाणा प्रथमा दशा-अवस्था १ दशवर्षप्रमाणा द्वितीया दशाऽवस्था २ इत्येवं दश दशाः, एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण 'आहिजंतीति आख्यायन्ते-कथ्यन्ते, तद्यथा-'बाला १ किड्डा २' इत्यादिगाथा, बालस्येयमवस्था धर्मधर्मिणोरभेदात् बाला १, क्रीडाप्रधाना दशा क्रीडा २, मन्दो-विशिष्टबलबुद्धिकार्योपदर्शनासमर्थो भोगानुभूता-12 वेव समर्थो यस्यां दशायां सा मन्दा ३, यस्यां पुरुषस्य बलं स्यात् सा बलयोगात् बला ४, प्रज्ञा-चाञ्छिताधेसम्पा-| दादनकुटुम्बाभिवृद्धिविषया बुद्धिः तद्योगात् दशा प्रज्ञा ५, हापयति पुरुषस्येन्द्रियाणि मनाक् स्वार्थग्रहणाप्रभूणि करोतीति दीप अनुक्रम [४३-५४] GANAGAR ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [११]/गाथा ||३१-४१|| ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत -४१|| SACASSADOSANSACSC हापनी ६, प्रपञ्चयति-विस्तारयति खेलकासादि इति प्रपञ्चा ७, प्राग्भारं-ईषदवनतमुच्यते तदिव गात्रं यस्यां सा है प्रागभारा ८, मोचनं-मुक जराराक्षसीसमाक्रान्तशरीरगृहस्य मोचनं तं प्रति मुख-आभिमुख्यं यस्यां सा मुन्मुखी ९, स्वापयति-निद्रायत्तं करोति सा शायिनी दशमी १०, एताः कालोपलक्षिताः दशाः कालदशाः उच्यन्ते इति ॥१॥ अथ सूत्रेणैव दश दशा दर्शनन्नाह'-'जायमि' श्लोकः, जातमात्रस्य जन्तोः-जीवस्य या सा प्रथमिका दशा-दशवर्षप्रमाणावस्था 'तत्थति तस्यां प्रथमदशायां प्रायेण सुखं दुःखं वा नेति-नास्ति, तथाऽऽत्मपरेषां सुखदुःखं नैव जानंति बालकाः-जातिस्मरणादिज्ञानविकला इति ॥१॥ 'बीईयं च' द्वितीयां दशां प्राप्तो जीवो नानाक्रीडाभिः क्रीडति-क्रीडां करोतीत्यर्थः, 'से' तस्य द्वितीयाऽवस्थावर्तिनो जीवस्य कामौ च-शब्दरूपे भोगाश्च-गन्धरसस्पर्शाः कामभोगास्तेषु तीव्रा-प्रबला रतिः-मन्मथवाञ्छा नोत्पद्यते न प्रकटीभवतीत्यर्थः ॥२॥ 'तइयं च' तृतीयां दशां प्राप्तः पञ्चकामगुणे-शब्दरूपरसगन्धस्पर्शलक्षणे नरो-मनुष्यः आसक्तो भवति, तथा तदा भोगान् भोक्तुं समर्थों भवति यदि 'से' तस्य जीवस्य अस्तीति-सत्तारूपतया वर्तते गृहे-स्वावासे 'धुवेति राजाद्युपद्रवाभावेन निश्चला समृद्धिरिति शेषः ॥३॥'चउ०' चतुर्थी बलानाम्नी दशा वर्तते यां बलानाम्नी दशामाश्रितो नरः समर्थों भवति बलं स्ववीये | द्रष्टुं ( दर्शयितुं ) फलिहमल्लवत् , यदि भवेत् निरुपद्रवो-रोगादिक्लेशरहितः, अन्यथा मात्स्यिकमल्लवत् विनाशं या-| तीति ॥४॥ 'पंचमी उ' पञ्चमी दशां प्राप्तः आनुपूा-परिपाव्या यो नरःस समर्थो भवति अर्थ विचिन्तयितुं-द्रव्यचिन्तां |* कर्तुं च पुनः कुटुम्ब प्रति अभिगच्छति-कुटुंबचिन्तायां प्रवर्त्तते इत्यर्थः ॥५॥ 'छट्ठी उ' षष्ठी हापनीनाम्नी दशा वर्तते, 18 दीप अनुक्रम [४३-५४] ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) **** प्रत सूत्रांक [११,,] + ||३१ -४१|| दीप अनुक्रम [४३-५४] तं. वै. प्र. ॥ १७ ॥ “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं+अवचूर्णि:) मूलं [११] / गाथा ||३१-४१ || मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: यां हापन दशां नर आश्रितः 'विरजइ'त्ति प्रवाहेण विरक्तो भवति, केभ्यः ? - काम्यंत इति कामाः - कन्दर्पाभिलाषास्तेभ्यः इन्द्रियेषु श्रवणप्राणचक्षुर्जिह्वास्पर्शनलक्षणेषु हीयते-हानिं गच्छतीत्यर्थः ॥ ६ ॥ 'सत्तमी०' सप्तमी प्रपञ्चा दशा यां दशां आश्रितः 'निच्छुभद्द'त्ति बहिर्निक्षिपति यत्र कुत्रापि बहिर्निस्सारयति चिक्कणं- पिच्छिलं चेपकतुल्यमित्यर्थः 'खेल' श्लेष्माणं च पुनः क्षणं २ वारं २ 'खास'त्ति-खासितं करोतीत्यर्थः ॥ ७ ॥ 'संकुइ०' अष्टमी दशां प्राप्तो जीवः सङ्कचितवलिचर्मा भवति, च पुनः जरया परिणमितो-व्याप्तः स्यात्, नारीणां स्वपरस्त्रीणां अनिष्टो भवति, श्रावस्ती - रीवास्तव्यजिनदत्तश्राद्धवदिति ॥ ८ ॥ नवमी मुन्मुखी नाम्नी वर्त्तते, यां मुन्मुखीं दशां नरः आश्रितः 'जराघरे' जरागृहे शरीरे विनश्यति सति जीवोऽकामको विषयादिवाञ्छारहितो वसति ॥ ९ ॥ 'हीण०' हीनस्वरः - लघुध्वनिः | भिन्नस्वरः - स्वभावस्वरादन्यस्वरः दीनः - दीनत्वं गतः विपरीतः - पूर्वावस्थातः विचित्तः विचित्रो वा नानास्वरूपः | दुर्बल:- कृशाङ्गः दुःखितो- रोगादिपीडालक्षव्याप्तः एवंविधो जीवः स्वपिति स्वशरीरे स्वगृहे वा संप्राप्तः, कां ? -दशमीं दशामिति १० ॥ यस्यां यद् भवति तदाह दसगस्स उवकखेवो वीसइवरिसो उ गिण्हई विजं । भोगा य तीसगस्स य चत्तालीसस्स विन्नाणं ॥ ११॥ (४२) पण्णासगस्स चक्खू हायइ सकियस्स बाहुबलं । भोगा य सत्तरिस्स य असीइगस्सा य विन्नाणं ॥ १२ ॥ (४३) नउई नमइ सरीरं वाससए जीवियं चयइ । कित्तिओऽत्थ सुहो भागो दुहो भागो य कित्तिओ १॥ १३॥ (४४) (सूत्रं १२) जो वाससयं जीवइ, सुही भोगे पभुंजइ । तस्सावि सेविडं सेओ, धम्मो य जिणदेसिओ । १४ । (४५) किं पुण Fur Prate & Personal Use Only ~36~ प्रतिदशकं हानिः गा. ४४ पुण्यकर्च व्यता गा. ४९ ॥ १७ ॥ jainelibrary.org Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१२]/गाथा ||४२-४९|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: -४९|| सपञ्चवाए, जो नरो निचदुक्खिओ ? । मुट्ठयरं तेण कायचो, धम्मो य जिणदेसिओ॥१५॥ (४६) नंदमाणो| चरे धम्म, वरं मे लट्टतरं भवे । अनंदमाणोऽवि चरे, मा मे पावतरं भवे ॥ १६॥(४७) नवि जाई कुलं वावि विजा वाऽवि सुसिक्खिया । तारे नरं व नारिं वा, सवं पुन्नेहि वहुई ॥ १७॥ (४८) पुन्नेहिं हीयमाणेहि, WIपुरिसागारोऽवि हायई । पुन्नेहिं वहुमाणेहि, पुरिसगारोऽपि वहुई ॥१८॥ (४९) ा 'दसग' दशकस्य-दशवर्षप्रमाणस्य जीवस्य 'उबक्खेवो' ति वालोत्पाटनं मुण्डनमिति लोकोक्तिः, उपलक्षणत्वा-1 तदन्यदपि प्रथमावस्थाभवो महोत्सवविशेषो ज्ञेय इति १, विंशतिवर्षको-द्वितीयावस्थावर्ती विद्यां गृह्णातीति २, त्रिंश तकस्य भोगा भवन्ति ३ चत्वारिंशत्कस्य विज्ञानं भवति ४ ॥११॥ 'पन्ना०' पञ्चाशत्कस्य जीवस्य 'चक्खु'त्ति चक्षुर्वलं हीयते ५, षष्टिकस्य बाहुबलं हीयते ६, सप्ततिकस्य भोगा हीयन्ते ७, अशीतिकस्य विज्ञानं हीयते ८ ॥१२॥ 'नउइय नवतिकस्य शरीरं नमति-बक्रं भवतीत्यर्थः९, वर्षशते सति जीवितं त्यजति जीवः१०॥'कित्तिउत्थ' अत्र-शतवर्षे जीवानां सुखभागः कीर्तितो-निरूपितोऽस्तीति, चशब्दोऽप्यर्थे दुःखभागोऽपि कीर्तितोऽस्तीति, यद्वा अत्र 'कित्तिओ'त्ति कियान सुखभागो वर्त्तते कियान दुःखभागो वर्त्तते ॥ १३ ॥ अथ शतवर्षायुष्कस्य जीवस्यान्यस्यापि उपदेशं ददातीति | 'जो वास.' यो जीवो वर्षशतं जीवति प्राणान् धारयतीत्यर्थः, च पुनः सुखी भोगान् भुक्ते तस्यापि जीवस्य सेवितुं-सदा कर्तु श्रेयो-मङ्गलं धर्मो-दुर्गतिपत जीवाधारः जिनदेशितः केवलिना भाषितः॥ १४ ॥ 'किं पुण' किं पुनः सप्रत्यवाये-सकष्टे आयुषि काले वा सति इति शेषः, यो नरो नित्यदुःखितः-सदा दुःखाकुलो भवेत् ?, तेन दुःखितजीवेन जिनद ACC-CARRIGAR-bp-NCR दीप अनुक्रम [५५-६२] M ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१२]/गाथा ||४२-४९|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं. वै.प्र. -४९|| शितो धर्मः सुमुतरं-विशेषतः कर्त्तव्यो नन्दिषेणपूर्वभवब्राह्मणजीववदिति ॥ १५॥ 'नंदमा' नन्दमानः-सौख्यं । पुण्यकार्येभुञ्जानो धर्म जिनोक्तं चरेत् कुर्यादित्यर्थः, किंभूतं धर्म ?-वरं-श्रेष्ठं शिवपापकत्वात् , कया भावनया धर्म कुर्यादि॥१८॥ ऽनालस्य । त्याह-मे-मम अत्र भवे परभवे च 'लष्टतरं' अतिकल्याणं भवेदिति भावनयेति, अनन्दमाणोऽवि-अनन्दन्नपि । सू. १३ सौख्यमभुञ्जानोऽपि धर्म कुर्यात्, कया भावनयेत्याह-मे-मम पापतरं मा भवतु-एकं तावदहं पापफलं भुंजे पुनर्धर्मा | करणे मा भवतु मेऽतिपापफलमिति भावनयेति ॥ १६॥ किंच-नवि जा.' नरं-पुरुषं वाशब्दावू बालादिभेदभिन्न नारी-स्त्रियं वाशब्दात् क्लीव जातिः-मातृपक्षः ब्राह्मणादिका जातिवा कुलं-पितृपक्षः उग्रभोगादिकं कुलं वा विद्या वा सुशिक्षिता-सदभ्यस्ता वा नापीति-नैव तारयति-भवाब्धितीरं प्रापयति, सर्व स्वर्गापवर्गादिसौख्यं पुण्यैः-संविग्नसाधुदानादिभिर्वर्धते-प्राप्यते इत्यर्थः, अनान्यत्रापि वकारचकारापिशब्दाः यथायोगं पूरणसमुच्चयादिकेऽर्थे ज्ञातव्या : इति ॥ १७ ॥ 'पुन्नेहि' पुण्यैः-अन्नपानवस्त्रपीठफलकौषधादिभिः साधुदानादिभिरुपार्जितशुभफलैः हीयमानः-क्षयं 18| गच्छद्भिः पुरुषकार:-पुरुषाभिमानः अपिशब्दादन्यदपि यश-कीर्तिस्फीतिलक्ष्म्यादिकं हीयते-शनैः शनैः क्षयं 8 | यातीत्यर्थः, पुण्यैः वर्द्धमानैः पुरुषकारोऽपि वर्द्धते ॥१८॥ | पुन्नाई खलु आउसो! किच्चाई करणिजाई पीइकराइं वन्नकराई धणकराई कित्तिकराई, नो य खलु आउसो! एवं चिंतियचं-एस्संति खलु बहवे समया १ आवलिया २ खणा ३ आणापाणू ४ थोवा ५ लवा 31 ६ मुहुत्ता ७दिवसा ८ अहोरत्ता ९ पक्खा १० मासा ११ रिऊ १२ अयणा १३ संवच्छरा १४ जुगा दीप अनुक्रम [५५-६२] ~ 38~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) "तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [१३]/गाथा ||४९...|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सत्राक [१३] ||४९..|| १५ वाससया १६ वाससहस्सा १७ वाससयसहस्सा १८ वासकोडीओ १९ वांसकोडाकोडीओ २० जत्थ णं अम्हे बहई सीलाई वयाई गुणाई वेरमणाई पचक्खाणाई पोसहोववासाई पडिवजिस्सामो पट्टविस्सामो करिस्सामो, ता किमत्थं आउसो! नो एवं चिंतेयत्वं भवइ १, अंतरायबहुले खलु अयं जीविए, इमे वहवे वाइयपित्तियार्सिभियसंनिवाइया विविहा रोगायंका फुसंति जीवियं (सूत्रं १३) 'पुन्नाइं०' इत्यादि गद्यं, खलु निश्चये हे आयुष्मन् ! पुण्यानि-शुभप्रकृतिरूपाणि कृत्यानि-कार्याणि करणीयानि-कर्ते योग्यानि प्रीतिकराणीति-मित्रादिना सह स्नेहोत्पादकानि वर्गकराणि-एकदिग्व्यापिसाधुवादकराणीत्यर्थः ।। धनकराणि-सद्रत्नसमृद्धिकराणि कीर्तिकराणि-सर्वदिग्यापिसाधुवादकराणीत्यर्थः, नैव च खलु एवार्थत्वात् हे, आयुष्मन् ! एवं-वक्ष्यमाणं चिन्तितव्यं-मनसा विकल्पनीयं 'एस्संती'ति एज्यन्ति-आगमिष्यन्ति खलु निश्चये बहवः। दासमयाः, 'बहव' इत्यग्रेऽपि योज्यं, सर्वनिकृष्टः कालः समयः १, असत्यातैः समयैरावठिका, जघन्ययुक्तासययसमयस. Kाशिमाना इत्यर्थः २, अष्टादशनिमेपैः काष्ठा, काष्ठाद्वयं लवः, लवैः पञ्चदशभिः कला, कलादयं लेशा, पञ्चदशभिर्लेश: क्षणः ३, सोया आवलिका आनः एकः उच्छ्रास इत्यर्थः ता एव सोया निश्वासः द्वयोरपि कालः प्राणः ४, सप्तभिः प्राणैः स्तोकः ५ सप्तभिः स्तोकैलवः ६ सप्तसप्तत्या लवैः मुहूर्तः ७ पञ्चदशमुहूदिवसः ८ त्रिंशन्मुहुर्तेरहोरात्र: ९ तैः पञ्चदशभिः पक्षः १० ताभ्यां द्वाभ्यां मासः ११ मासद्धयेन ऋतुः १२ ऋतुत्रयमानमयनं १३ अयनद्वयेन संवत्सरः १४ पञ्चभिस्तैर्युगं १५ विंशत्या युगैर्वर्षशतं १६ तैर्दशभिर्वर्षसहस्र १७ तेषां शतेन वर्षशतसहस्र लक्षमित्यर्थः १८ शतछ दीप अनुक्रम [६३] SASSASAXES RSH तं.वै.प्र.४ ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [१३]/गाथा ||४९...|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत तं. वै. प्र. ॥१९॥ सू. १३ ॥४९..|| *A454555 वर्षकोटिः १९वर्षकोटिः वर्षकोटिभिः गुण्यते वर्षकोटीकोटिः भवति १०००००००००००००० इति २०॥ यत्र सम- पुण्यकार्य यावलिकादौ 'ण' वाक्यालङ्कारे 'अम्हे'त्ति क्यं बहूनि-प्रभूतानि शीलानि-समाधानानि व्रतानि-महाव्रतानि 'गुणा'इति ऽनालस्यं गुणान-विनयादीन्, अत्र 'गुणाद्याः क्लीवे वे' (श्रीसि. अ.८ पा. १ सू. २४) ति क्लीवत्वं, 'वेरमणाईति असंय-||3|| मादिभ्यो निवर्तनानि प्रत्याख्यानानीति-नमस्कारसहितपौरुष्यादीनि पौषधः-पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवासा-अभक्तार्थकरणानि पौषधोपवासास्तान् प्रतिपद्यामहे-आचार्यादिपार्वेऽङ्गीकरिष्यामः 'पट्टविस्सामो'त्ति प्रस्थापयिष्यामः अङ्गीकरणानन्तरं प्रथमतया कर्तुमारप्स्यामः करिष्याम इति-साक्षात्कारेण सततं निष्पादयिष्यामः, 'त'त्ति तावदादौ किमर्थं नैव ||* चिन्तयितव्यं?, हे आयुष्मन् ! त्वं शृणु यतो भवति अन्तरायबहुलं-विघ्नप्रचुरमिदं खलु निश्चये जीवितं-आयुर्जीवानां, तथा इमे-प्रत्यक्षाः बहवः वातिका-वातरोगोद्भवाः पैत्तिका:-पित्तरोगजाः 'सिंभिय'ति श्लेष्मभवाः सान्निपातिकाः| सन्निपातजन्याः विविधाः-अनेकप्रकारा रोगा-व्याधयस्ते च ते आतङ्काश्च-कृच्छ्रजीवितकारिणः इति रोगातङ्काः जीवितं ||स्पृशंतीति । अथ सर्वान् अपि मनुजान् एते रोगाः स्पृशन्ति नवा ? इति दर्शयन्नाह__आसी य खलु आउसो! पुर्वि मणुया ववगयरोगायंका बहुवाससयसहस्सजीविणो, तंजहा-जुयलधम्मिया अरिहन्ता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा चारणा विजाहरा । ते णं मणुया अणइवरसोमचारुरूवार भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा सुजायसवंगसुन्दरंगा रत्तुप्पलपउमकरचरणकोमलंगुलितला नगनगरमगरसागरचकंकधरंकलक्खणंकियतला सुप्पइडियकुम्मचारुचलणा आणुपुर्षि सुजायपीवरंगुलिया उन्नयतणुतंव दीप अनुक्रम [६३]] ॥१९ % JinnitiatioM अथ युगलिकानांस्वरुपम् वर्णयते ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------------- मूलं [१४]/गाथा ||४९...|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत *% [१४] % A ||४९..|| निद्धनहा संठियसुसिलिट्ठगूढगुप्फा एणीकुरुर्विदावत्सवहाणुपुवजंघा समुग्गनिमग्गगूढजाणू गयससणसु जायसन्निभोरू वरवारणमत्ततुल्लविक्कमविलासियगई सुजायवरतुरयगुज्झदेसा आइण्णयब निरुवलेवा Miपमुइयवरतुरयसीहअइरेगवट्टियकडी साहयसोणंदमुसलदप्पणनिगरियवरकणगच्छरुसरिसवरवहरवलियम ज्झा गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणयोहियविकोसायंतपउमगंभीरवियडनाभी उजुयसमसहियसुजायजायजच्चतणुकसिणनिद्धआइजलडहसुकुमालमउयरमणिजरोमराई झसविहगसुजायपीणकुच्छी झसोयरा पउमवियडनाभा संगयपासा सन्नयपासा सुंदरपासा सुजायपासा मियमाइयपीणरईयपासा अकरंडयकणयरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी पसत्यवत्तीसलक्खणधरा कणगसिलायलुजलपसत्थ-18 समतलउवचियविच्छिन्नपिहुलवच्छा सिरिवच्छंकियवच्छा पुरवरफलिहववियभुया भुयगीसरविउलभोगआयाणफलिहउच्छूढदीहबाहू जुगसंनिभपीणरइयपीवरपउट्ठा संठियउवचियघणथिरसुबद्धसुवढ्सुसिलिट्ठलट्ठपञ्चसंधी रत्ततलोवचियमउयमंसलसुजायलक्खणपसत्थअच्छिद्दजालपाणी पीवरवट्टियसुजायकोमलवरंगु-18 |लिया तंवतलिणसुइरुहरनिद्धनक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्कपाणिलेहा सुस्थि यपाणिलेहा ससिरविसंखचक्कसुत्थियसुविभत्तसुविरइयपाणिलेहा वरमहिसवराहसीहसलउसभनागवर|विउलउन्नयमउयक्खंधा चउरंगुलमुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवा अवडियसुविभत्तचित्तमंसू मंसलसंठियपसत्थसहूलविउलहणुया ओयवियसिलप्पवालविंबफलसन्निभाधरुवा पंडुरससिसगलविमलनिम्मलसंखगो दीप अनुक्रम -% [६४]] % % ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१४] ॥४९..|| दीप अनुक्रम [ ६४ ] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + अवचूर्णि:) मूलं [१४] / गाथा ||४९...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं. वै. प्र. ॥ २० ॥ क्खीर कुंद दगरयमणालियाधवलदंतसेढी अखंडदंतां अफुडियता अविरलता सुनिता सुजायदंता एकदंता सेढीविव अगदंता हुयवहनिद्धंतधोयत सतवणिजर ततलता लुजीहा सारसनवधणियमहुरगभी* रकुंचनिग्घोसदुंदुहिसरा गरुलायय उज्जुतुंगनासा अवदारियपुंडरीयवयणा कोकासियधबलपुंडरीयपत्तलच्छा आनामियचावरुइलकिण्हचिहुर राई सुसंठिय संगयआययसुजायभुमया अल्लीणपमाणजुत्तसवणा सुसवणा पीणमंसलकबोलदेस भागा अइरुग्गयसमग्गसुनिद्धचंद्ध संठियनिडाला उडवइप डिपुन्नसोमवयणा छत्तागारतमंगदेसा घणनिचिय सुबद्धलक्खणुन्नयकूडागारनिभनिरुवमपिंडियग्गसिरा हुयवहनिद्धंतधोयतत्ततवणिजकेसंत के सभूमी सामली बोंडघणनिचियच्छोडियमउविसय सुमलक्खणपसत्थसुगंधिसुन्दर भुयमोयगभिंगनीलकज्जल पहट्ट भमरगणनिद्धनि उरंवनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्ध सिरया लक्खणवंजणगुणोववेया माणु| म्माणपमाणपडि पुन्न सुजायसवंगसुंदरंगा ससिसोमागारकंतपिपदंसणा सम्भावसिंगारचारुरूवा ईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा, ते णं मणुया ओहस्सरा मेहस्सरा हंसस्सरा कोंचस्सरा नंदिस्सरा नंदिघोसा सीहस्सरा सीहघोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुस्सरघोसा अणुलोमवाउवेगा कंकरगहणी कवोयपरिणामा सउणी फोसपितरोरुपरिणया पउप्पलसुगंधिसरिसनीसाससुरभिवयणा छवी निरायंका उत्तमपसत्था अइसेसनिरुवमतणू जलमल्लकलंक सेयरय दो सवज्जियसरी नेरुवलेवा छायाउजोविअंगमंगा | वारिसहनारायसंघयणा समचतुरंस संठाणसंठिया छधणुसहस्साईं, उवं उच्चत्तेणं पण्णत्ता ते णं मणुया दो पासा Fur Prate & Pomonal Use City ~42~ युगलिक - स्वरूपं सू. १४ ॥ २० ॥ jainelibrary.org Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) सूत्रांक [१४] + ॥४९॥ अनुक्रम [ ६४ ] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + अवचूर्णि:) मूलं [१४] / गाथा ||४९...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: छप्पण्णगपिट्ठिकरंडयसया पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं मणुया पगद्दभद्दया पगइविणीया पगइउवसंता | पाइपयणुकोह माणमायालोभा मिउमद्दवसंपन्ना अल्लीणा भया विणीया अपिच्छा असंनिहिसंचया अचंडा असिमसिकिसिवाणिज्जविवज्जिया विडिमंतरनिवासिणो इच्छिय कामकामिणो गेहागाररुक्खकयनिलया पुढविपुष्पफलाहारा ते णं मणुयगणा पण्णत्ता (सूत्रं १४ ) 'आसीय खलु' आसन् - चशब्दात् संति भविष्यन्ति च खलु-निश्चये हे आयुष्मन् ! - हे गणिगुणगणधर ! पूर्व- पूर्वस्मिन् | काले प्रथमद्वितीयतृतीयचतुर्थारकेषु यथासम्भवं मनुजाः - नराः रोगो-व्याधिः स चासावातङ्कश्च रोगातंकः व्यपगतो रोगातङ्के येषां ते व्यपगतरोगातङ्काः यद्वा रोगश्च ज्वरादिः आतङ्कश्च - सद्यःप्राणहारी शूलादी रोगातङ्कौ तौ व्यपगतौ येषां ते तथा, बहुवर्षशतसहस्रजीविनः, तद्यथा - युगलधार्मिकाः अर्हन्तः - तीर्थङ्कराश्चक्रवर्त्तिनः बलदेवा - वासुदे वज्येष्ठबान्धवः वासुदेवाः- बलदेवलघुबान्धवा स्त्रिखण्डभोक्तारः चारणाः- जङ्घाचारणविद्याचारणलक्षणाः विद्यां धारयन्तीति विद्याधराः नमिविनम्याद्याः ।'ते ण'मिति णं वाक्यालङ्कारे ते युगलधार्मिका अर्हदादयो मनुजाः - मनुष्याः 'अणइवरे 'ति अतीव-अतिशयेन 'सोमं' दृष्टिसुभगं चारु रूपं येषां ते तथा यद्वा 'अणवइरसोमचारुरूव'त्ति अतीति अव्ययमतिक्रमार्थे न अति अनति सौम्यं च तच्चारु च सौम्यचारु सौम्यचारु च तद्रूपं च सौम्यचारुरूपं वरं च तत्सौम्यचारुरूपं च वरसौम्यचारुरूपं अनतीति- अनतिक्रान्तं वरसौम्यचारुरूपं येषां ते अनतिवरसौम्यचारुरूपाः, देवैरपि स्वलावण्यगुणादिभिरजितरूपा इत्यर्थः, भोगैरुत्तमाः भोगोत्तमाः सर्वोत्तमभोगभोकार इत्यर्थः, भोगसूच Fur Prate & Pemonal Use Only ~ 43~ janelibrary.org Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [१४]/गाथा ||४९...|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत वै.प्र. युगलिक ॥२१॥ [१४]] ||४९.. 9845454ॐ कलक्षणानि-स्वस्तिकादीनि धारयन्तीति भोगलक्षणधराः सुजातानि-सुनिष्पन्नानि सर्वाणि अङ्गानि-अवयवाः यत्र | तदेवंविधं सुन्दरं अङ्ग-शरीरं येषां ते सुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गाः, 'रत्तुप्पलपउमकरचरणकोमलंगुलितल'त्ति रक्तो- स्वरूपं सू. त्पलवत् करचरणानां कोमला अङ्गल्यो येषां ते तथा, तथा पद्मवत् करचरणानां कोमलानि तलानि-अधोभागा येषां ते तथा, नगः-पर्वतः नगरं प्रतीतं मकरो-मत्स्यः सागरः-समुद्रः चक्रं प्रतीतं अङ्कधर:-चन्द्रः अङ्क:-तस्यैव , लाञ्छनं मृगः एवरूपैर्लक्षणैरङ्कितानि तलानि-पादाधोभागाः येषां ते तथा, सुप्रतिष्ठिताः-सत्प्रतिष्ठानवम्तः कूर्म-3 वत्-कच्छपवत् चारवः चरणा येषां ते तथा, आनुपूया-परिपाव्या वर्द्धमाना हीयमाना वा इति गम्यते, सुजाता:-सुनि-3 पन्नाः पीवराः अङ्गलिकाः-पादानावयवाः येषां ते तथा, उन्नता:-तुङ्गाः तनवः-प्रतलाः तामा-अरुणाः स्निग्धाः-कान्ति-| मन्तो नखा येषां ते तथा, संस्थितौ-संस्थानविशेषवन्तौ सुश्लिष्टौ-मांसलौ गूढौ-मांसलत्वादनुपलक्ष्यौ गुल्फौ-घुटको | येषां ते तथा, आनुपूर्येण-परिपाट्या वर्धमाना हीयमाना वा इति गम्यते, एणी-हरिणी तस्याश्चेह जवा ग्राह्या, कुरुमाविन्द-तृणविशेषः बत्ता च-सूत्रवलनकं एतानीव वृत्ते-चतुले आनुपूर्येण स्थूलस्थूलत्वेनेति गम्यं, जहे-प्रसृते येषां ते? तथा, समुद्गस्येव-समुद्गकपक्षिण इव निमग्ने-अन्तःप्रविष्ट गूढे-मांसलत्वादनुपलक्ष्ये जानुनी-अष्ठीवन्तौ येषां ४ ते तथा, गजो-हस्ती 'ससण'त्ति श्वसिति-प्राणिति अनेनेति श्वसनः-शुण्डादण्डः गजस्य श्वसनः गजश्वसनस्तस्य सुजातस्य-सुनिष्पन्नस्य सन्निभे-सदृशे ऊरू येषां ते तथा, वरवारणस्य-प्रधानगजेन्द्रस्य तुल्या-सदृशो विक्रमः-पराक्रमो |विलासिता-सञ्जातविलासा च गतिर्येषां ते तथा, सुजातवरतुरगस्येव सुगुप्तत्वेन गुह्यदेशो-लिङ्गलक्षणोऽवयवो येषां दीप अनुक्रम [६४]] ~ 44 ~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१४] • ॥४९॥ दीप अनुक्रम [ ६४ ] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + अवचूर्णि:) मूलं [१४] / गाथा ||४९...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ते तथा, आकीर्णहय इव-जात्याश्व इव निरुपलेपाः - तथाविधमलविकलाः, प्रमुदितो हृष्टो यो वरतुरगः सिंहश्च ताभ्यां सकाशादतिरेकेण अतिशयेन वर्त्तिता वर्तुला कटिर्येषां ते तथा, 'साहय'त्ति संहृतं संक्षिप्तं यत् सोगंदं त्रिकाष्ठिकामध्यं | मुशलं प्रतीतं दर्पणो-दर्पणगण्डो विवक्षितः 'निगरिय'त्ति सर्वधा शोधितं सारीकृतमित्यर्थः यद् वरकनकं तस्य यत् 'छरु'त्ति खङ्गादिमुष्टिः स च ( ततः ) एतद्द्वन्द्वस्तैः सदृशो यः, वरवज्रवद् वलितः क्षामो-वलित्रयोपेतो मध्यभागो येषां ते तथा, गङ्गावर्त्तक इव प्रदक्षिणावर्त्ती- दक्षिणावर्त्ती तरङ्गैरिव तरङ्गैः - तिसृभिर्वलिभिर्भङ्गुरा तरङ्गभङ्गरा रविकिरणैस्तरुणंअभिनवं तत्प्रथमतया तत्कालमित्यर्थः बोधितं विकासितं 'विकोसायंत 'त्ति विगतकोशं कृतं यत् पङ्कजं तद्वत् गम्भीरा विकटा च नाभियेषां ते तथा, 'उज्य०' ऋजुकानां - अवक्राणां समानानामायामादिप्रमाणतः 'सहिय'त्ति संहितानाम्-अविरलानां सुजातानां जात्यानां स्वाभाविकानां तनूनां - सूक्ष्माणां कृष्णानां - कालवर्णानां अथवा कृत्स्नानां - अभिन्नानां | स्निग्धानां कान्तानां आदेयानां - सौभाग्यवतां लडहानां - मनोज्ञानां सुकुमार मृदूनां - अत्यंत कोमलानां रमणीयानां च रोम्णांतनुरुहाणां राजि:- आवलिर्येषां ते तथा झषविहगयोरिव - मत्स्यपक्षिणोरिव सुजाता - सुभूतौ पीनौ - उपचितौ कुक्षी - जठरदेशी येषां ते तथा, 'झषोदरा' इति प्रतीतं पद्मवद् विकटा नाभिर्येषां ते तथा, इदं च विशेषणं न पुनरुक्तं पूर्वोक्तस्य नाभिविशेषणस्य बाहुल्येन पाठादिति, सङ्गतपार्श्वाः-युक्तपार्श्वः सन्नतौ-अधोऽधो नमन्ती पार्श्व येषां ते सन्नतपार्श्वाः अत एव सुन्दरपार्श्वः सुजातपार्श्वाः पार्श्वगुणोपेतपार्श्वः इत्यर्थः मितौ - परिमिता मातृका - मात्रोपती एकार्थपदद्वययोगादतीव मात्रान्वितौ नोचितप्रमाणाद्धीनाधिको पीनौ - उपचितौ रतिदौ- रमणीयौ पाच येषां ते मितमातृकपीनरतिदपार्श्वा इत्यर्थः Pre & Pomonal Use Only ~ 45~ Vejainelibrary.org Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ----------------- मूलं [१४]/गाथा ||४९...|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत वं. प्र. स्वरूप २ [१४]] ॥ ॥४९..|| CARRORESAX यति मांसोपचितत्वादविद्यमानपृष्ठिपाश्वास्थिकमिव कनकरुचकं-काश्चनकान्ति निर्मलं-म्वाभाविकमलरहित||यगलिकआगन्तकमलरहितं च सुजातं-मुनिष्पन्नं निरुपहर्त-रोगादिभिरनुपहतं देह-शरीरं धारयन्ति ये ते तथा, 'पस-I| स्थवत्तीस.'छत्रं १ ध्वजः २ यूपः ३ स्तूपः ४ दामिणी रूढिगम्यं ५ कमण्डलु ६ कलशः ७ वापी ८ स्वस्तिकः । |९ पताका १० यवः ११ मत्स्यः १२ कूर्मः १३ रथवरः १४ मकरध्वजः१५ अङ्को-मृगः १६ स्थालं १७ अङ्कशः १८ चूत-18 फलक १९ स्थापनक २० अमरः २१ लक्ष्म्या अभिषेकः २२ तोरणं २३ मेदिनी २४ समुद्रः २५ प्रधानमन्दिरं २६ गिरि-4 वरः२७ वरदर्पणः२८ लीलायमानगजः२९ वृषभः ३० सिंहः३१ चामरं ३२, एतानि प्रशस्तानि द्वात्रिंशलक्षणानि धारयन्ति ये ते तथा, कनकशिलातलमिव उज्ज्वलं प्रशस्तं समतलं-अविषमरूपं उपचितं-मांसलं विस्तीर्गपृथुलं-अतिविस्तीर्ण वक्षो-18 हृदयं येषां ते तथा, श्रीवत्सेन अङ्कितं वक्षो येषां ते तथा, पुरवरस्य परिघा-अबद्धा अर्गला तद्वत् वर्तितौ-वृत्तौ भुजौ-बाहद येषां ते तथा, भुजगेश्वरो-भुजगराजः तस्य विपुलो-महान् यो भोगः-शरीरं तद्वत् आदीयत इत्यादानः-आदेयो रम्यो यः | परिघा-अर्गलापुच्छत्ति स्वस्थानाद् अवक्षिप्तो-निष्काशितः तद्वच्च दीधी बाहू येषां ते तथा,युगसन्निभौ-यूपसदृशौ पीनौ-181 मांसलो रतिदौ-रमणीयौ पीवरी-महान्ती प्रकोष्ठी-कलाचिकादेशौ, तथा संस्थिताः-संस्थान विशेषवन्तः उपचिताः-सुनि- चिताः घनाः-बहुप्रदेशाः स्थिराः-सुबद्धा स्नायुभिः सुष्टु बद्धाः सुवृताः-अतिशयेन वर्तुलाः सुश्लिष्टा:-सुघनाः लष्टाः-म-1 नोज्ञाः पर्वसन्धयश्च-पर्वास्थिसंधानानि येषां ते तथा, रक्कतली-लोहिताधोभागी 'उबचिय'त्ति औपचयिकौ उपचयनिवृत्तौ उपचितौ वा मृदुको-कोमली मांसवन्ती सुजाती-मुनिष्पन्नौ लक्षणप्रशस्तौ-प्रशस्तस्वस्तिकचक्रगदाशंखकल्पवृक्ष दीप अनुक्रम [६४]] 18 ~ 46~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१४] + ॥४९..|| दीप अनुक्रम [ ६४ ] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + अवचूर्णि:) मूलं [१४] / गाथा ||४९...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: चन्द्रादित्यादिचिह्नौ अच्छिद्रजाली - अविरलाङ्गुलिस मुदाय पाणी-करी येषां ते तथा पीवराः - उपचितां वृत्ता:-वर्तुलाः सुजाता:- सुनिष्पन्नाः कोमलाः वराः अङ्गुल्यः-करशाखा येषां ते तथा ताम्राः - अरुणाः तलिनाः - प्रतलाः शुचयः - पवित्रा रुचिरा - दीप्ताः स्निग्धा - अरूक्षाः नखा-नखराः येषां ते तथा, चन्द्र इव पाणिरेखा- हस्तरेखा येषां ते चन्द्रपाणिरेखाः, एवं सूर्यपाणिरेखाः शंखपाणिरेखाः स्वस्तिकपाणिरेखाः चक्रपाणेरेखाः, एतदेवानन्तरोकं विशेषणपञ्चकं तत्प्रशस्तता. प्रकर्षप्रतिपादनाय सङ्ग्रहवचनेनाह-शशिरविशङ्खचक्रस्वस्तिकरूपाः विभका-विभागवत्यः सुविरचिताः - सुकृताः पाणिषु रेखाः येषां ते तथा, वरमहिषवराहसिंहशार्दूलवृषभनागवरवत् विपुली - प्रतिपूण उन्नती-गी मृदुकौ - कोमलौ द्वौ स्कन्धी येषां ते तथा वरमहिषः-सैरभेयः वराहः - शूकरः शार्दूलो- व्याघ्रः नागवरो-गजवरः, चत्वार्थकुलानि स्वाङ्गुल/पेक्षया सुष्ठु प्रमाणं यस्याः कम्बुवरेण च प्रधानशङ्खेन सदृशी-उन्नतत्ववलित्रययोगाभ्यां समाना ग्रीवा- कण्ठो येषां ते तथा अवस्थितानिन हीयमानानि न वर्द्धमानानि सुविभक्तानि चित्राणि च शोभया अद्भुतभूतानि श्मश्रूणि - कूर्चकेशा येषां ते तथा, मांसलं संस्थितं प्रशस्तं शार्दूलस्येव विपुलं हनु-चिबुकं येषां ते तथा, 'ओयविय'त्ति परिकर्मितं यच्छिला प्रवाल- विद्रुमं बिम्बफलं - गोल्हाफलं तत्सन्निभः- सदृशो रक्तत्वेन अधरोष्ठः- अधस्तनदन्तच्छदो येषां ते तथा, पाण्डुरं यच्छशिशकलं-चन्द्रखण्डं तद्वत् विमल:- आगन्तुकमलरहितः निर्मलः - स्वाभाविकमलरहितो यः शङ्खः तद्वत् गोक्षीरफेनवत् 'कुंद त्ति कुन्दपुष्पवत् दकरजोवद् मृणालिकावत् पद्मिनी मूलवत् धवला दन्तश्रेणिः- दशनपङ्क्तिर्येषां ते तथा, अखण्डदन्ता: - परि पूर्णदशनाः अस्फुटितदन्ताः - राजिरहितदन्ताः अविरलदन्ताः सुखिग्धदन्ताः - अरूक्षदन्ताः सुजातदन्ताः- सुनिप्पन्नद Pre & Pomonal Use Oily ~ 47~ Jainelibrary.org Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --- ------ मूलं [१४]/गाथा ||४९...|| ----------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१४] ||४९.. न्ताः, एको दन्तो यस्या श्रेण्या सा एकदन्ता सा श्रेणिः येषां ते तथा ता इव दन्तानामतिघनत्वादेकदन्तश्रेणिस्तेषामिति युगलिक ॥२३॥ भावः, अनेकदन्ताः द्वात्रिंशद्दन्ता इति भावः, यद्वा एका-एकाकारा दन्तश्रेणियेषां ते एकदन्तश्रेणयः ते इव परस्परं अनुप-| स्वरूपं सू. लक्ष्यमाणदन्तविभागत्वात् अनेके दन्ताः येषां ते अनेकदन्ता,एवं नामाविरलदस्ता यथा अनेकदन्ता अपि सन्तः एकाकारद-12 सन्तपय इव लक्ष्यते इति भावः, हुतवहेन-अग्निना निर्मात-निर्दग्धं धौत-प्रक्षालितमलं तप्तं च-उष्णं यत् तपनीयं-सुव-13 लणविशेषः तद्वत् रक्ततलं-लोहितरूपं तालु च-काकुदं जिह्वा च-रसना येषां ते तथा, 'सर'त्ति अत्र योज्यं सारसवत-प-13 क्षिविशेषवत् मधुरः स्वर:-शब्दो येषां ते तथा, नवमेघवत् गम्भीरः स्वरो येषां ते तथा, कौंचस्य-पक्षिविशेषस्येव नि?पो येषां ते तथा, दुन्दुभिवत्-भेरीवत् स्वरो येषां ते तथा, तत्र स्वर:-शब्दः षड्जः १ ऋषभः २ गान्धार ३ मध्यम४ पञ्चम ५ धैवत ६ निषाद ७ रूपो वा एषां विस्तरस्वरूपं स्थानाङ्गानुयोगद्वारतोऽवगन्तव्यमिति, घण्टानुप्रवृत्तरणितमिव यः शब्दः स घोष उच्यते, नितरां घोषः निर्घोष इति, गरुडस्येव-सुपर्णस्येव आयता-दीर्घा ऋज्वी-सरला तुझा-उन्नता नासा-घोणा येषां ते तथा, अवदालित-रविकिरणैः विकाशितं यत् पुण्डरीकं-सितपद्मं तद्वद् वदनं-मुखं येषां ते तथा । 'कोकासिय'त्ति विकसिते प्रायः प्रमुदितत्वात्तेषां धवले-सिते पुण्डरीके 'पत्रले' पक्ष्मवती अक्षिणी-लोचने येषां ते तथा, आनामितं-पन्नामितं यच्चापं-धनुः तद्वत् रुचिरे-शोभने कृष्णचिकुरराजिसुसंस्थिते कुत्रापि कृष्णा धूराजिः । सुसंस्थिते संगते आयते-दीर्घ सुजाते-सुनिष्पन्ने भ्रवौ येषां ते तथा, आलीनौ नतु टप्परौ प्रमाणयुक्तौ-उपपन्नप्रमाणौ श्रवणी| कौँ येषां ते तथा अत एव सुश्रवणाः सुप्तु श्रवणं-शब्दोपलंभो येषां ते तथा, पीनी-मांसलौ कपोललक्षणौ देशभागी RECORDSCANNA दीप अनुक्रम [६४]] ~ 48~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------- मूलं [१४]/गाथा ||४९...|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१४] ||४९..|| वदनस्यावयवी येषां ते तथा, अचिरोद्गतः समग्रः-सम्पूर्णः सुस्निग्धः चन्द्रः-शशी तस्यार्द्धवत् संस्थितं-संस्थानं यस्य । ललाटस्य तत्तथा तदेवंविधं 'निडाल'त्ति ललाट-भालं येषां ते अचिरोद्गतसमग्रसुस्निग्धचन्द्रार्धसंस्थितललाटाः, उड-13 पतिरिव-चन्द्र इव प्रतिपूर्ण सौम्यं वदनं येषां ते उडुपतिप्रतिपूर्णसौम्यवदनाः, छत्राकारोत्तमाङ्गदेशा इति कण्ठ्यं, घनो-लोह मुद्गरस्तद्वन्निचितं-निविडं यद्वा घन-अतिशयेन निचितं सुबद्धं स्नायुभिः लक्षणोन्नतं-महालक्षणं कूटागारनिर्भ-सशिसाखरभवनतुल्यं निरुपमपिण्डिकेव वर्तुलत्वेन पिण्डिकायमानं अग्रशिरः-शिरोऽयं येषां ते धननिचितसुबद्धलक्षणोन्नत-2 |कूटागारनिभनिरुपमपिण्डिकाप्रशिरसः, हुतबहेन अग्निना निर्मातं धौतं तप्तं च यत्तपनीयं-रक्तवर्णसुवर्णं तद्वत् 'केसंत'त्ति मध्यकेशाः केशभूमिः-मस्तकत्वम् येषां ते हुतवहनिर्मातधौततप्ततपनीयकेशान्तकेशभूमयः, शाल्म-* ली-वृक्षविशेषः स च प्रतीत एव तस्य बोर्ड-फलं तद्वत् छोटिता अपि घना निचिता-अतिशयेन निचिताः शाल्म | ट्रालीबोण्डपननिचितच्छोटिताः, ते हि युगलधार्मिकाः केशपाशं न कुर्वन्ति परिज्ञानाभावात् केवलं छोटिता अपि तथा ||स्वभावतया शाल्मलीबोण्डाकारवत् घननिचिता अवतिष्ठन्ते तत एतद्विशेषणोपादानं, तथा मृदवः-अकर्कशाः विशदा-14 निर्मलाः सूक्ष्माः श्लक्ष्णाः लक्षणा-लक्षणवन्तः प्रशस्ताः-प्रशंसाऽऽस्पदीभूताः सुगन्धयः-परमगन्धकलिताः अत एव सुन्दराः तथा भुजमोचको-रत्नविशेषः भृङ्गः-चतुरिन्द्रियपशिविशेषः नीलो-मरकतमणिः कजलं प्रतीतं प्रहृष्ट:-प्रमुदितो यो भ्रमरगणः प्रहष्टभ्रमरगणः प्रहृष्टो हि भ्रमरगणस्तारुण्यावस्थायां भवति तदानीं चातिकृष्ण इति प्रहृष्टग्रहणं तद्वत् स्निग्धा:-कालकान्तयः भुजमोचकभृङ्गनीलकजलप्रहृष्टभ्रमरगणस्निग्धाः तथा निकुरम्बा:-निकुरम्बीभूताः सन्तः निचिताः। दीप अनुक्रम [६४]] ~ 49~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [१४]/गाथा ||४९...|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत वै.प्रा [१४] ॥२४॥ 2164kSXEST ||४९.. अविकीर्णाः कुचिताः-ईपत्कुटिला प्रदक्षिणावर्ताश्च मूर्धनि शिरोजा:-केशा येषां ते शाल्मलीबोण्डघननिचितच्छो-|| युगलि |टितमृदुविसदप्रस्तसूक्ष्मलक्षणसुगन्धिसुन्दरभुजमोचकभृजनीलकज्जलप्रहृष्टभ्रमरगणस्निग्धनि कुरम्बनिचितप्रदक्षिणावर्त्त- स्वरूपं मूर्धाशरोजसा, लक्षण नि-स्वस्तिकादी/ने व्यञ्जनानि-भपतिल कादीनि गुणा:-क्षान्त्यादय तरूपता-पुकाः लक्षणव्यज-|| नगुणोपपेताः, तथा मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि सुजातानि-जन्मदोषरहितानि सर्वांण्यङ्गानि-अवयवाः यत्र तदेव-| विधं सुन्दरं अङ्गं-शरीरं येषां ते तथा, तत्र मान-जलद्रोगप्रमाणता, सा चैवं-जलभृतकुम्भे प्रमातव्ये पुरुष उपवेशिते यजलं-तोयं निर्गच्छति तद् यदि द्रोणमानं भवति तदा स पुरुषो मानोपपन्न इत्युच्यते, तत्र २५६ पलप्रमाणं द्रोणमा नमिति, उन्मानं-तुलाऽऽरोपितस्यार्द्धभारप्रमाणता, भारमानं यथा-पट्सप्पैर्यवस्वेको, गुजैका च यवैत्रिभिः । गुञ्जात्रपायेण वल्लः स्यात्, गवाणे ते च षोडश ॥१॥ पलञ्च दश गद्याण तेषां साशतैर्मगं । मगैदेशभिरेका च, धटिका कथिता बुधैः॥२॥ धटिभिर्दशभिस्ताभिरेको भारः प्रकीर्तितः" इति, प्रमाणं पुनः आत्माङ्गलेन अष्टोत्तरशताङ्गलो|च्छ्रयता, शशिवत् सौम्य आकारः कान्तं-कमनीयं प्रियं-प्रेमावह दर्शनं च येषां ते तथा, स्वभावत एव शृङ्गार-शृङ्गाररूपं चारु-प्रधानं रूपं-वेपो येषां ते तथा, 'प्रासादीयाः' प्रसादाय-मनःप्रसत्तये हिता तत्कारित्वात् प्रासादीयाः-मन:प्रहृत्तिकारिण इति भावः १ दर्शनीया:-दर्शनयोग्या यान् पश्यतश्चक्षुषी न श्रमं गच्छत इत्यर्थः २ अभि-सर्वेषां द्रष्टणां मनःप्रसादानुकूलतया अभिमुखं रूपं येषां ते अभिरूपाः अत्यन्तकमनीया इति भावः ३ अत एव प्रतिरूपाः प्रति विशिष्टं ॥ २४ ॥ असाधारणं रूपं येषां ते प्रातरूपाः, यद्वा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं येषां ते प्रतिरूपाः, ते मनुष्याः 'ण' वाक्यालकारे दीप अनुक्रम [६४]] JHNEditutio t amil ~50~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [१४]/गाथा ||४९...|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत ACADAM [१४] ||४९..|| 4-%258 ओघः-प्रवाहः तद्वत् स्वरो येषां ते ओघस्वराः, मेघस्येवातिदीर्घः स्वरो येषां ते मेघस्वराः, हंसस्येव मधुरः स्वरो येषां ते हंसस्वराः, क्रौंचस्येवाप्रयासविनिर्गतोऽपि दीर्घदेशव्यापी स्वरो येषां ते क्रौंचस्वराः, नन्दिः-द्वादशतूर्यसङ्घातस्तद्वत् : स्वरो येषां ते नन्दिस्वरा, नन्द्या इव घोपो-नादो येषां ते नन्दिघोषाः, सिंहस्येव प्रभूतदेशव्यापी स्वरो येषां ते सिंहस्वराः सिंहघोषाः मञ्जः-प्रियः स्वरो येषां ते मञ्जस्वराः मञ्जः घोषो येषां ते मञ्जुघोषाः, एतदेव पदद्वयेन व्याचष्टे४सुस्वराः सुस्वरघोषाः, अनुलोमः-अनुकूलो वायुवेगः-शरीरान्तर्वर्तिवातजवो येषां ते अनुलोमवायुवेगाः, वायुगुल्मर-18 साहितोदरमध्यप्रदेशा इति भावः, कङ्क:-पक्षिविशेषः तस्येव ग्रहणिः-गुदाशयो नीरोगवर्चस्कतया येषां ते कङ्कग्रहणयः, कपोतस्येव-पक्षिविशेषस्य परिणाम:-आहारपाको येषां ते कपोतपरिणामाः, कपोतस्य हि जठराग्निः पाषाणलवानपि जर-19 | यतीति श्रुतिः, एवं तेषामपि अत्यर्गलाहारग्रहणेऽपि न जातचिदप्यजीर्णदोषो भवतीति, शकुनेरिव-पक्षिण इव पुरीपो-18 |त्सर्ग निर्लेपतया 'फोसं'ति फोसः-अपानदेशः 'फुस उत्सर्गे' फुसन्ति-पुरीषमुत्सृजन्ति अनेनेति व्युत्पत्तेः, तथा पृष्ठप्रतीतं अन्तरे च-पृष्ठोदरयोरन्तराले पार्थावित्यर्थः ऊरू-जले चेति द्वन्द्वस्ते परिणता-विशिष्टपरिणामवन्तो येषां ते शकुनिष्फोसपृष्ठान्तरोरुपरिणताः, पग-कमलं उत्पलं-नीलोत्पलं यद्वा पग-पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यं उत्पलं च-उत्पल-18 |कुष्ठं तयोः गन्धेन-सौरभेण सदृशः-समो यो निःश्वासस्तेन सुरभि-सुगन्धि वदनं-मुखं येषां ते पद्मोत्पलगन्धसदृश-1 | निःश्वाससुरभिवदनाः 'छवी'ति छविमन्तः उद्दीप्तवर्णया सुकुमालया च त्वचा युक्ता इति भावः, निरातङ्का-नीरोगा इत्यर्थः उत्तमा-उत्तमलक्षणोपेताः प्रशस्ताः अतिशेषा-कर्मभूमिकमनुष्यापेक्षया अतिशायिनी अत एव निरुपमा दीप अनुक्रम [६४]] MOREM -00-%A5% तं.वै.प्र.५ - LJEducatio ~514 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------------- मूलं [१४]/गाथा ||४९...|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत प्र. २५॥ [१४]] ||४९..|| उपमारहिता तनुः-शरीरं येषां ते उत्तमप्रशस्तातिशेषनिरुपमतनवः, एतदेव सविशेषमाह-'जल्लमल'. याति चायुगलिकलगति चेति जल्लः पृषोदरादित्वान्निष्पत्तिः स्वल्पप्रयलापनेयः स चासौ मलश्च जल्लमलः स च कलङ्क च-दुष्टतिलकादिकं स्वरूपं मू. ट्र स्वेदश्च-प्रस्वेदः रजश्च-रेणुः दोषः-मालिन्यकारिणी चेष्टा तेन वर्जितं निरुपलेपं च-मूत्रविष्ठाद्युपलेपरहितं शरीरं येषां ते जल्लमलकलङ्कस्वेदरजोदोषवर्जितनिरुपलेपशरीराः, सूत्रे च निरुपलेपशब्दस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , छायया शरीरप्रभया उद्योतितमहं-शरीरं अंग च-प्रत्यङ्गं येषां ते तथा । वज्रऋषभनाराचं संहननं येषां ते वज्रऋषभनाराच-13 लसंहननाः, समचतुरस्रं च तत् संस्थानं च समचतुरस्रसंस्थानं तेन संस्थिताः समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः, अनयोरने व्याख्या करिष्यामीति, षट् धनुःसहस्राणि अवसर्पिणीप्रथमारकापेक्षया ऊर्ध्वमुच्चत्वेन प्रज्ञप्ता इति, धनुःस्वरूपं जम्बूद्वीपजाप्रज्ञप्तौ यथा-अर्णताणं सुहुमपरमाणुपोग्गलसमुदयसमागमेणं वावहारिए परमाणू णिप्फज्जति, तत्थ णो सत्थं संका मइ, अणंताणं वावहारियपरमाणूणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा उसण्हसण्हियाति वा अठ्ठ उसण्हसण्हियाउ सा४ एगा सहसण्हिया अट्ट सण्हसण्हिया सा एगा उद्धरेणू अट्ट उद्धरेणू सा एगा तसरेणू अह तसरेणू सा एगा रहरेणू अट्ठरहरेणूहिं एगे देवकुरुउत्तरकुराणं मणुयाणं वालग्गे अट्ठ देवकुरुउत्तरकुरुवालग्गा से एगे हरिवासरम्मगवासाणं मणु-12 याणं वालग्गे, एवं रम्मयहेरण्णहेमवएरण्णवयाणं मणुस्साणं पुबविदेह अवरविदेहाणं मणुस्साणं, अठ्ठ पुवविदेहाणं मणुस्साणं वालग्गा सा एगा लिक्खा अट्ठ लिक्खाओ सा एगा जूया अ जूआओ से एगे जवमझे अठ्ठ जवमझे से एगे अंगुले|| ॥२५॥ एतेणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पाओ बारस अंगुलाई वितत्थी चउवीस अंगुलाई रयणी अडयालीसअंगुलाई कुच्छी दीप अनुक्रम [६४]] N ainsibraryana ~52~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) "तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------------- मूलं [१४]/गाथा ||४९...|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१४] ||४९..|| छण्णउअंगुलाई से एगे अक्खेति वा दंडेति वा धणुति वा जुएति वा मुसलेति वा नालियाति वा, एतेणं धणुप्पमा णणं दो धणुस्सहस्साई गाउयमिति । तथा ते प्रथमारकमनुष्याः षट्पञ्चाशदधिकद्विपृष्ठकरण्डकशताः प्रज्ञप्ताः तीर्थमारैरिति, तथा तुबरीप्रमाणाहाराः षण्मासावशेषे आयुषि स्त्रीपुरुषयुगलप्रसवाः एकोनपञ्चाशदिनापत्यपालका दिनत्रये आहारेच्छाः १, द्वितीयारके तु द्विकोशोच्चाः १२८ पृष्ठकरण्डकाः चतुःषष्टिदिनापत्यपालकाः बदरप्रमाणाहारकाः दिनद्वये आहारेच्छवः २, तृतीये अरके क्रोशोच्चाः ६४ पृष्ठकरण्डकाः ७९ दिनापत्यपालकाः आमलकप्रमाणाहारकाः एकान्तराहारेच्छकाः ३, षट्पञ्चाशदन्तीपे तु मनुष्याः अष्टधनुःशतप्रमाणशरीरोच्छ्याः चतुर्थाशिनः चतुःषष्टिपृष्ठकरण्डकाः एकोनाशीतिदिनानि कृतापत्यरक्षाः पल्योपमासंख्येयभागायुषः, तथा सर्वेऽपि युगलजीवाः निजायुःसमे देवे हीनायुषि देवे वा उत्पद्यन्ते, सर्व युगल जीवाः हस्त्यश्वकरभगोमहिप्यादीनां सद्भावेऽपि तत्परिभोग-13 पराङ्मुखाः सत्यपि मणिकनकमौक्तिकादिके ममत्वाभिनिवेशरहिताः युगलक्षेत्रे विस्रसात एव शाल्यादीनि धान्यादीन्युपजायन्ते परं न ते मनुष्यादीनां परिभोगाय, दशमशकयूकादयः चन्द्रसूर्योपरागादयश्च न भवन्तीति । तथा ते मनुष्याः 'ण' वाक्यालङ्कारे प्रकृत्या-स्वभावेन भद्रकाः परानुपतापहेतुकायवाङमनश्चेष्टाः प्रकृत्या-स्वभा वेन न तु परोपदेशतः विनीता:-विनययुक्ताः प्रकृतिविनीताः प्रकृत्या उपशान्ताः प्रकृत्युपशान्ताः प्रकृत्यैव प्रतनवः&|अतिमन्दीभूताः क्रोधमानमायालोभा येषां ते तथा, अत एव मृदु-मनोज्ञं परिणामसुखावहं यन्मादेवं तेन-1 सम्पन्नाः मृदुमादेवसम्पन्नाः न कपटमार्दवोपेता इत्यर्थः, आ-समन्तात् सर्वासु क्रियासु लीना-गुप्ता आलीनाः-नोल्ब SAX दीप अनुक्रम [६४] RECECACCORRECE ~534 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) བྷཡྻོཝཱ + ཝཨྠཡྻ ॥४९..|| “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + अवचूर्णि:) मूलं [१४] / गाथा ||४९...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ॥ २६ ॥ तं. वै. प्र. ४ णचेष्टाकारिण इत्यर्थः भद्रकाः - सकल तत्क्षेत्रोचितकल्याणभाविनः विनीताः - बृहत्पुरुषविनयकरणशीलाः अल्पेच्छाःमणिकन कादिविषयप्रतिबन्धरहिताः अत एव 'असंनि०' न विद्यते सन्निधिरूपः सञ्चयो येषां ते तथा अचण्डा-न तीव्रकोपाः असिमपिकृषिवाणिज्यविवर्जिताः, तत्र अस्युपलक्षिताः सेवकाः पुरुषाः असयः मप्युपलक्षिता लेखनजीविनः मपयः कृषिरिति कृषिकर्मोपजीविनः, वाणिज्यमिति वणिग्जनोचितवाणिज्य कलोपजीविनः एते न भवन्ति तेषां सर्वेषां अहमिन्द्रत्वात् इति, 'विडिमान्तरेषु' कल्पद्रुमशाखान्तरेषु प्रासादाद्याकृतिषु निवसनं-आकालमावासो येषां ते विडिमान्तरनिवासिनः, ईप्सितान् - मनोवाञ्छितान् कामान्-शब्दादीन् कामयन्ते इत्येवंशीलाः ईप्सितकामकामिनः गेहाकारेषु - गृहसदृशेषु वृक्षेषु - कल्पद्रुमेषु कृतो - निष्पादितः निलयः - आवासः यैस्ते गेहाकारवृक्षकृतनिलयाः, गृहाकारकल्पवृक्षसूचनेनान्येऽपि सूचिता द्रष्टव्याः, यदुक्तं प्रवचनसारोद्वारवृत्तौ यथा-मचाङ्गदाः १ भृताङ्गाः २ त्रुटिताङ्गाः ३ दीपाङ्गाः ४ ज्योतिरङ्गाः ५ चित्राङ्गाः ६ चित्ररसाः ७ मण्यङ्गाः ८ गेहाकाराः ९ अनग्नाः १०, तत्र मत्ताङ्गदानां फलानि विशिष्टानि विशिष्टबलवीर्य का न्तिहेतुविस्रसापरिणत सरससुगन्धिविविधपरिपा कागतहृद्यमद्यपरिपूर्णानि टित्वा २ मद्यं मुञ्चन्तीति १, भृताङ्गाः यथेह मणिकनकरजतादिमय विचित्रभाजनानि दृश्यन्ते तथैव विस्रसापरिणतैः स्थालकच्चोलकं सकरकादिभिर्भाजनैरिव फलैरुपशोभमानाः प्रेक्ष्यन्ते २ त्रुटिताङ्गेषु सङ्गतानि सम्यग् यथोक्तरीत्या सम्बद्धानि त्रुटितानि - आतोद्यानि बहुप्रकाराणि ततविततघनशुषिरकाहलकादीनि ३, दीपाङ्गाः यथेह स्निग्धं प्रज्व लन्त्यः काञ्चनमय्यो दीपिका उद्योतं कुर्वाणा दृश्यन्ते तद्वत् दीपाङ्गाः विस्रसापरिणताः प्रकृष्टोदयोतेन सर्वमुद्यो Prate & Pomonal Use Only ~54~ युगलिकस्वरूपं १४ ॥ २६ ॥ jainelibrary.org Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------- मूलं [१४]/गाथा ||४९...|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “तंदुलवैचारिकं” मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१४] ||४९..|| SECRECORRESCORRORSCRECE तयन्तो वर्तन्ते ४, ज्योतिपिकाः सूर्यमण्डलमिव स्वतेजसा सर्वमपि भासयन्तः सन्तीति ५, चित्राङ्गेषु माल्यमनेकप्रकारसरससुरभिनानावर्णकुसुमदामरूपं भवति ६, चित्ररसाः भोजनार्थाय भवन्ति, कोऽर्थः -विशिष्टदलिककलमशालिशालनकाः पक्वान्नप्रभृतिभ्योऽतीवापरिमितस्वादुतादिगुणोपेतेन्द्रियबलपुष्टिहेतुस्वादुभोज्यपदार्थपरिपूर्णैः फलमध्यैविराजमानाश्चित्ररसाः संतिष्ठन्ते इति ७ मण्यङ्गेषु वराणि भूषणानि विस्रसापरिणतानि कटककेयूरकुण्डलादीन्याभरणानि भवन्ति ८, गेहाकारनामकेषु कल्पद्रुमेषु विनसापरिणामत एव प्रांशुप्राकारोपगूढमुखारोहसोपानपतिविचित्रचित्रशालो-12 |चितकान्तानि अनेकसमप्रकटापवरककुट्टिमतलाद्यलङ्कृतानि नानाविधानि निकेतनानि भवन्ति ९, अनग्नेषु कल्पपादपेषु अत्यर्थ बहुप्रकाराणि वस्त्राणि विनसात एवातिसूक्ष्मसुकुमारदेवदूष्यानुकाराणि मनोहारीणि निर्मलानि उपजायन्त | इति १० । 'पुढविपुप्फे ति पृथिवीपुष्पफलाहाराः पृथिवी पुष्पफलानि च कल्पद्रुमाणामाहारो येषां ते तथा, 'ते मणुयगणा'| ते मनुजगणाः-युगलधार्मिकवृन्दाः 'ण' वाक्यालङ्कारे प्रज्ञप्ता जगदीश्वरैः, यदुक्तं जीवाभिगमवृत्ती हे भगवन् ! पृथिव्याः कीदृशः आस्वादः?, भगवानाह-हे गौतम ! यथा गोक्षीरं चातुरक्य-चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तं, तच्चैवं-गवां पुण्डदेशो दवेक्षुचारिणीनां अनातङ्कान कृष्णानां यत्क्षीरं १ तदन्याभ्यः कृष्णगोभ्य एवं यथोक्तगुणाभ्यः पानं दीयते २ तत्क्षी-12 परमप्येवंभूताभ्योऽन्याभ्यः ३ तरक्षीरमप्यन्याभ्यः ४ इति चतुःस्थानपरिणामपर्यन्तं, अन्ये त्वेवमाहुः-पुण्ड्रेक्षुचारिणीनां गवां लक्षस्य क्षीरमद्धार्द्धक्रमेण दीयते यावदेकस्याः क्षीरं तच्चातुरक्यमिति, एवंभूतं यच्चातुरक्यं गोक्षीरं खण्डगुडमत्स्यण्डिकोपनीतं मन्दाग्निकथितं, इतोऽपि पृथिव्याः आस्वादः इष्टतर इति, कल्पपादपसत्कानां पुष्पफलानां तु कीडश आस्वाद:, दीप अनुक्रम SARASHARACTORS [६४]] JatnititALI ~55~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) "तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [१४]/गाथा ||४९...|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत तं. वै. प्र. २७॥ [१४] ॥४९..|| यथा चक्रर्तिनः एकान्तसुखावहं भोजनं लक्षनिष्पन्नं शुभवर्गरसगन्धस्पर्शयुक्तं आस्वादनीयं अग्निवृद्धिकरं उत्साहवृ- संहननसंद्धिकरं मन्मथजनकं, इतोऽपि चक्रवर्तिभोजनादिष्टतर एवास्वाद इति । स्थाने उप| आसी य समणाउसो! पुर्वि मणुयाण छविहे संघयणे, तंजहा-वजरिसहनारायसंघयणे १ रिसहनारायसं०४ देशश्च सू. २ नाराय० ३ अद्धनारायसं० ४ कीलियसं०५ छेवट्टसंघयणे ६, संपइ खलु आउसो! मणुयाणं छेवढे १५गा.५४ संघयणे व आसी य आउसो! पुत्विं मणुयाणं छविहे संठाणे, तंजहा-समचतुरंसे १ नग्गोहपरिम-18 डले २ सादि ३ खुजे ४ वामणे ५ हुंडे ६, संपइ खलु आउसो! मणुयाणं हुंडे संठाणं वइ । (सू०१५) संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च मणुयाणं । अणुसमयं परिहायइ ओसप्पिणिकालदोसेणं ॥१॥ (५०) ४ कोहमयमायलोभा उस्सन्नं वड्डए य मणुयाणं । कूडतुलकूडमाणा तेणऽणुमाणेण सबंति ॥२॥ (५१) है विसमा अन्ज तुलाओ विसमाणि य जणवएसु माणाणि । विसमा रायकुलाइं तेण उ विसमाई वासाइं ॥३॥ (५२) विसमेसु य वासेसुं हुंति असाराई ओसहिबलाई । ओसहिदुबल्लेण य आउं परिहायइ नराणं, ॥४॥ (५३) एवं परिहायमाणे लोए चंदुच्च कालपक्खम्मि । जे धम्मिया मणुस्सा सुजीवियं जीवियं: तसिं ॥५॥ (५४) तथा 'आसी य समणा' आसन हे श्रमण! हे गौतम ! हे आयुष्मन् ! पूर्व मनुजानां पडूविधानि 'संघयणेत्ति सिंहननानि दृढदृढतरादयः शरीरवन्धा इत्यर्थः, तद्यथा-वज्रर्षभनाराचं १ ऋषभनाराचं २ नाराचं ३ अद्धनारार्च ४ दीप अनुक्रम [६५] संघयण-संस्थानयो: सभेद वर्णनं ~56~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१५]/गाथा ||५०-५४|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१५] ॥५० कीलिका ५ सेवाः ६, वज्रादीनां कोऽर्थः ?-ऋषभः-अस्थिद्वयस्यावेष्टकः पट्टः १ वज्रमिव वन-कीलिका २ नाराचंउभयतो मर्कटबन्धः ततो द्वयोरस्नोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्था वेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयभेदि कीलिकाकारं वज्राख्यमस्थियन्त्रं तद्बज्रर्षभनाराचं १ कीलिकारहितं ऋषभनाराचं २ पट्टरहितं केवलमर्कटबन्ध नाराचं ३ यत्रैकपाचे मर्कटवन्धोऽपरपाचे च कीलिका तदर्धनाराचं ४ यत्रास्थीनि च कीलिकामात्रबद्धानि तत्कीलिकाख्यं ५ यत्र चास्थीनि परस्परपर्यन्तसंस्पर्शरूपसेवामात्रेण व्याप्तानि नित्यं स्नेहाभ्यङ्गादिपरिशीलनमपेक्षन्ते तत् सेवया ऋतं-व्याप्तं सेवातं ६, सम्प्रति-इदानीं पञ्चमारके खलु-निश्चये हे आयुष्मन् ! मनुजाना सेवा संहननं वर्तते. तत्र श्रीवी& रात्सप्तत्यधिकशत १७० वर्षे श्रीस्थूलभद्रे स्वर्ग गते चरमाणि चत्वारि पूर्वाणि आद्यसंस्थानमाद्यसंहननं महाप्राणध्यानं च गतं, तथा श्रीवीरात् ५८४ वर्षे श्रीवजे दशमं पूर्व संहननचतुष्कं च गतमिति । तथा आसन हे आयुष्मन् ! पूर्व मनुजानां || पडूविधानि 'संठाणे'त्ति सन्तिष्ठन्ति प्राणिन एभिराकारविशेषैरिति संस्थानानि, तद्यथा-'समचतुरंसे'त्ति सम-नाभे रुपर्यधश्च सकलपुरुषलक्षणोपेतावयवतया तुल्यं तच्च तच्चतुरस्रं च-अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यनयो यस्य तत्समचतुरस्र, अस्रयश्च पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरमासनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं दक्षिणस्कन्धवामजानुनोरन्तरं वामस्कन्धदक्षिणजानुनोश्चान्तरमिति संस्थानं-आकारः समचतुरस्रसंस्थानं १ न्यग्रोधवत् परिमण्डलं यस्य यथा न्यग्रोध उपरि सम्पूर्णप्रमाणोऽधस्तु हीनस्तथा यत् संस्थानं नाभेरुपरि सम्पूर्णमधस्तु न तथा तत् न्यग्रोधपरिमण्डलमुपरिविस्तारबहुलमिति भावः २ आदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते ततः सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमा -५४|| दीप अनुक्रम [६५-७०] ~57~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१५]/गाथा ||५०-५४|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व], प्रकीर्णकसूत्र-[५] "तंदलवैचारिक" मलं एवं विजयविमल गणि कता अवचर्णि: प्रत [१५] देशश्च सू. SC-S ॥५० SC -५४|| तं. वै.प्र.15 णलक्षणेन वर्त्तते इति सादि उत्सेधबहुल मिति भावः, इदमुक्तं भवति यत् संस्थानं नाभेरधः प्रमाणोपपन्नमुपरि 3 संहननस हीनं तत् सादीति ३ यत्र शिरोग्रीवाहस्तपादादिकं यथोक्तप्रमाणलक्षणोपेतं न पृष्ठ युदरादि तत् कुन्जं ४ यत्र पुनरु-दूस्थाने उप॥२८॥ रउदरपृष्ठ्यादिप्रमाणलक्षणोपेतं शिरोग्रीवाहस्तपादादिकं च हीनं तद् वामनं ५ यत्र तु सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्ष-11 णपरिभ्रष्टास्तत् हुंडं ६, सम्प्रति खलु-निश्चये हे आयुष्मन् ! मनुजानां हुण्डं संस्थानं वर्तते, अथोपदेशं ददातीत्याह-19१५ गा.५४ 'संघयण' संहननं संस्थानं शरीरादेरुञ्चत्वम्-उच्छ्यमानं आयुश्च मनुजानां चकारादन्येषां अपि अनुसमय-समयं समय प्रति परिहीयते अवसर्पिणीकालदोषेणेति ॥१॥'कोहमा' क्रोधमानमायालोभाश्च उस्सन्न-प्रवाहेण वर्धन्ते-पूर्वमनुष्यापेक्षया विशेषतो वर्धन्ते, मनुष्याणां कूटतुलानि-कूटतोलनाद्युपकरणानि कूटमानानि-कूटकुडवप्रस्थादिमानानि च वर्द्ध-17 |न्ते तेन कूटतुलादिनाऽनुमानेन-अनुसारेण 'सर्व'ति ऋयाणकवाणिज्यादिकं कूटं बर्द्धते इति ॥२॥ 'विस' विषमाः 8| अर्पणायान्याः ग्रहणायान्याश्च अद्य दुष्पमाकाले तुला तथा जनपदेषु-मगधादिदेशेषु मानानि-कुडवसेतिकादिप्रमा-1टू प्रणानि विषमाणि-असमानि जातानि, चशब्दादनेकप्रकारवञ्चनानि, तथा विषमाणि-अनेकान्यायकारकाणि राजकु-14 लानि वर्तन्ते, अथ तेन कारणेन तुशब्दोऽप्यर्थः वर्षाण्यपि-संवत्सराण्यपि विषमाणि-दुःखरूपाणि जातानीति ॥३॥ 'विसमे' विपमेषु वर्षेषु सत्सु भवन्ति असाराणि-सारवर्जितानि औषधिषलानि-गोधूमादिवीर्याणि, औषधिदुर्बलत्वेन|81 नराणामन्येषामपि आयु:-जीवितं परिहीयते-शीघ्र क्षीयते इति ॥४॥ 'एवं' एवमुक्तप्रकारेण परिहीयमाने लोके कृष्ण दीप अनुक्रम [६५-७०] 645440 Jiantrik ~58~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१५]/गाथा ||५०-५४|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१५] ॥५० पक्षे चन्द्रवत् ये धार्मिकाः-धर्मयुक्ताः मनुष्यास्तेषां जीवितं-जीवितकालः सुजीवित-सुष्टु जीवितं ज्ञातव्यमिति ॥ ५॥ अथ शतवर्षायुःपुरुषस्य कियंतो युगायनादयो भवन्तीति दर्शयन्नाह| आउसो ! से जहा नाम ए केइ पुरिसे पहाए कयवलिकम्मे कयकोऊयमंगलपायच्छिते सिरसि पहाए कंठे& मालाकडे आविद्धमणिसुबन्ने अहयसुमहग्घवत्थपरिहिए चंदणोक्किन्नगायसरीरे सरससुरहिगंधगोसीसचंदणा|णुलित्तगत्ते सुइमालावन्नगविलेवणे कप्पियहारद्धहारतिसरयपालंबपलंबमाणे कडिसुत्तयसुकयसोहे पिणद्धगे विजअंगुलिजगललियंगयललिघकयाभरणे नाणामणिकणगरयणकडगतुडियर्थभियभुए अहियरूवसस्सिरीए है| कुंडलुजोवियाणणे मउडदिन्नसिरए हारुत्थयसुकयरइयवच्छे पालंबपलबमाणसुकयपडउत्तरिजे मुद्दियापिं गलंगुलिए नाणामणिकणगरयणविमलमहरिहनिउणोवियमिसिमिसंतविरइयसुसिलट्ठविसिट्टलहआविद्धवीरवलए, किं बहुणा ? कप्परुक्खोविय अलंकियविभूसिए सुइपयए भवित्ता अम्मापियरो अभिवाद |विजा ॥ तए णं तं पुरिसं अम्मापियरो एवं वइजा-जीव पुत्ता ! वाससयंति, तंपियाई तस्स नो बहुयं भवइ, कम्हा ?, वाससयं जीवंतो वीसं जुगाई जीवइ, वीसई जुगाई जीवंतो दो अयणसयाई जीवइ, दो अयणसयाई जीवंतो छ उउसयाई जीवइ, छ उऊसयाई जीवंतो बारस माससयाई जीवइ, बारस माससयाई जीवंतो चउचीसं पक्खसयाई जीवइ, चउवीसं पक्खसयाई जीवन्तो छत्तीसं राईदियसहस्साई जीवह, छत्तीसं राईदियसहस्साई जीवंतो दस असीयाई मुहुत्तसयसहस्साई जीवह, दस असीयाई मुहुत्त -५४|| ACCORRECASCARSA CALCALCULAAAAESTHA दीप अनुक्रम [६५-७० JHNEducational मनुष्यायुः एवं तन्दुल-संख्या गणना ~59~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१६] ॥५४..॥ दीप अनुक्रम [७१] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं + अवचूर्णि:) मूलं [ १६ ] / गाथा || ५४...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं. वै. प्र. सयसहस्साइं जीवंतो चत्तारि उस्सासकोडीसए सत्त य कोडीओ अडयालीसं च सयसहस्साइं चत्तालीसं च सहस्साई जीवइ, चत्तारि ऊसासकोडीसए जाब चत्तालीसं च ऊसाससहस्साइं जीवंतो अद्धतेवीसं ॥ २९ ॥ तंडुलाहे भुंजइ ॥ कहमाउसो ! अद्धतेवीसं तंदुलवाहे भुंजइ । गोयमा ! दुब्बलाए खंडियाणं बलियाए छडियाणं खपरमुसलपचायाणं ववगयतुसकणियाणं अखंडाणं अफुडियाणं फलगसरियाणं एकेकबीयाणं अडतेरसपलियाणं पत्थरणं, सेवियणं पत्थर मागहए कलं पत्थो सायं पत्थो चडसट्टी तंदुलसाहस्सीओ मागहओ पत्थओ बिसाहस्सिएणं कवलेणं बत्तीसं कवला पुरिसस्स आहारो अट्ठावीस इत्थीयाए चवीसं पंडगस्स, एवामेव आउसो ! एयाए गगणाए दो असइओ पसई दो पसईओ सेहआ होइ चत्तारि सेइआ कुलओ चत्तारि कुलया पत्थो चत्तारि पत्था आढगं सट्टीए आढयाण जहणए कुंभे असीइए आढ याणं मज्झिमे कुंभे आढयसयं उक्कोसए कुंभे अहेव आढगसयाणि वाहो, एएणं बाहप्पमाणेणं अद्धतेवीसं तंदुलबाहे भुंजइ ॥ "आउसो ! से जहा' हे आयुष्मन् ! स यथानामको यत्प्रकारनामा देवदत्तादिनामेत्यर्थः, अथवा 'से' इति सः यथेति दृष्टान्तार्थः नामेति सम्भावनायां ए इति वाक्यालङ्कारे कश्चित् पुरुषः स्नातः - कृतस्नानः स्नानानन्तरं कृतं निष्पा दितं बलिकर्म - स्वगृहदेवतानां पूजा येन सः कृतवलिकर्म्मा, तथा कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तार्थं - दुःस्वप्नादि - विघातार्थमवश्यं करणीयत्वाद्येन स तथा तत्र कौतुकानि-मपीतिलकादीनि मङ्गलानि तु सिद्धार्थकदध्यक्ष तदूर्वाङ्कुरा Fur Prate & Pemonal Use Only ~60~ % तन्दुलादिगणना सू. १६ ॥ २९ ॥ jainelibrary.org Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------- मूलं [१६]/गाथा ||५४...|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१६] ||५४..|| दीनि, शिरसि-उत्तमाङ्ग स्नातः-कृतस्नानः, पूर्व देशस्नानमुक्तमिह तु सर्वस्नानमिति न पौनरुत्यं, कण्ठे-ग्रीवायां 'माल-|| कडे'त्ति कृता माला-पुष्पमाला येन स कृतमालः प्राकृतत्वात् 'मालकडेत्ति, आविद्धानि-परिहितानि मणिसुवर्णानि येन स तथा, तत्र 'मणि'त्ति मणिमयानि भूषणानि एवं सुवर्णमयानीति, अहतं-मलमूषकादिभिरनुपहृतं प्रत्यग्रमित्यर्थः सुमहाय॑ बहुमूल्यं वस्त्रं परिहितं येन स तथा, चन्दनेन-श्रीखण्डेनोत्कीर्ण-चर्चितं गात्रं-शरीरं येन स तथा, सरसेन-रसयुक्तेन सुरभिगन्धेन-सुप्ठ गन्धयुक्तेन गोशीपचन्दनेन-हरिचन्दनेन 'अन्विति' अतिशयेन लिप्तं-विले-18 लापनरूपं कृतं गात्रं-शरीरं यस्य स तथा, शुचिनी-पवित्रे माला-पुष्पमाला वर्णकं विलेपनं च-मण्डनकारि कुङ्कमादि || विलेपनं यस्य स तथा, कल्पितो-विन्यस्तो हार:-अष्टादशसरिकोऽर्धहारो-नवसरिक: त्रिसरक-प्रतीतमेव यस्य स तथा,* प्रालंबो-झुम्बनकं प्रलम्बमानो यस्य स तथा, कटिसूत्रेण-कव्याभरणविशेषेण सुलु कृता शोभा यस्य स तथा, ततः पदत्र-12 यस्य कर्मधारयः, अथवा कल्पितहारादिभिः सुष्टु कृता शोभा यस्य स तथा, पिनद्धानि-परिहितानि |वेयकाङ्गलीयकानि कण्ठकाख्योर्मिकाख्यानि येन स तथा, तथा 'ललियंगय'त्ति ललिताङ्गके-शोभमानशरीरे अन्यान्यपि ललितानि-शोभनानि कृतानि-न्यस्तानि आभरणानि-सारभूषणानि यस्य स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, नानामणिकनकरत्नानां कटकत्रुटिकैः-हस्तबाहाभरणविशेषैः बहुत्वात् स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ यस्य स तथा, अधिकरूपेण सश्रीकः-सशोभो यः स तथा, कुण्डलाभ्यां-कर्णाभरणाभ्यामुद्योतित-उद्योतं प्रापितमाननं-मुखं यस्य स तथा, मुकुटदीप्तशिरस्का, हारेणावस्तृत-आच्छादितं तेनैव सुष्टु कृतं रतिदं च वक्ष:-उरो यस्यासौ हारावस्तृतसुकृतरतिदवक्षाः (क्षसः), प्रलम्बेन-दीर्घेण| दीप अनुक्रम [७१] CASSAR ~61~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [१६]/गाथा ||१४...|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: १६ IPE ||५४..|| वै. प्र.15 प्रलम्बमानेन च सुषु कृतं पटेन तु उत्तरीयं-उत्तरासङ्गो येन स तथा, मुद्रिकाः-अङ्गल्याभरणानि ताभिः पिङ्गला:-कपिला| तन्दुलादि अङ्गलयो यस्य स तथा, नानामणिकनकरलैर्विमलानि-विगतमलानि महाहाणि-महा_णि निपुणेन शिल्पिना 'उविय'त्ति गणना सू. परिकर्मितानि 'मिसिमिसिंत'त्ति दीप्यमानानि यानि विरचितानि-निवृत्तानि सुश्लिष्टानि-सुसन्धीनि विशिष्टानिअन्येभ्यो विशेषवन्ति लष्टानि-मनोहराणि आविद्धानि-परिहितानि बीरवलयानि येन स तथा, सुभटो हि यदि कश्चिद-15 न्योऽप्यस्ति वीरव्रतधारी तदा असौ मां विजित्य मोचयत्वेतानि वलयानीति स्पर्धयन् यानि कटकानि परिदधाति तानि वीरवलयानीत्युच्यन्ते, किंबहुना वर्णितेनेति शेषः, कल्पवृक्ष इवालङ्कतो दलादिभिर्विभूषितश्च फलादिभिः एवमसावपि मुकुटादिभिरलङ्कतो विभूषितश्च भवति वस्त्रादिभिरिति, शुविपदं-पवित्रस्थानमित्यर्थः, भूत्वा भूयः अम्बापितरौ-मातापि-15 तरावभिवादयते-पादयोः प्रणिपातं करोतीत्यर्थः। ततः-अभिवादनानन्तरं 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे तं पुरुष-स्वपुत्र-टू लक्षणं मातापितरौ एवं वदेतां-कथयता इत्यर्थः-हे पुत्र ! त्वं जीव वर्षशतमिति, अथ यदि तस्य पुत्रस्य वर्षशतप्रमाणमायुः ४ स्यात् तदास जीवति नान्यथेति, तदपिच आयुः 'आईति अलङ्कारे तस्य-वर्षशतायुःपुरुषस्य न बहुक-वर्षशताधिकं भवति, दाकस्मात् ?, यस्मादू वर्षशतं जीवन विंशतियुगान्येव जीवति निरुपक्रमायुष्कत्वात् , तत्र युग-चन्द्रादिवर्षपश्चात्मकमिति, विंशतियुगानि जीवन् पुरुषः द्वे अयनशते जीवति, तत्रायनं षण्मासात्मकमिति २ द्वे अयनशते जीवञ्जीवः पड ऋतुशतानि जीवति, तत्र ः मासद्वयात्मकः ३ पडू ऋतुशतानि जीवन् जन्तुादश मासशतानि जीवति द्वादश 3॥३०॥ मासशतानि जीवन् प्राणी चतुर्विंशतिपक्षशतानि जीवति २४०० चतुर्विशतिपक्षशतानि जीवन पत्रिंशदहो| दीप अनुक्रम [७१] SADAKAASACARROCRACK N ainsibraryana ~62~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------- मूलं [१६]/गाथा ||५४...|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१६] SCSC46- 46- ||५४..|| रात्रसहस्राणि जीवति सत्त्वः ३६०००,६ पत्रिंशदहोरात्रसहस्राणि जीवन असुमान् दश मुहर्तलक्षाण्यशीतिमुहर्तसहस्राणि १०८०००० (च) जीवति ७ दशलक्षमुहूर्ताण्यशीतिमुहर्तसहस्राणि (च) जीवन् देहधारी चत्वार्युच्छ्वासकोटिशतानि सप्तकोटीः अष्टचत्वारिंशच्छतसहस्राणि चत्वारिंशत्सहस्राणि च जीवति देहभृत् ४०७४८४००००, ८ चत्वार्युच्छासकोटिशतानि यावच्चत्वारिंशदुच्छ्वाससहस्राणि जीवन साधद्वाविंशति तन्दुलवाहान् वक्ष्यमाणस्वरूपान् भुनक्ति। कथम् ?-हे आयुष्मन् ! हे सिद्धार्थनन्दन ! सार्धद्वाविंशतितन्दुलवाहान भुनक्ति संसारीति ?, हे गौतम! दुर्बलिकया स्त्रिया खण्डितानां बलवत्या रामया छटितानां सूपादिना खदिरमुशलप्रत्याहतानामपगततुषकणिकानामखण्डाना-सम्पू वयवानामस्फुटितानां-राजिरहितानां 'फलगसरियाणं ति फलकविनीतानां कर्करादिकर्षणेनकैकवीजानां वीननार्थ पृथक् पृथकृतानामित्यर्थः, एवंविधानां सार्धद्वादशपलानां तन्दुलानां प्रस्थ को भवति, 'ण' वाक्यालङ्कारे, पलमानं यथापञ्चभिर्गुजाभिर्माषः पोडशमापैः कर्षः अशीतिगुजाप्रमाण इत्यर्थः स यदि कनकस्य तदा सुवर्गसंज्ञः नान्यस्य रजतादेरिति, चतुर्भिः कषैः पलमिति विंशत्यधिकशतत्रयगुजाप्रमाणमित्यर्थः ३२०, सोऽपि च प्रस्थकः मगधे भवो मागध इत्युच्यते, 'कल्लं'तिश्वः प्रातःकाल इत्यर्थः, प्रस्थो भवति भोजनायेति १ 'साय'मिति सन्ध्यायां प्रस्थो भोजनायेति २। १ एकस्मिन् मागधके प्रस्थके कति तन्दुला भवन्तीत्याह-'चउसट्टि' चतुःषष्टितन्दुलसाहनिको मागधः प्रस्थो भवत्येका, एकः कवलः कतिभिः तन्दुलैः स्यादित्याह-'बिसाहस्सिएणं कवलेणं'ति द्विसाहनिकेण तन्दुलेन कवलो भवति, तत्र गुञ्जाः | कति भवन्ति ?, यथा-एकविंशत्यधिकशतप्रमाणाः किश्चिन्यूना एका गुजा चेति, अनेन कवलमानेन पुरुषस्य द्वात्रिंशत्क दीप अनुक्रम [७१] MASCNOR ~634 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) . ----- मूलं [१६]/गाथा ||५४...|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: १६ ||५४..|| तं. वै. प्र. वलरूप आहारो भवति १ स्त्रिया अष्टाविंशतिकवलरूप आहारः २ पण्डकस्य-नपुंसकस्य चतुर्विंशतिकवलरूप आहारः ३|तन्दुलादि 'एवामेव'त्ति उक्तप्रकारेण वक्ष्यमाणप्रकारेण च हे आयुष्मन् ! एतया गणनया एतापूर्वोक्तं मानं भवति ॥ अथासत्यादि- गणना सू. ॥३१॥ ४मानपूर्वकमष्टाविंशतिसहस्राधिकलक्षतन्दुलमानं चतुःपष्टिकवलप्रमाणं एवंविधं प्रस्थद्वयं प्रतिदिनं भुञ्जन् शतवर्षेण कति & तन्दुलवाहान कति तन्दुलांश्च भुनक्तीत्याह-'दो असई उ पसई'इत्यादि, धान्यभृतोऽवाचुखीकृतो हस्तोऽसतीत्युच्यते | द्वाभ्यामसतीभ्यां प्रसुतिः १ द्वाभ्यां प्रसूतिभ्यां सेतिका भवति २ चतसृभिः सेतिकाभिः कुडवः ३ चतुर्भिः कुडवैः प्रस्थः ४ चतुर्भिः प्रस्थैराढकः ५ पट्याऽऽढकैजघन्यकुम्भः ६ अशी त्याऽऽढकैमध्यमकुम्भः ७ आढकशतेनोत्कृष्टः कुम्भः ८, अष्ट&ाभिराढकशाहो भवति ९, अनेन वाहप्रमाणेन साधद्वाविंशतिं तन्दुलवाहान् भुनक्ति वर्षशतेनेति । | ते य गणियनिहिट्ठा-चत्तारि य कोडिसया सहि चेव य हवंति कोडीओ । असीइं च तंदुलसयसहस्सा हवंतित्तिमक्खायं ४६०८००००००॥१॥५॥तं एवं अद्धतेवीसं तंदुल बाहे भुजंतो अद्धछट्टे मुग्गकुंभे धुंजइ, अद्धछट्टे मुग्गकुंभे झुंजतो चउवीसं नेहाढगसयाई भुंजइ, चवीसं नेहाढगसयाई भुजंतो छत्तीसं लवणपलसहस्साई भुंजइ, छत्तीसं लवणपलसहस्साई भुंजतो छप्पडगसाडगसयाई नियंसेइ दोमासिएण परियट्टएणं मासिएण वा परियट्टेणं बारस पडसाडगसयाई नियंसेइ, एवामेव आउसो! वाससयाउयस्स सवं गणियं तुलियं मवियं नेहलवणभोयणच्छायणपि ॥ एयं गणियप्पमाणं दुविहं भणियं महरिसीहिं, जस्सत्थि ॥ ३१॥ X तस्स गुणिज्जइ जस्स नत्थि तस्स किं गणिज्जइ? ॥ दीप अनुक्रम ARC-RRC-SCRECR [७१] H ainsibraryana ~64~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---- ----------- मूलं [१६]/गाथा ||५५|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: - -- ||५|| ४ तांश्च वाहप्रमाणतन्दुलान् गणयित्वा-सयां कृत्वा निर्दिष्टाः-कथिताः,यथा-चत्वारि कोटिशतानि पष्टिश्चैव कोटयः अशी-| &ातिस्तन्दुलशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं-कथितं १, कथं, एकेन प्रस्थेन चतुःषष्टितन्दुलसहस्राणि भवन्ति, प्रस्थद्वयेनाष्टाविं शतिसहस्राधिकं लक्षं भवति, प्रतिदिनं द्विभॊजनेन उक्तप्रमाणान् तन्दुलान् भुंक्के इति, कथं अष्टाविंशतिसहस्राधिकलक्षं ? वर्षशतस्य पत्रिंशदिनसहस्रमानत्वात् पत्रिंशत्सहस्रगुण्यन्ते ४६०८ शून्यानि पञ्च भवन्ति, चत्वारि कोटिशतानि | पष्टिः कोटयः अशीतिर्लक्षाणि तन्दलानामिति । 'तं एवं ति तदेवं सार्धद्वाविंशति तन्दुलवाहान भुञ्जानः सार्धपश्चमुगकु-13 म्भान् भुंक्ते सार्धपञ्चं मुद्ग कुंभान् भुञ्जन् चतुर्विंशति स्नेहाढकशतानि भुक्ते चतुर्विंशतिस्नेहाढकशतानि भुञ्जन् पत्रिंशल्ल-17 वणपलसहस्राणि भुनक्ति, पत्रिंशल्लवणपलसहस्राणि भुञ्जन षट् पट्टकशाटकशतानि 'नियंसेइ'त्ति परिदधाति, द्वाभ्यां | मासाभ्यां परियट्टएणं'ति परावर्त्तमानत्वेनेति वा अथवा मासिकेन परावर्त्तनेन द्वादश पट्टशाटकशतानि 'नियंसेइ'त्ति परिदधाति, एवामेवेति उक्तप्रकारेण हे आयुष्मन् ! वर्षशतायुषः पुरुषस्य सर्वं गणितं तन्दुलप्रमाणादिना तुलितं पलप्रमा-2 Xणादिनामवितमसतिप्रसृत्यादिना प्रमाणेन, तत् किमित्याह?-स्नेहलवणभोजनाच्छादनमिति । एतत् पूर्वोक्तं गणितप्रमाणं |४ द्विधा भणितं महर्षिभिः, यस्य जन्तोरस्ति तन्दुलादिकं तस्य गुण्यते, यस्य तु नास्ति तस्य किं गुण्यते ?, न किमपीति । । ववहारगणियदिढ सुहुमं निच्छयगयं मुणेयचं । जइ एयं नवि एवं विसमा गणणा मुणेयवा ॥१॥ (५६) कालो परमनिरुज्डो अविभज्जो तं तु जाण समयं तु । समया य असंखिजा हवंति उस्सासनिस्सासे ॥२॥ (५७) हवस्स अणवगल्लस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति | दीप अनुक्रम [७२-७३]] | अथ उच्छवास आदीनां गणना प्रकाश्यते ~65M Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------- मूलं [१६.../गाथा ||५६-८२|| ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत मत्राका उच्छासा दिगणना [१६] ||५६ -८२|| इवचड ॥३॥ (५८) सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लथे। लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहत्ते। [वियाहिए ॥ ४ ॥ (५९) एगमेगस्स णं भंते ! मुहुत्तस्स केवइया ऊसासा वियाहिया ?, गोयमा !-तिन्नि सहस्सा सत्त य सयाण तेवतरिं च ऊसासा । एस मुहुत्तो भणिओ सबहिं अर्थतनाणीहिं ॥५॥ (६०) गा.८२ दो नालिया मुहुत्तो सहि पुण नालिया अहोरत्तो । पन्नरस अहोरत्ता पक्खो पक्खा दुवे मासो ॥६॥ (६१) दाडिमपुप्फागारा लोहमई नालिया उ कायदा । तीसे तलंमि छिई छिद्दपमाणं पुणो बुच्छं ॥७॥ (६२) छन्नउइपुच्छवाला तिवासजाया' गोतिहाणीए । असंवलिया उजा य नायचं नालियाछिदं ॥८॥ (६३) अहवा उ पुच्छवाला दुवासजाया गयकरेणूए । दो वाला अग्भग्गा नायचं नालियाछिदं ॥९॥(६४ अहवा सुवन्नमासा चत्तारि सुवटिया घणा सूई। चउरंगुलप्पमाणा नायचं नालियाच्छिदं ॥१०॥ (६५) उदगस्स नालियाए हवंति दो आढयाओ परिमाणं । उदगं च भाणियत्वं जारिसयं तं पुणो वुच्छं ॥११॥13 (६६) उदगं खलु नायचं कायचं दूसपट्टपरिपूयं । मेहोदगं पसन्नं सारइयं वा गिरिनईए ॥१२॥ (६७) बारसमासा संवच्छरो य पक्खाउ ते उ चउवीसं । तिन्नेव य सढिसया हवंति राइंदियाणं च ॥१३ ॥ (६८) एगं च सयसहस्सं तेरस चेव य भवे सहस्साई । एगं च सयं नउयं हुंति अहोरत्त ऊसासा ॥१४॥ (६९)18 तित्तीस सयसहस्सा पंचाणउई भवे सहस्साई । सत्त य सया अणूणा हवंति मासेण ऊसासा ॥ १५॥ (७०) ॥३२॥ #चत्तारि य कोडीओ सत्तेव य हुंति सयसहस्साई । अडयालीससहस्सा चत्तारि सया य परिसेण ॥१६॥ GAOCALCARDCOCADCASCACANCC दीप अनुक्रम [७४ -१०२ ~66~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१६] ||५६ -८२|| दीप अनुक्रम [७४ -१०२] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णिः) मूलं [ १६... ]/ गाथा || ५६-८२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: Jass Education (७१) चत्तारि य कोडिसया सत्त य कोडिओ हुंति अवराओ । अडयाल सयसहस्सा चत्तालीसं सहस्साइं ॥ १७ ॥ ( ७२ ) वासस्याउस्सेए उस्सासः इत्तिया मुणेयवा । पिच्छह आउस्स खयं अहोनिसं झिज्झमाणस्स ॥ १८ ॥ ( ७३ ) राईदिएण तीसं तु मुहत्ता नव सयाई मासेणं । हायंति पमत्ताणं न णं अबुहा बियाणंति ॥ १९ ॥ (७४) तिन्नि सहस्से सगले छच सए उडवरो हरइ आउं । हेमन्ते गिम्हासु य वासासु य होइ नाथवं ॥ २० ॥ (७५) वासस्यं परमाऊ इसी पन्नास हर निदाए । इतो वीसह हावर बालते बुद्धभावे य ॥ २१ ॥ ( ७६) सीउण्हपंथगमणे खुहापिवासा भयं च सोगे य । नाणाविहा य रोगा हवंति तीसाइ पच्छद्धे ॥ २२ ॥ (७७) एवं पंचासीई नट्ठा पण्णरसमेव जीवंति। जे हुंति वाससइया न य सुलहा वाससयजीवा ॥ २३ ॥ ( ७८ ) एवं निस्सारे माणुसत्तणे जीविए अहिवडते । न करेह चरणधम्मं पच्छा पच्छाणुताहा ॥ २४ ॥ ( ७९) घुमि सयं मोहे जिणेहिं वरधम्मतित्थमग्गस्स । अत्ताणं च न याणह इह 8 जाया कम्मभूमीए ॥ २५ ॥ ( ८० ) नइवेगसमं चंचलं जीवियं जुवणं च कुसुमसमं । सुक्खं च जमनियत्तं | तिन्निवि तुरमाणभुजाई ।। २६ ।। ( ८१ ) एयं खु जरामरणं परिक्खिवड़ वग्गुरा व मयजूहं । न य णं पिच्छह पत्तं संमूढा मोहजालेणं ॥ २७ ॥ ( ८२) 'ववहार'गाथा, व्यवहारगणितं एतद् दृष्टं स्थूलन्याय मङ्गीकृत्य कथितं मुनिभिः सूक्ष्मं सूक्ष्मगणितं निश्चयगतं ज्ञातव्यं, | यद्येतन्निश्चयगतं भवति तदैतद् व्यवहारगणितं नास्त्येव, अतो विषमा गणना ज्ञातव्येति ॥ १ ॥ अथ पूर्वोक्तं समयादि For Pale & Pomonal Use Only ~67~ jainelibrary.org Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------- मूलं [१६.../गाथा ||५६-८२|| ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत ACY तं. [१६] ||५६ -८२|| स्वरूपमाह-कालो' यः कालः परमनिरुद्धः-अत्यन्तसूक्ष्मः अविभाज्यो-विभागीक मशक्यस्तमेव कालं-समयं जानीहि उच्छासात्वं, चशब्दादसङ्ग्यसमयात्मिकाऽऽवलिकाऽपि ज्ञेया, एकस्मिन्निःश्वासोच्छासेऽसङ्ख्याः समया भवन्ति ॥ २॥ 'हट्ठा दिगणना हृष्टस्य-समर्थस्य 'अणवगल्लस्से'ति रोगरहितस्य 'निरुवकिट्ठस्से'ति क्लेशरहितस्य जन्तोः-जीवस्यैको निःश्वासोच्छासः एषः गा.८२ प्राण इत्युच्यते इति ॥३॥ 'सत्त०' सप्तभिः प्राणैः स स्तोकः कथ्यते, सप्तभिः स्तोकैः स लवः कथ्यते, लवानां सप्त| सप्तत्या एप मुहत्तों व्याख्यातः ॥४॥ 'एगमे०' एकैकस्य हे भदन्त ! मुहूर्तस्य कियन्त उपहासा व्याख्याता, हे गौतम!| |'तिन्निगाहा, त्रिभिः सहस्रः सप्तभिः शतैः त्रिसप्तत्योच्छासैः ३७७३ एष मुहर्तो भणितः सर्वैरनन्तज्ञानिभिः ॥५॥ दो नालि.' द्वाभ्यां नालिकाभ्यां-घटिकाभ्यां मुहतः स्यात्, षष्ट्या नालिकाभिरहोरात्रः, पश्चदशभिरहोरात्रैः पक्षः, द्वाभ्यां पक्षाभ्यां मास इति भावार्थः ॥६॥ अथ उक्तनालिकायाः-स्वरूपमाह-दाडिमेति दाडिमपुष्पाकारा लोहमयी नालिका-घटिका कर्त्तव्या भवति, तस्या नालिकायातले-अधोभागे छिद्र-रन्धं कृतं भवति, छिद्रप्रमाणं पुनः वक्ष्ये। |शिष्यज्ञानायेति ॥७॥'छन्नति पण्णवतिपुच्छवाला-लामुलकेशाः, कस्याः-'गोतिहाणीए'त्ति गोवच्छिकायाः, किंभू-11 |तायाः -तिवासजायाए'त्ति त्रिवर्षजातायाः, जन्मतो वर्षत्रयाणि जातानीत्यर्थः, किंभूताः फेशाः?-असंवलिताः न |खितानखिटिकाकारा जाताः, अत एव ऋजुका:-सरलाः एषां वालानां घनमेकीभूतानां यादृशं प्रमाणं भवति तादृशं ॥३३॥ नालिकाच्छिद्रं ज्ञातव्यमिति ॥ ८॥'अहवा' अथवा पुच्छवालौ द्वौ, कस्याः ?-'गयकरेणूए'त्ति गजकलभिकायाः, किंभूताया ?-द्विवर्षजातायाः, किंभूतौ वालौ ?-अभनौ, अनेन वालद्वयमानेन नालिकाच्छिद्रं ज्ञातव्यमिति ॥९॥'अह दीप अनुक्रम [७४ PRACRECORRECR - -१०२ - - ~68~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१६]/गाथा ||५६-८२|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[५] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१६] ||५६ -८२|| &चा सु०' अथवा चतुर्णा स्वर्णमाषाणां सूचिर्भवति, किंभूता सूचिः ?-सु-अतिशयेन वर्तिता-वर्नुलीकृता सुवर्तिता धना| निबिडा चतुरङ्गुलप्रमाणा, तत्र माषमानं पञ्चगुञ्जाप्रमाणमित्युक्तप्रमाणेन नालिकाच्छिद्रं ज्ञातव्यमिति ॥१०॥ इत्युक्तं । घटिकाच्छिद्रप्रमाणम् । अथ घव्यां जलप्रमाणमाह-उदगस्सनालिकायां-घटिकायामुदकस्य-जलस्य प्रमाणं द्वावाढको | |भवतः, उदकं यादृशं भणितव्यं भवति तत्तादृशं पुनर्वक्ष्ये इति ॥१॥'जारिसयं तं उदक-जलं खलु-निश्चये ज्ञातव्य || | कर्त्तव्यं चेति, कीदृशं कर्तव्यमित्याह-'दूसपढ०' दूष्यपरिपूर्त,वस्त्रगलितमित्यर्थः, मेघोदकं प्रसन्नमिति निर्मलं,वा-अथवा 'सारयति शरत्कालोद्भवं आश्विनकार्तिकोद्भवं यद् गिरिनद्या उदकं ज्ञातव्यं,तच्च स्वभावेन निर्मलं भवतीति ॥१२॥ ला'बारसद्वादशभिमासैः संवत्सरस्तस्मिन्संवत्सरे चतुर्विंशतिः पक्षा भवन्ति,तेषु षष्ट्याऽधिकानि त्रीणि शतानि अहोरात्राणि | |भवन्ति ॥१३॥ 'एगं च' एक शतसहस्र-लक्षं त्रयोदश सहस्राणि नवत्यधिकं शतं चाहोरात्रेणैतावन्त उच्छासा भवन्ति |११३१९० इति ॥१४॥ 'तित्तिसत्रयस्त्रिंशच्छतसहस्राणि लक्षाणि पञ्चनवतिः सहस्राणि सप्तशतान्यन्यूनान्येतावन्तो मासेनोच्छ्रासा भवन्ति ३३९५७००, इति ॥१५॥ 'चत्तारि०' चतस्रः कोव्यः सप्त लक्षाणि अष्टचत्वारिंशत् सहस्राणि चत्वारि शतानि च ४०७४८४००, इयन्तः वर्षेणोच्छासा भवन्ति ॥ १६ ॥'चत्ता'। 'वासस०' । चत्वारि कोटिशतानि सप्तकोव्यः अपराण्यष्टचत्वारिंशच्छतसहस्राणि चत्वारिंशत्सहस्राणि च ४०७ ४८४०००० ॥१७॥ वर्षशतायुषः एते पूर्वोक्ता उच्छासाः 'इत्तिय'त्ति इयन्तो ज्ञातव्या इति, भो भव्याः! यूयं पश्यत-ज्ञानचक्षुषा विलोकयत आयुषः क्षयमहोरात्रंट क्षीयमाणस्य-समये २ आवीचीमरणेन त्रुट्यमानस्येति॥१८॥राइ' अहोरात्रेण त्रिंशन्मुहूत्ता भवन्ति,मासेन नव शतानि | दीप अनुक्रम [७४ -१०२] ~69~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------- मूलं [१६.../गाथा ||५६-८२|| ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१६] ||५६ -८२|| तं. पै. प्र.18|मुह नि, तानि प्रमत्तानां-मद्यादिप्रमादयुक्तानां सुभूमब्रह्मदत्तादीनामिव हीयन्ते, न चावुधा-मूर्खा विजानन्तीति | उच्छासाI॥ १९॥ 'तिनि०' त्रीणि सहस्राणि पट्शताधिकानि सकलानि-सम्पूर्णानि मूहूर्तानि हेमन्ते-शीतकाले भवन्ति-CI दिगणना ३४॥ एतत्प्रमाणमायुजीवानां हेमन्ते उडुवरः-सूर्यों हरति, एवं ग्रीष्मे वर्षासु च ज्ञातव्यं भवति, अत्र आपत्वेन ग्रीष्मशब्दः गा.८२ स्त्रीलिङ्गो बहुवचनान्तश्च, वर्षशब्दस्तु आवन्तत्वेन स्त्रीलिङ्गो बहुवचनान्तश्च ॥ २०॥ 'वासस' साम्प्रतं जीवानां परमायुः-उत्कृष्ट जीवितं वर्षशतं प्रवाहेण ज्ञातव्यम्, इतो-वर्षशतात् पञ्चाशद् वर्षाणि निद्रया हरति-गमयति जीवः, इतःशेषपश्चाशद्वर्षतः विंशतिवर्षाणि हीयन्ते-यान्ति प्रमादादिना, कथ?, वालवे दशकं वृद्धत्वे च दशकं चेति ॥२१॥ 'सी' शीतोष्णपथगमनानि तथा क्षुत्पिपासा भयं च शोकश्च नानाविधा रोगाश्च भवन्ति, त्रिंशतः पश्चार्धं त्रिंश-1 त्पश्चार्ध पञ्चदशवर्षरूपं तस्मिन् , को भावः ?-शे पत्रिंशतो मध्यात् पञ्चदश वर्षाणि जीवानां शीतोष्णपथगमनादिभि-1 मधा यान्तीति ॥ २२ ॥ एवं०' पूर्वोक्तप्रकारेण पञ्चाशीतिवर्षाणि नष्टानि, धर्म विना विकथानिद्रालस्यवतां मुधा गतानि, कथं -निद्रया पञ्चाशदू वर्षाणि ५० बालत्वे दश १० वृद्धभावे दश १० शीतादिभिः पञ्चदश १५, एवं सर्वाणि ८५ है इति, ये जीवाः वर्षशतिकाः-वर्षशतप्रमाणा भवन्ति ते जीवाः पञ्चदश वर्षाणि जीवन्ति, अन्येषां वर्षाणां धर्मत्वेना मृतप्रायत्वात् , न च वर्षशतजीविनो जीवाः प्रायः सुलभाः, दुष्पापा इत्यर्थः, उक्तं च-'आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं | रात्रौ तदधैं गतं, तस्यार्धस्य परस्य चार्धमपरं बाल्ये च वृद्धे गतम् । शेष व्याधिवियोगदुःखसहितं सेवादिभिनीयते, जीवे १ ॥ ३४॥ वारितरङ्गचञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् ! ॥१॥ २३ ॥ 'एवं०' एवमुक्तप्रकारेण निःसारे-असारे मानुषत्वे दीप अनुक्रम [७४ -१०२]] R isibraryang ~ 70~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------- मूलं [१६.../गाथा ||५६-८२|| ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१६] ||५६ है मनुजत्वे तथा जीवित-आयुषि रत्नकोटिकोटिभिरप्यप्राप्येऽधिपतति-समये २क्षयं गच्छति सतीत्यर्थः न कुरुत यूयं चरण धर्म-ज्ञानदर्शनपूर्वकं देशसर्वचारित्रं, हा इति महाखेदे, पश्चाद्-आयुःक्षयानन्तरमायुःक्षयचरमक्षणे वा पश्चात्ताप-कायवा मनोभिर्महाखेदं करिष्यथ नरकस्थशशिराजवदिति ॥ २४ ॥ भव्याः प्रश्नयन्ति-कथं वयं नात्मस्वरूपं जानीम इत्युक्ते &|गुरुराह'-'घुटुंमि०' धर्मस्य जिनोक्तरूपस्य तीर्थ-पवित्रकरणस्थानकं तस्य मार्गों ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः वरश्चासौ धर्म तीर्थमार्गश्च स तथा तस्मिन् , प्राकृतत्वात् विभक्तिपरिणामः, जिनः-रागादिजेतृभिः स्वयं-आत्मना 'घुटमी ति कथिते-10 | निरूपिते सति, आत्मानं न यूयं जानीत, क सति ?-मोहे सति-तीव्रमिथ्यात्वमिश्रमोहनीयकोदये सतीत्यर्थः, इह |कर्मभूमौ जाता अपि, अपेर्गम्यमानत्वादिति, अस्या अर्थों अन्योऽपि सद्गुरुप्रसादात्कार्यः इति ॥ २५॥ 'नइ०'नदीवे|गसमं चपलं जीवितं-आयुः १ यौवनं कुसुमसमं-पुष्पसदृशं क्षणेन म्लानत्वापत्तेः २ च पुनः यत्सीख्यं तत् 'अनियत्तं'ति| 21 अनित्यं ३, एतानि त्रीग्यपि 'तुरमाणभुजाईति शीघ्रं भोग्यानि 'भजा'इति पाठे तु शीघ्रं भग्नयोग्यानि शीघ्रं भक्त्वा : | यान्तीत्यर्थः ॥२६॥ 'एयं.' एतज्जरामरणं 'खु निश्चये जीवलोकं परिक्षिपति-परिवेष्टयति, (व)इवार्थे, यथा वागुरा मृगयूथं परिक्षिपति, न च पश्यत यूयं प्राप्त जरामरणं मोहजालेन सम्मूढाः-मोहं गताः, श्रीगीतमप्रतिबोधितदे-101 वशमेद्विजवदिति ॥ २७ ॥ उक्तमायुष्कापेक्षयाऽनित्यत्वं, अथ शरीरापेक्षया दर्शयन्नाह| आउसो! जंपिय इमं सरीरं इह कंतं पियं मणुन्नं मणाम मणभिरामं थिज्जं वेसासियं संमयं बहुमयं । अणुमयं भंडकरंडगसमाणं रयणकरंडओविव सुसंगोवियं चेलपेडाविव सुसंपरिवुडं तिल्लपेडाविव सुसंगो CCCCCCACACAM -८२|| दीप अनुक्रम [७४ -१०२ पृष्ठकरडक-आदीनाम् गणना प्रकाश्यते ~71~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१६] ||५६ -८२|| दीप अनुक्रम [७४ -१०२] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णिः) मूलं [१६... ] / गाथा ||५६-८२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[ २८ ], प्रकीर्णकसूत्र - [५] “तंदुलवैचारिकं” मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णिः तं. वै. प्र. ॥ ३५ ॥ Jass Education वियं मा णं उन्हें माणं सीयं मा णं वाला मा णं खुहा मा णं पिवासा मा णं चोरा मा णं दंसा [पृष्ठकरण्डकादिगणमा णं मसगा मा णं वाइ यपित्तियसंभियसंनिवाइयविविहा रोगायंका फुसंतुत्तिकट्टु एवंपियाई अधुवं अनिययं असासयं चयावचइयं विष्पणासधम्मं पच्छा व पुरा अवस्सविप्पचयवं ॥ एअस्सविना सू. १६ याई आउसो ! अणुपुवेणं अट्ठारस्स य पिट्टकरंडगसंधिओ वारस पंसलिया करंडा छप्पंसलिए कडा बिहत्थिया कुच्छी चउरंगुलिया गीवा चउपलिया जिन्भा दूपलियाणि अच्छीणि चकवाल सिरं बत्तीसं दंता सत्तंगुलिया जीहा अजुट्ठपलियं हिययं पणवीसं पलाई कालिजं दो अंता पंचवामा पण्णत्ता, तंजा-थूलते प १ तणुयंते य २, तत्थ णं जे से धूलंते तेण उच्चारे परिणमइ, तत्थ णं जे से तणुयंते तेणं पासवणे परिणमइ, दो पासा पण्णत्ता, तंजहा बामे पासे दाहिणपासे य, तत्थ णं जे से वामे पासे से सुहपरिणामे, तत्थ णं जे से दाहिणे पासे से दुहपरिणामे ॥ आउसो ! इमंमि सरीरए सट्टि संधिसयं सत्तुत्तरं मम्मसयं तिन्नि अद्विदामसयाई नव हारुसयाई सत्त सिरासयाई पंच पेसी|सयाई नव धमणीओ नवनउई व रोमकृवसयसहस्साई विणा केसमंसुणा सह केसमंसुणा अजुट्ठाओ | रोमकृवकोडीओ । आउसो ! इमंमि सरीरए सट्टी सिरासयं नाभिप्पभवाणं उडगामिणीणं सिरमुवगयाणं जाओ ? रसहरणीओत्ति वुञ्चन्ति जाणंसि निरुवघाएणं चक्खुसोयघाणजीहाबलं च भवइ, जाणं सि उवघाएणं चक्खुसोयघाणजीहाबलं उवहम्मर | आउसो ! इममि सरीरए सहिसिरासयं नाभिप्प Fur Prate & Pemonal Use Only ~72~ ॥ ३५ ॥ ainelibrary.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१६] ||५६ -८२|| दीप अनुक्रम [७४ -१०२] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णिः) मूलं [ १६... ]/ गाथा || ५६-८२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: Jass Education भवाणं अहोगामिणीणं पायतलमुवगयाणं जाणं सि निरुवघाएणं जंघावलं भवइ, ताणं चेव से उवधारणं सीसवेयणा अद्धसीसवेयणा मत्थयसले अच्छीणि अंधिनंति । ( सू २४ ) आउसो ! इमंमि | सरीरए सहिसिरासयं नाभिप्पभवाणं तिरियगामिणीणं हत्थतलमुवगघाणं जाणं सि निरुवधारणं बाहुबलं हवइ, ताणं चैव से उबग्धाएणं पासवेयणा पुट्टिवेयणा कुच्छिवेयणा कुच्छिसूले हवइ ॥ आउसो ! इमस्स जंतुस्स सहिसिरासयं नाभिप्पभवाणां अहोगामिणीणं गुदप्पविद्वाणं जाणं सि निरुवधारणं मुत्तपुरी सवाउकम्मं पवत्त, ताणं चेव उवधारणं मुत्तपुरीसवाउनिरोहेणं अरिसा खुम्भंतिपंड रोगो भवइ आउसो ! इमस्स जंतुस्स पणवीसं सिराओ पित्तधारिणीओ पणवीसं सिराओ सिंभघारिणीओ दस सिराओ सुक्कधारिणीओ सत्त सिरासयाई पुरिसस्स तीसूणाई इत्थियाए वीसूणाई पंडगस्स आउसो ! इमस्स जतुस्स रुहिरस्स आढयं बसाए अद्धाढयं मत्थुलुंगस्स पत्थो मुत्तस्स आढयं पुरिसस्स पत्थो पित्तरस कुडवो सिंभस्स कुडवो सुकस्स अद्धकुडवो, जं जाहे दुहं भवइ तं ताहे अइप्प माणं भवइ, पञ्चकोट्ठे पुरिसे छकोट्ठा इत्थिया नवसोए पुरिसे इकारससोया इत्थिया, पश्च पेसीसयाई पुरिसस्स तीसूणाई इत्थियाए बीसूणाई पंडगस्स (सूत्रं १६ ) 'आउसो जं०' इत्याद्यालापकरूपं सूत्रं, हे आयुष्मन् ! यदपिच इदं शरीरं वपुः इष्टं इच्छाविषयत्वात् कान्तं कमनीयत्वात् प्रियं प्रेमनिबन्धनत्वात् मनसा ज्ञायते उपादीयत इति मनोज्ञं मनसा अम्यते गम्यते इति मनोऽमं Pre & Pomonal Use Only ~73~ jainelibrary.org Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१६] ||५६ -८२|| दीप अनुक्रम [७४ -१०२] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णिः) मूलं [ १६... ]/ गाथा || ५६-८२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र- [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णिः तं. पै. प्र. ॥ ३६ ॥ Jass Education | मनसोऽभिरामं मनोऽभिरामं सनत्कुमारचक्रिवत् स्थैर्य - स्थैर्यगुणयोगात् वैश्वासिकं - विश्वासस्थानं संमतं तत्कृतकार्याणां संमतत्वात् बहुमतं बहुष्वपि कार्येषु बहुर्वाऽनल्पतया - अस्तोकतया मतं बहुमतं अनु - विप्रियकरणात् पश्चान्मतमनुमतं भाण्डकरण्डकसमानं - आभरणभाजनतुल्यमादेयमित्यर्थः रत्नकरण्डक इव सुसंगोपितं वस्त्रादिभिः चेलपेटेव-वस्त्रमञ्जूषेव सुष्ठु | संपरिवृतं निरुपद्रवे स्थाने निवेशितं गृहस्थावस्थास्थशालिभद्रवपुर्वत्, तैलपेटेव-तैलगोलिकेव सुसंगोपितं भङ्गभयात्, 'तेलकेला इव सुसंगोविय'त्ति पाठान्तरं तैलकेला तैलाश्रयो भाजनविशेषः सौराष्ट्रप्रसिद्धः सा च सुष्ठु सङ्गोष्या* सङ्गोपनीया भवति अन्यथा लुठति ततश्च तैलहानिः स्यादिति, 'माणं०' माशब्दो निषेधार्थः 'णं' वाक्यालङ्कारे अथवा 'मा णं'ति मा इदं शरीरमिति व्याख्येयं ततः सर्वेऽप्युष्णादयो मा स्पृशन्तु 'छुयंतु' भवन्त्वित्यर्थः, 'तिकडु' | इतिकृत्वा, अथवेत्यभिसन्धाय पालितमिति शेषः, तत्रोप्मत्वं - ग्रीष्मादावुष्णत्वं शीतं - शीतकाले शीतत्वं व्यालाः श्वापदाः सर्पा वा क्षुद् बुभुक्षा पिपासा - तृषा चौराः- निशाचराः दंशाः मशकाः एते विकलेन्द्रियजन्तुविशेषाः वातिकपैत्तिकश्ले| ष्मिकसान्निपातिका विविधरोगातङ्काः रोगाः - कालसहा व्याधयः आतङ्काः - त एव सद्योघातिनः 'एपि याइ'न्ति एव| मुक्तप्रकारेण अपिचेत्यभ्युच्चये 'आई' इति वाक्यालङ्कारे, इदं शरीरं न ध्रुवमध्रुवं सूर्योदयवत् न प्रतिनियतकालेऽवश्यंभावि अनियतं सुरूपादेरपि कुरूपादिदर्शनात् हरितिलकराजसुतविक्रमकुमारशरीरवत् अशाश्वतं - क्षणं क्षणं प्रति विनश्व| रत्वात् सनत्कुमारशरीरवत् 'चयावचइयंति इष्टाहारोपभोगतया धृत्युपष्टम्भादौ दारिकवर्गणा परमाणूपचयाच्चयस्तदभावे तद्विचटनादपचयः चयापचयौ विद्येते यस्य तच्चयापचयिकं पुष्टिगलनस्वभावमित्यर्थः, करकंडुप्रत्येकबुद्धवैराग्यहेतु Pre & Pomonal Use Only ~74~ पृष्ठकरण्ड कादिगणना सू. १६ ॥ ३६ ॥ jainelibrary.org Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं [१६...]/गाथा ||५६-८२|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत CALCALCA [१६] ||५६ -८२|| R वृषभशरीरवत् , विप्रणाशो-विनश्वरो धर्मः-स्वभावो यस्य तद् विप्रणाशधर्म, 'पच्छा वत्ति पश्चाद् विवक्षितकालात् परतः 'पुरा वत्ति विवक्षितकालात् पूर्व च, यद्वा 'पच्छा पुरा यत्ति पाठे तु विवक्षितकालस्य पश्चात्पूर्वं च सर्वदैवेत्यर्थः, द्र अवश्य 'विप्पचइय'ति विप्रत्यक्तव्यं त्याग्यमित्यर्थः । 'एयस्सवि याईति एतस्य एतस्मिन्नपि च वा वपुषः वपुषि वाटू 'आई'ति वाक्यालङ्कारे 'आउसो'त्ति हे आयुष्मन् ! आनुपूर्व्या-अनुक्रमेणाष्टादश पृष्ठिकरण्डकस्य-पृष्ठिवंशस्य सन्धयोग्रन्थिरूपा भवन्ति, यथा वंशस्य पर्वाणि, तेषु चाष्टादशसु सन्धिषु मध्ये द्वादशभ्यः सन्धिभ्यो द्वादश पांशुलिकाः निर्गत्योभयपाङवावृत्य वक्षःस्थलमध्योर्ववर्त्यस्थिनि लगित्वा पलकाकारतया परिणमन्ति, अत आह-'बारस' शरीरे द्वादश पांशुलिकारूपाः करण्डकाः-वंशका भवन्ति, तथा 'छप्पंसु' तस्मिन्नेव पृष्ठिवंशे शेषषट्सन्धिभ्यः षट् पांशुलिका निर्गत्य पार्श्वद्वयमावृत्य हृदयस्योभयतो वक्षःपञ्जरादधस्तात् शिथिलकुक्षेस्तूपरिष्टात्परस्परासंमिलितास्तिदन्ति , अयं च कटाह इत्युच्यते, द्वे वितस्ती कुक्षिर्भवति, चतुरङ्गलप्रमाणा ग्रीवा भवति, तौल्येन मगधदेशप्रसिद्धपलेन चत्वारि पलानि जिह्वा भवति, अक्षिमांसगोलको द्वे पले भवतः, चतुर्भिः कपालैः-अस्थिखण्डरूपैः शिरो भवति, मुखेऽशुचिपूर्णे प्रायो द्वात्रिंशद्दन्ता अस्थिखण्डानि भवन्ति, 'सत्तंगु०' जिला मुखाभ्यन्तरवर्तिमांसखण्डरूपा दैयेणात्माङ्गुलतः सप्ताङ्गला भवति 'अछुट्ट' हृदयान्तरवर्ति मांसखण्डं सार्धपलत्रयं भवति, 'पणवी० कालिज' वक्षोऽन्तर्मूढमांसविशे परूपं पञ्चविंशतिः पलानि स्युः, द्वे अत्रे प्रत्येकं पञ्चपञ्चवामप्रमाणे प्रज्ञप्ते जिनैः, तद्यथा-स्थूलान्नं १ तन्वन्त्र २, तत्र यत् वतत् स्थूलान्त्रं तेनोच्चारः परिणमति, तत्र च यत्त वन्नं तेन प्रस्रवण-मूत्रं परिणमति, 'दो पा०' द्वे पार्थे प्रज्ञप्ते, तद्यथातं.वै.प्र.७ दीप अनुक्रम [७४ RESCR-KA-% -१०२ % % a mjaibesitarary.org ~ 75~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१६] ||५६ -८२|| दीप अनुक्रम [७४ -१०२] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णिः) मूलं [१६... ] / गाथा ||५६-८२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं वै. प्र. ॥ ३७ ॥ Jass Education वामपार्श्व १ दक्षिणपार्श्व २ च तत्र - तयोर्मध्ये यत्तत् वामपार्श्व तत् शुभपरिणामं भवति, तत्र च यत्तदक्षिणपार्श्व तद्दुःखपरिणामं भवति । तथा 'आउसो !' हे आयुष्मन् ! अस्मिन् शरीरे षष्टिः सन्धिशतं ज्ञातव्यं तत्र सन्धयः-अङ्गु|| स्याद्यस्थिखण्ड मेलापकस्थानानि, 'सत्तत्तरे' सप्तोत्तरं मर्मशतं भवति, तत्र मर्माणि - शङ्खाणिकावियरकादीनि 'तिनि०' त्रीण्य स्थिदामशतानि - हड्डमालाशतानि भवन्ति, 'नव हारुसयाई'ति स्नायूनां - अस्थिबन्धनशिराणां नव शतानि, 'सत्त०' सप्त शिराशतानि स्नसाशतानि पञ्च पेसीशतानि, 'नव घ०' नव धमन्यो- रसवहनाढ्यः 'नव०' नवनवतिः | रोमकूपशतसहस्राणि रोम्णां-तनुरुहाणां कूपा इव कूपा रोमकूपाः रोमरन्ध्राणीत्यर्थः तेषां नवनवतिर्लक्षा इति, विना | केशश्मश्रुभिः, केशश्मश्रुभिः सह पुनः सार्धास्तिस्रो रोमकूपकोट्यो भवन्ति मनुष्यशरीरे इति ॥ अथ पूर्वोक्तानि शिरा| सप्तशतानि कथं भवन्तीति सूत्रकार एवाह - 'आउसो ०' हे आयुष्मन् ! अस्मिन् शरीरे 'सट्ठि' इह पुरुषशरीरेनाभिप्रभवाणि शिराणां स्त्रसानां सप्त शतानि भवन्ति, तत्र पष्ठयधिकं शतं शिराणां नाभिप्रभवाणामूर्ध्वगामिनीनां शिरस्युपागतानां भवन्ति, यास्तु रसहरण्य इत्युच्यन्ते, 'जाणं सित्ति यासामूर्ध्वगामिनीनां शिराणां 'से' तस्य जीवस्य निरुप घातेन - अनुग्रहेण चक्षुः १ श्रोत्ररम्राणरजिह्वा४वलं भवति, यासां 'से' तस्योपघातेन विघातेन चक्षुः श्रोत्रघाणजिह्वाबलमुपहन्यते, तथा 'आउसो' हे आयुष्मन् ! अस्मिन् शरीरे पष्ट्यधिकं शतं १६० शिराणां नाभिप्रभवाणां नाभेरुत्पन्नानामित्यर्थः अधोगामिनीनां पादतले उपगतानां प्राप्तानां भवति, यासां निरुपघातेन जङ्घावलं भवति, तासां चैव 'से' तस्य जीवस्योपघातेन - विकारप्राप्तेन शीर्षवेदना सर्वमस्तकपीडा अर्धशीर्षवेदना मस्तकशूलं च भवति, Fur Prate & Personal Use Only ~76~ पृष्ठकरण ड कादिगणना सू. १६ ॥ ३७ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------- मूलं [१६.../गाथा ||५६-८२|| ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: * प्रत [१६] ||५६ -८२|| 54545454545504545 'अच्छिणि'त्ति अक्षिणी-लोचने 'अंधिज्जंति'त्ति अन्धीभवत इत्यर्थः ॥२॥ तथा 'आउसो' हे आयुष्मन् ! अस्मिन् प्रत्यक्षे शरीरे षष्ट्यधिकं शतं शिराणां नाभिप्रभवाणां तिर्यग्गामिनीनां हस्ततले उपागतानां भवति, यासां निरुपयासतेन-निरुपद्रवेण बाहुबलं भवति, तासां चैव 'से' तस्योपघातेन-उपद्रवेण पार्श्ववेदना पृष्ठिवेदना कुक्षिवेदना कुक्षिशूलं च भवति, तथा 'आउ०' हे आयुष्मन् ! अस्य जन्तोः षष्ट्यधिकं शतं शिराणां नाभिप्रभवाणामधोगामिनीनां गुदप्रवि-४ टानां भवति, यासां निरुपघातेन-उपद्रवाभावेन मूत्रपुरीषवातकर्म-प्रस्रवणकर्म विष्ठाकर्म वायुकर्म प्रवर्त्तते, मूत्रादिकं सुखेन कर्तुं शक्यत इत्यर्थः, तासां चैव गुदप्रविष्टशिराणामुपघातेन मूत्रपुरीषवातनिरोधो भवति, निरोधेनाीसि-4 |गुदाकुराः 'हरस' इति लोकोक्तिः क्षुभ्यन्ति-क्षोभं यान्ति, परमपीडाकरं रुधिरं मुश्चन्तीत्यर्थः, भवभावनोक्तकालर्षिवत् |पाण्डुरोगश्च भवति, तथा 'आउसो' हे आयुष्मन् ! अस्य जन्तोः पञ्चविंशतिः शिराः 'सिंभधारिणी'त्ति श्लेष्मधारिण्यो भवन्ति, 'पंच' पश्चविंशतिः शिराः पित्तधारिण्यः, दश शिराः शुक्रधारिण्यः, 'सत्त सि०' पुरुषस्योक्तप्रकारेण सप्त शिराशतानि भवन्ति, कथम् ?,शरीरेऊर्ध्वगामिन्यः १६० अधोगामिन्यः १६० तिर्यग्गामिन्यः १६० अधोगामिन्यो गुदप्रविष्टाः १६० श्लेष्मधारिण्यः २५ पित्तधारिण्यः २५ शुक्रधारिण्यः १० एवं सर्वाः ७०० शिराः भवन्ति पुरुषाणां शरीर इति ।। 'तीसू०' पुरुषोक्ताः यास्ताविंशदनाः खियाः भवन्ति, सप्तत्यधिकानि षट् शतानि भवन्तीत्यर्थः ६७०, 'वीसू०' पुरुषोक्ता, यास्ताः विंशत्यूनाः पाण्डकस्याशीत्यधिकानि षट् शतानि भवन्तीत्यर्थः ६८०॥ अथ शरीरे रुधिरादिमानमाह-'आउसो'|x हे आयुष्मन् ! अस्य जन्तोः रुधिरस्याढकं भवति, वसाया अर्धाढकं, 'मत्थुलिंगस्सेति मस्तकभेजकस्य फिल्फिसादेर्वा | 5-4- 655555 दीप अनुक्रम [७४ -१०२ JNEducatio n al janelibrary.org ~ 77~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------- मूलं [१६.../गाथा ||५६-८२|| ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत नं.व.प्र. [१६] ॥ ३८॥ ||५६ -८२|| प्रस्थः मूत्रस्याढकं पुरीषस्य प्रस्थः पित्तस्य कुडवः श्लेष्मणः कुडवः शुक्रस्यार्धकुडवो भवति, एतच्चाढकप्रस्थादिमानं बाल- शरीरासुन्द कुमारतरुणादीनां 'दो असईओ पसई दो पसईयो य सेइआ होइ चत्तारि सेईया कुलओ चत्तारि कुलओ पत्थो चत्तारि रता गा. पत्था आढग'मित्यात्मीयरहस्तेनानेतव्यमिति, 'जं जाहे' यद् रुधिरादिकं यदा दुष्टं भवति तत्तदाऽतिप्रमाणं भवति, ८३-८४ अयमाशयः-उक्तमानस्य शुक्रशोणितादेहींनाऽऽधिक्यं स्यात्तत्तत्र वातादिदूषितत्वेनावसेयमिति। 'पंच' पञ्चकोष्ठः पुरुषः,8 दापुरुषस्य पञ्च कोष्ठकाः भवन्ति, पटुकोष्ठा स्त्री, कोष्ठकस्वरूपं सम्प्रदायादवगन्तव्यमिति, नवश्रोत्रः पुरुषः, तत्र कर्णद्वय २-18 चक्षुर्द्वय २ घ्राणद्वय २ मुख ७ पायू ८ पस्थ ९ लक्षणानि इति, एकादशश्रोत्रास्त्री भवति, पूर्वोक्तानि नव स्तनद्वययुक्तान्ये कादश श्रोत्राणि स्त्रीणां भवन्तीत्येतन्मानुषीणामुक्तं, गवादीनां तु चतुःस्तनीनां त्रयोदश १३ शूकर्यादीनामष्टस्तनीनां 8 द सप्तदश १७ नियाघाते एवं, व्याघाते पुनरेकस्तन्या अजाया दश १०, त्रिस्तन्याश्च गोादशेति । 'पंच' पुरुषस्य पञ्च पेसीशतानि भवन्ति ५०० त्रिंशदनानि स्त्रियाः ४७० विंशत्यूनानि पञ्च पेसीशतानि नपुंसकस्य ४८०॥ उक्तं शरीरस्वरूपं,। अधास्यैवासुन्दरत्वं दर्शयन्नाह| अभितरंसि कुणिमं जो परिअत्तेउ बाहिरं कुज्जा । तं असुई दटूर्ण सयावि जणणी दुगुंछिज्जा ॥१॥(८३) माणुस्सयं सरीरं पूइयमं मंससुक्कहढेणं । परिसंठवियं सोहइ अच्छायणगंधमल्लेणं ॥२॥ (८४) इमं चेव य सरीरं सीसघडीमेयमजमंसट्ठियमत्थुलंगसोणियवालुंडयचम्मकोसनासियसिंघाणयधीमलालयं अमणु-18 नगं सीसघडीभंजियं गलंतनयणं कन्नुढगंडतालुयं अवालुयाखिल्लचिक्कणं चिलिचिलियं दंतमलमइलं बीभ-14 दीप अनुक्रम [७४-१०२] SAUGARCACACCALCROCRAC C+USA JHEditutior a mil शरीरस्य असुन्दरत्वं दर्शयते ~ 78~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१७]/गाथा ||८३-८४|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[१] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत छदरिसणिजं अंसलगवाहुलगअंगुलीअंगुढगनहसंधिसंघायसंधियमिणं बहुरसियागारं नालखंधच्छिराअणेगण्हारुबहुधमणिसंधिनद्धं पागडउदरकवालं ककखनिक्खुडं ककखगकलियं दुरंतं अद्विधमणिसंताणसंतयं सबओ समंता परिसवंतं च रोमकूवेहि सयं असुई सभावओ परमदुग्गंधि कालिजयअंतपित्तजरहिययफोफसफेफसपिलिहोदरगुज्झकुणिमनवछिडुधिविधिवंतहिययं दुरहिपित्तसिंभमुत्तोसहाययणं सबओ दुरंत | गुज्झोरुजाणुजंघापायसंघायसंधियं असुइ कुणिमगंधि, एवं चिंतिजमाणं बीभच्छदरिसणिजं अधुवं अनिययं| असासयं सडणपडणविर्द्धसणधम्म पच्छा व पुरा व अवस्स चइयत्वं निच्छयओ मुटु जाण एवं आइनिहणं ६ एरिसं सबमणुयाणं देहं एस परमस्थओ सभावो (सूत्रं १७) । का 'अम्भितर' गाथा, 'अभितरंसी ति शरीरमध्यप्रदेशे 'जो'त्ति यत् 'कुणिम' अपवित्रं मांसं वर्त्तते तन्मांसं 'परि| यत्तेउत्ति परावर्त्य-परावर्त कृत्वा यदि बहिः-बहिर्भागे कुर्यात् तदा तन्मांसं 'असुइ' अशुचि-अपवित्रं दृष्ट्वा स्वका अपि| आत्मीया अपि अन्या आस्तां स्वजननी-स्वाम्बा 'दुगुंछिज'त्ति जुगुप्सां कुर्यात्-हा! किं मयाऽपवित्रं दृष्टमिति ॥१॥ 'माणुस्सयं' गाथा, मानुष्यक-मनुष्यसम्बन्धि शरीरं-वपुः 'पूइयमंति पूतिमत् अपवित्रमित्यर्थः, केन ?-मांसशुक्र-| हड्डेन, हड्डे देश्यमस्थिवाचीति, 'परिसंठविर्य'ति विभूषितं सत् 'सोहईत्ति शोभते, केन ?-आच्छादनगन्धमाल्येन, तत्राच्छादनं-वस्त्रादि गन्धः-कर्पूरादिः माल्यं-पुष्पमालादि, 'इमं चेव य'इत्यादि गयं, इदमेव च मनुजशरीरं-वपुः शीर्षघटीव मस्तकहई मेदश्च-अस्थिकृत् चतुर्थों धातुरित्यर्थः मजा च-शुक्रकरः षष्ठो धातुरित्यर्थः मांसं च-पललं SEARCRACK दीप अनुक्रम [१०३ -१०५] ~79~ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१७]/गाथा ||८३-८४|| ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत IP * 5555554-15151 ४ तृतीयो धातुरित्यर्थः, अस्थि च-कुल्यं पञ्चमो धातुरित्यर्थः मस्तुलुङ्गश्च-मस्तकस्नेहः शोणितं च-रुधिरं द्वितीयो धातु- शरीरासुन्द |रित्यर्थः वालुण्डकश्च-अन्तरशरीरावयवविशेषः चर्मकोशश्च-छविकोपः नासिकासिङ्घानश्च-याणमलविशेषः धिङयलं च- रता गा. अन्यदपि शरीरोद्भवं निन्द्यमलं तानि तेषामालय-गृहमित्यर्थः अमनोज्ञकं-मनोज्ञभाववर्जितं शीर्षघटी-करोटिका ८३-८४ तया भञ्जितं-आक्रान्तमित्यर्थः, गलन्नयनं कर्णोष्ठगण्डतालुकं अवालुया इति लोकोक्त्या अवालुखिल्लश्च खील इति| सू. १७ जनोक्तिः ताभ्यां चिक्कणं-पिच्छलमित्यर्थः 'चिलिचिलिय'मिति चिगचिगायमानं धर्मावस्थादौ दन्तानां मलं दन्तमलं तेन 'मइल'त्ति मलिनं-मलीमसमित्यर्थः, बीभत्सं-भयङ्करं दर्शनं-आकृतिरवलोकनं वा रोगादिना कृशावस्थायां यस्य वपुषस्तद् वीभत्सदर्शनं, 'अंसलग'त्ति अंसयोः-स्कन्धयोः 'बाहुलग'त्ति बाह्वोः-भुजयोः अङ्गुलीनां-करशाखानां 'अंगुट्ठग'त्ति अङ्गुष्ठयोरङ्गुलयोः नखाना-महाराजानां (करजानां) ये सन्धयस्तेषां सङ्घातेन-समूहेन सन्धितमिदं वपुः PI'बहु' बहुरसिकागारं 'नालखं०' नालेन स्कन्धशिराभिः-अंसधमनीभिः 'अणेगण्हारु'त्ति अनेकस्नायुभिः-अस्थिब न्धनशिराभिः बहुधमनिभिः-अनेकशिराभिः सन्धिभिः-अस्थिमेलापकस्थानैश्च 'नई'ति नियन्त्रितं प्रकटं-सर्वजनदृश्यहैं मानमुदरकपाल-जठरकडहल्लकं यत्र तत्प्रकटोदरकपालं, कक्षैव-दोर्मूलमेव निष्कुटं-कोटरं जीर्णशुष्कवृक्षवद् यत्र तत् ॥३९॥ कक्षनिष्कुटं कक्षायां गच्छन्तीति कक्षागाः अधिकारात्तद्गतकुत्सितवालास्तैः कलित-सदा सहितं कक्षागकलितं यद्वा | कक्षायां भवाः काक्षिकाः-तद्गतकेशलतास्ताभिः कलितं, 'दुरंतं ति दुष्टः अन्तो-विनाशः प्रान्तो वा यस्य तहुरन्तं& दुष्पूरं, अस्थिधमन्योः सन्तानेन-परम्परया 'संतयं ति व्याप्तं यत्तदस्थिधमनिसन्तानसन्ततं, सर्वतः-सर्वप्रकारैः || दीप अनुक्रम [१०३-१०५]] JHNEnucation ~80~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१७]/गाथा ||८३-८४|| ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत 9%84 -८४ |समन्ततः सर्वत्र रोमकूपै-रोमरन्धैः परिस्रवत्-गलगलत् सर्वत्र सच्छिद्रघटवत् चाब्दादन्यैरपि नासिकादिरन्धैः | परिस्रवत् 'सयंति स्वयमेवाशुचि-अपवित्रं 'सभाव'त्ति स्वभावेन परमदुष्टगन्धीति 'कालिजयअंतपित्त-IM जरहिययफोप्फसफेफसपिलिह'त्ति प्लीहा-गुल्म 'उदर'त्ति जलोदरं गुह्यकुणिमं-मांसं नव छिद्राणि यत्र तत् तथा |'थिविधिवत'त्ति द्विगुद्रिगायमानं 'हियय'त्ति हृदयं यत्र तत् परमयावत् हृदयं नव छिद्राणि तु नयनद्वयकर्णद्वयनासिकाद्वयजिह्वाशिश्नापानलक्षणानि 'दुरहित्ति दुर्गन्धानां पित्तसिंभमूत्रलक्षणानामौषधानामायतनं-गृहं सवौंपधायतनं, रोगादावस्मिन् सर्वोषधप्रक्षेपात्, सर्वत्र-सर्वभागे दुष्टोऽन्तो-विनाशःप्रान्तो वा यस्य तत् सर्वतोदुरन्तं, 'गुह्यो| |गुह्योरुजानुजङ्घापादसङ्घातसन्धित-उपस्थसक्थिनलकीलनलकिनीक्रमणपरस्परमीलनसमूहसीवितं, अशुचिकुणिमस्य-अप-13 ॥४ावित्रमांसस्य गन्धो यत्र तदशुचिकुणिमगन्धि एवं चि.' एवं-पूर्वोक्तप्रकारेण चिन्त्यमानं बीभत्सदर्शनीयं भयङ्कररूपं || &ा 'अधुवं अनिययं असासयं'चेति पदत्रयस्य व्याख्या पूर्ववत्, 'सडण.' शटनपतनविध्वंसनधर्म, तत्र शटनं-४ कुष्ठादिनाऽङ्गल्यादेः पतनं बाहादेः खङ्गच्छेदादिना विध्वंसनं-सर्वथा क्षयः एते धर्माः-स्वभावा यस्य तत्तथा, 'पच्छा व पुरा व अवस्स चइय'त्ति पूर्ववत् 'निच्छ०' निश्चयतः सुष्ठ भृशं त्वं 'जाण'त्ति जानीहि एतन्मनुष्यशरीरं 'आइनि-11 पाहणं'ति आदिनिधनं सादिसान्तमित्यर्थः, ईदृशं पूर्ववर्णितं वक्ष्यमाणं वा सर्वमनुजाना-समस्तमनुष्याणां देहा-शरीर Pएषः पूर्वोक्तः शरीरस्य परमार्थतः-तत्त्वतः स्वभावः ॥ अथ विशेषतः शरीरादेरशुभत्वं दर्शयति सुफमि सोणियमि य संभूओ जणणिकुच्छिमछमि । तं चेव अमिज्झरसं नवमासे घुटियं संतो ॥१॥ दीप अनुक्रम [१०३ 5554565645%A5A5% -१०५] ~81~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------- मूलं [१७,,,/गाथा ||८५-८७|| ---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व], प्रकीर्णकसूत्र-[५] "तंदलवैचारिक" मलं एवं विजयविमल गणि कता अवचर्णि: प्रत [१७] ॥४० -८७|| तं. वै. प्र.3(८५) जोणीमुहनिप्फिडिओ थणगच्छीरेण वद्धिओ जाओ। पगईअमिज्झमइओ कह देहो धोइउ सक्को? शरीरविशेदू॥२॥ (८६) हा असुइसमुप्पन्ना य निग्गया य जेण चेव दारेणं । सत्ता मोहपसत्ता रमंति तत्थेव असु थव असु- पासुन्दरता है इदारंमि ॥ ३॥ (८७) गा.८५हा 'सुक्कंमि'इत्यादि यावदस्थिमलो तावत् पद्यं, 'सुक्क०' जननीकुक्षिमध्ये-मातृजठरान्तरे शुक्र-वीये शोणिते-लोहिते | ११२ चशब्दादेकत्र मिलिते सति प्रथम सम्भूतः-उत्पन्नस्तदेवामेध्यरस-विष्ठारसं 'ध्रुटियंति पिवन सन् नव मासान् * यावत् स्थित इति ॥ १ ॥ 'जोणि' योनिमुखनिस्फिटितः-स्मरमन्दिरकुण्डनिर्गतः 'धणगं'ति स्तनकक्षीरेण* वर्धितः-पयोधरदुग्धेन वृद्धिं गतः, प्रकृत्या अमेध्यमयो जातः, एवंविधो देहः कह 'धोइ'ति धौतुं-क्षाल-13 दयितुं शक्यः ? ॥२॥'हा अ०' हा इति खेदे अशुचिसमुत्पन्ना-अपवित्रोत्पन्नाः येनैव द्वारेण निर्गताः चशब्दात् यौवनमापन्नाः सत्त्वा जीवाः मोहप्रसक्ताः-विषयरक्ताः-रमन्ति-क्रीडन्ति तत्रैव अशुचिद्वारे छेदोक्तसमुद्रप्रसूतकुमारव४ दिति ॥३॥ एवं शरीराशुचित्वे सति शिष्यः प्रश्नयति किह ताव घरकुडीरी कईसहस्सेहिं अपरितंतेहिं । वन्निजइ असुइबिलं जघणंति सकजमूढेहिं ? ॥४॥ (८८) रागेण न जाणति वराया कलमलस्स निद्धमणं । ताणं परिणदंता फुल्लं नीलुप्पलवणं व ॥५॥ (८९)* | कित्तियमित्तं वन्ने अमिज्झमइयंमि वचसंघाए । रागो हु न कायद्यो विरागमूले सरीरंमि ॥६॥ (९०॥3 ॥४०॥ किमिकुलसयसंकिपणे असुइमचुक्खे असासयमसारे । सेयमलपुषडंमी निवेयं वच्चह सरीरे ॥७॥ (९१) दीप अनुक्रम [१०६ AAKAAKAALC -१०८] jaineibrary.org शरीरस्य अशुभत्वं संबंधे शिष्यस्य प्रश्नोत्तर ~82~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [१७...]/गाथा ||८८-११२|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत IP -११२ दंतमलकन्नग्रहगसिंघाणमले य लालमलबहुले । एयारिसे बीभच्छे दुगुंछणिजंमि को रागो ? ॥ ८॥ (९२) को सडणपडणविकिरिणविद्धंसणचयणमरणधम्मंमि । देहमि अहीलासो कुहियकडिणकट्ठभूयंमि ॥९॥ (९३) | कागसुणगाण भक्खे किमिकुलभत्ते य वाहिभत्ते य । देहमि मच्छभत्ते सुसाणभत्तंमि को रागो ? ॥१०॥ (९४) असुई अमिज्झपुन्नं कुणिमकलेवरकुडि परिसवंति । आगंतुयसंठवियं नवच्छिड्डमसासयं जाणे, P॥११॥ (९५) पिच्छसि मुहं सतिलयं सविसेसं रायएण अहरेणं । सकडक्खं सविआरं तरलछि जुध-12 |णित्थीए ॥ १२॥ (९६) पिच्छसि बाहिरमटुं न पिच्छसी उजरं कलिमलस्स । मोहेण नच्चयंतो सीसघडीकंजियं पियसि ॥ १३ ॥ (९७) सीसघडीनिग्गालं जं निदुहसी दुगुंछसी जं च। तं चेव रागरत्तो मूढो अइमुच्छिओ पियसि ॥ १४ ॥ (९८) पूइयसीसकवालं पूइयनासं च पूहदेहं च । पूइयछिडुविछिडु पूड-11 यचम्मेण य पिनद्धं ॥ १५॥ (९९) अंजणगुणसुविसुद्धं पहाणुवणगुणेहिं सुकुमालं । पुप्फुम्मीसियकेसं जणेइ बालस्स तं राग ॥ १६ ॥ (१००)जं सीसपूरउत्ति य पुप्फाई भणंति मंदविन्नाणा। पुप्फाई चिय ताई सीसस्स य पूरयं सुणह ॥ १७॥ (१०१) मेओ वसा य रसिया खेले सिंघाणए य छुभ एवं । अह सीसपूरओ भे नियगसरीरम्मि साहीणो ॥१८॥ (१०२) सा किर दुप्पडिपूरा वचकुडी दुप्पया नवच्छिद्दा । उक्कडगंधविलित्ता बालजणो अइमुच्छियं गिद्धो ॥ १९॥ (१०३) जं पेमरागरत्तो अवयासेऊण गूढमुत्तोलि । दंतमलचिकणंगं| सीसघडीकजियं पियसि ॥२०॥ (१०४) दंतमुसलेसु गहणं गयाण मंसे य ससयमीयाणं । वालेसुं चम UNGACAS.ACCABBAGALE दीप अनुक्रम [१०९-१३३] ~83~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१७] + ||ee -११२|| दीप अनुक्रम [१०९ -१३३] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णिः) मूलं [ १७...]/ गाथा ||८८-११२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र- [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णिः वं. वै. प्र. ॥ ४१ ॥ Jass Education रीणं चम्मन हे दीवियाणं च ॥ २१ ॥ (१०५) पूयकाए य इहं चवणमुहे निचकालवीसत्थो । आइक्खसु शरीरविशेसम्भावं किम्मिऽसि गिद्धो तुमं मूढ ! ॥ २२ ॥ (१०६) दंतावि अकज्जकरा वालाविव वहुमाण बीभच्छा । ४ पासुन्दरता चम्मंपि य बीभच्छं भण किं तसि तं गओ रागं ? ॥ २३ ॥ (१०७) सिंभे पित्ते मुत्ते गृहमि य वसाइ दंत-गा. ८५कुंडीसु । भणसु किमत्थं तुज्झं असुईमि विवडिओ रागो ? ॥ २४ ॥ (१०८) जंघडियासु ऊरु पट्टिया २११२ तट्टिया कडीपिट्ठी । कडियद्विवेडियाई अट्ठारस पिट्ठिअट्ठीणि ॥ २५ ॥ ( १०९) दो अच्छिअट्टियाई सोलस गीवट्टिया मुणेयवा । पिट्टीपट्टियाओ वारस किल पंमुली हुंति ॥ २६ ॥ ( ११० ) अद्वियकढिणे सिरहारुबंधणे मंसचम्मलेवंमि । विट्ठाकोट्टागारे को बच्चघरोवमे रागो ? ॥ २७ ॥ (१११ ) जह नाम वच्चकूवो निचं |भिणिभिणभणतकायकली । किमिएहिं सुलुसुलायइ सोएहि य पूइयं वहइ ॥ २८ ॥ (११२) 'किह ता०' हे पूज्याः ! कथं तावत् गृहकुड्याः स्त्रीदेहस्येत्यर्थः 'अपरितंते०' अपरितान्तैः- अश्रान्तैः परिश्रममगणयद्भिः स्वकार्यमूढैः स्वस्वार्थ मोढ्यगतैः कवि सहस्रैः 'जघणं' ति स्त्रीकटेरप्रभागं भगरूपमित्यर्थः वर्ण्यते-वचन विस्तरेण विस्तायेते, किंभूतं जघनं ? - 'अशुचिविलं' परमापवित्रं विवरम्, उक्तं च- "चर्मखण्डं सदाभिन्नं, अपानोद्गारवासितम् । तत्र मूढाः क्षयं यान्ति, प्राणैरपि धनैरपि ॥ १ ॥” तत्र प्राणैः सत्यस्यादयः क्षयं गताः धनैर्धम्मिल्लादयः इति ||४|| 'रागे० ' हे शिष्य ! रागेण- तीव्रकामरागेण न जानन्ति हृदये चशब्दादन्येषां न कथयन्ति वराकाः- तपस्विनः कलमलस्य - अप वित्रमलस्य निर्धमनं खालू इति 'ता णं'ति 'णं' वाक्यालङ्कारे तत् जघनं 'परिणदति' त्ति परमविषयासक्ता वर्णयन्ति, Fur Prate & Pomonal Use Only ~ 84~ ॥ ४१ ॥ janelibrary.org Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------------- मूलं [१७...]/गाथा ||८८-११२|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत IP *1515 -११२|| कथम् !-वकार इवार्थे, इवोत्प्रेक्षते, फुलं-प्रफुलं विकसितमित्यर्थः नीलोत्पलवनं-इन्दीवरकाननम् ॥ ५॥ 'कित्तिय कियन्मात्रं-कियत्प्रमाणं 'वन्नेत्ति वर्णयामि शरीरे-वपुषि, किंभूते ?-अमेध्यं प्रचुरमस्मिन्नित्यमेध्यमये-गूथात्मक इत्यर्थः, वर्चस्कसङ्घाते-परमापवित्रविष्ठासमूहे 'विरागमूले'त्ति विरुद्धोरागः विरागः मनोजराग इत्यर्थः तस्य मूलं-कारणं ४ *कामासक्तानामङ्गारवतीरूपदर्शने चन्द्रप्रद्योतनस्येव, यद्वा विगतो-गतो रागो-मन्मथभावो यस्मात्स विरागः वैराग्य-| सामित्यर्थः तस्य मूलं-कारणं, काष्ठश्रेष्ठेरिव (श्रेष्ठिन इव) तस्मिन् विरागमूले हु यस्मादेवं तस्मादागो न कर्त्तव्यः । स्थूलभद्रवज्रस्वामिजम्बूस्वाम्यादिवत् ॥ ६॥'किमि०' कृमिकुलशतसङ्कीर्णे 'असुइमचुक्खे'त्ति अशुचिके-अपवि त्रमलव्याप्ते अचुक्षे-अशुद्धे सर्वथा पवित्रीकर्तुमशक्यत्वात् , अशाश्वते क्षणं क्षणं प्रति विनश्वरत्वात् , असारे-सारवसार्जिते 'सेयमलपचडमिति दुर्गन्धस्वेदमलचिगचिगायमाने, एवंविधे शरीरे हे जीवाः! यूयं निर्वेद-वैराग्यं बजत-IA गच्छत, विक्रमयशोनृपस्येवेति ॥७॥ 'दंतम०' दन्तमलकर्णमलगूथकसिंघानमले चशब्दः शरीरगतानेकप्रकार-4 मलग्रहणसूचनार्थः लालामलबहुले एतादृशे बीभत्से-जुगुप्सनीये सर्वथा निन्ये वपुषि को रागः॥८॥'को सड देहे-शरीरे कः अभिलाषः-वाञ्छा ?, किंभूते ?-शटनपतनविकिरणविध्वंसनच्यवनमरणधर्म, तत्र शटनं कुष्ठादिनाऽङ्ग-2 ल्यादेः पतनं बाहादेः खड्गच्छेदादिना विकिरणं-विनश्वरत्वं विध्वंसनं-रोगज्वरादिना जर्जरीकरणं च्यवनं-हस्तपादादेर्देशक्षयः मरणं-सर्वथा क्षयः, पुनः किंभूते ?-कुथितकठिनकाष्ठभूते-विनष्टकर्कशदारुतुल्ये ॥९॥'कागसु० देहे को । रागः ?, किंभूते ?-काकश्वानयोः-घूकारिभषणयोः भक्ष्ये-खाद्ये कृमिकुलभक्के च व्याधिभक्के च मत्स्यभक्ते च क्वचिन्मच्चु-2 %8 % दीप अनुक्रम [१०९-१३३] A5 ~85~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [१७...]/गाथा ||८८-११२|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१७] -११२॥ तं. वे.प्र. दि भत्तेत्ति मृत्युभक्तमिति श्मशानभक्ते ॥१०॥'असुई' अशुचि-सदाऽविशुद्धममेध्यपूर्ण-विष्टाभूतं कुणिमकलेवरकुडिं- शरीरविशे मांसशरीरहड्डयोहं 'परिसवंति'त्ति परिस्रवत्-सर्वतो गलत् , आगन्तुकसंस्थापित-मातापित्रोः शोणितपुद्गलैनिष्पादितं पासुन्दरता नवच्छिद्रं-नवरन्ध्रोपेतमशाश्वतं-अस्थिरं एवंविधं वपुस्त्वं जानौहीति ॥ ११॥ 'पिच्छसि' 'जुवणित्थीए'त्ति यौवन- | गा.८५स्त्रियाः-तरुण्याः मुखं-तुण्डं त्वं पश्यसि नन्दिषेणशिष्य १ अर्हन्नक २ स्थूलभद्रसतीर्थ्यकश्वत् , किंभूतं ?-सतिलक- ११२ सपुण्ई सविशेष-कुङ्कमकज्जलादिविशेषसहितं, केन सह ?-रागेण-ताम्बूलादिरागवताऽधरेण-ओष्ठेन सह सकटाक्ष-अर्ध-15 । वीक्षणसहितं सविकारं-धूचेष्टासहितं, यथा तपस्विनामपि मन्मथविकारजनकं, तरले-चपले काकलोचनवत् अक्षिणी यत्र तत्तरलाक्षि इति ॥१२॥ 'पिच्छ०' एवं त्वं बहिर्मुष्ट-बहिर्भागमठारितं पश्यसि-सरागदृष्ट्याऽवलोकयसि, न पश्यसि-13 अन्धवन्न विलोकयसि 'उज्जर'ति मध्यगतं कलिमलं-अपवित्रं यद्वा न पश्यसि कलिमलस्य-अपवित्रस्य 'उज्जति निज-15 रणं मोहेन-रतिमोहोदयेन नृत्यन्-भूतावेष्टित इव चेष्टां कुर्वन् 'सीसघडीकंजियं पियसित्ति मस्तकघटीरसमपवित्रं * पिबसि-पानं करोषि चुम्बनादिप्रकारेणेति ॥१३॥'सीस.' मस्तकोद्भवापवित्ररसं यन्निष्ठीवयसि-थूत्करोषि जुगुप्ससे-कुत्सां । 6 करोपीत्यर्थः यच्च त्वं तदेव 'रागरत्तो' विषयासक्तः मूढो-महामोहं गतः अतिमूर्षिछतः-तीव्रगृद्धिं गतः पिबसि ॥१४॥ 'पूइय' पूतिकशीर्षकपाल-दुगन्धिमस्तककपरं पूतिकनासं-अपवित्रनासिकं पूतिदेहं-दुर्गन्धिगात्रं पूतिकच्छिद्रविवृद्धं ॥४२॥ अपवित्रलघुविवरवृद्धविवरं पूतिकचर्मणा-अशुभाजिनेन पिनद्धं-नियन्त्रितम् ॥ १५॥ 'अंजण' अञ्जनगुणसुविशुद्ध-13 तत्राञ्जनं-लोचने कज्जलं गुणा-नाडकगोफणकराखडिकादयः तैः सुष्टु विशुद्ध-अत्यर्थ शोभायमानं स्नानोद्वर्तनगुणैः | दीप अनुक्रम [१०९-१३३] A lainesibraryana ~86~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------- मूलं [१७...]/गाथा ||८८-११२|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत IP ACCASALA -११२|| सुकुमालं तत्र स्नानमनेकधा क्षालनमुद्वर्त्तनं-पिष्टिकादिना मलोत्तारणं गुणाः-धूपनादिप्रकाराः यद्वा स्नानोद्वर्तनाभ्यां गुणास्तमदुत्वं गतं, पुष्पोन्मिश्रितकेश-अनेककुसुमवासितकुन्तलं-एवंविधं तन्मुखं मस्तकं शरीरं वा बालस्य-मन्मथक-12 कैशबाणविद्धत्वेन गतसदसद्विवेक(स्य)विकलस्य जनयति-उत्पादयति राग-मन्मथपारवश्य येन गुर्वादिकमपि न गणयति. नन्दिषेणाऽऽषाढभूतिमुन्यादिवत् ॥ १६ ॥ 'जं सी' मन्दविज्ञाना-मन्मथग्रहप्रथिलीकृताः 'ज'ति यानि पुष्पाणि-| शाकुसुमानि शीर्षपूरक-मस्तकाभरणमिति भणंति' कथयन्ति पुष्पाण्येव तानि शीर्षस्य पूरक शृणुत यूयमिति ॥ १७ ॥ 'मेउव' मेदः-अस्थिकृत् वसा-विस्नसा चशब्दोऽनेकशरीरान्तर्गतावयवग्रहणार्थः रसिका-त्रणाद्युत्पन्ना 'खेले'त्ति | कण्ठमुखश्लेष्मा 'सिंघाणए यत्ति नासिकाश्लेष्मा 'एयंति एतन्मेदादिकं 'छुभ'त्ति क्षुपध्वं-मस्तके प्रक्षेपयत अथ शीर्षपूरको 'भे' भवतां निजकशरीरे स्वाधीनः-स्वायत्तो वर्तते ॥ १८॥ 'सा किर' सा वर्चस्ककुटी-विष्ठाकुटीरिका | किर'त्ति निश्चयेन दुष्प्रतिपूरा पूरयितुमशक्येत्यर्थः, किंभूता ?-द्विपदा नवच्छिद्रा, उत्कटगन्धविलिप्ता-तीव्रदुर्गन्ध४ व्याप्ता, एवंविधा शरीरकुटी वर्तते, तां च वालजनो-मूर्खलोकः अतिमूञ्छितं यथा स्यात् तथा गृद्धो-लम्पटत्वं गतः ॥ १९ ॥ कथं गृद्ध इत्याह-जं पेम०' यस्मात् प्रेमरागरक्त:-कामरागग्रथिलीकृतो लोकः 'अवयासेऊण'त्ति अवकाश्य-12 प्रकाश्य-प्रकटीकृत्यर्थः 'गूढमुत्तोलिं'ति अपवित्रं रामाभगं पुंश्चिह्न वा जुगुप्सनीयं, दन्तानां मल:-पिप्पिका दन्तम लस्तेन सह 'चिक्कणंगं' चिकणाङ्ग-चिगचिगायमानमङ्गं-शरीरमालिजय च शीर्षघटीकाञ्जिकं-कपालकपरखट्टरसं चुम्बले. नादिप्रकारेण 'पियसित्ति पिबसि, अतृप्तवत् धुंटयसि ॥२०॥ 'दंतमु गजानां दन्तमुशलेषु 'गहणं ति ग्रहणं दीप अनुक्रम [१०९-१३३] R IA-- तं. .प्र.८ Lt L- ~87~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------------- मूलं [१७..../गाथा ||८८-११२|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं वै. प्र. ॥४३॥ -११२॥ आदानं लोकानां वर्तते मांसे चशब्दात् स्नसाशृङ्गादौ शशकमृगाणां ग्रहणं वर्त्तते, चमरीणां वालेषु ग्रहणं, द्वीपिकानां- शरीरविशेलचित्रकव्याघ्रादीनां चर्मनखेषु ग्रहणं, चशब्दादनेकतिरश्चामवयवग्रहणं वर्तते । को भावः?-यथा गजादीनां तिरश्चां दन्तादिकं पासुन्दरता सर्वेषां भोगाय भवति तथा मनुष्यावयवो न भोगाय भवति पश्चादतः कथ्यतेऽनेनादौ जिनधर्मो विधेय इति ॥२१॥'पहागा . ८५इह पूतिककाये-अपवित्रवपुषि च्यवनमुखे-मरणसम्मुखे नित्यकालविश्वस्तः-सदा विश्वासं गतः 'आइक्खसु०'आख्याहि-ग ११२ कथय सद्भाव-हार्द 'किम्हिऽसित्ति कस्मादसि गृद्धस्त्वं मूढो-मूर्खः, यद्वा हे मूढ !-मूर्ख ब्रह्मदत्तदशमुखादिवत्॥२२॥ दंता०'दन्ता अप्यकार्यकरावाला अपि विवर्धमानाः सर्पवद् बीभत्सा भयङ्कराः चापि बीभत्सं भण-कथय किं 'तसिति सातस्मिन् शरीरे 'तमिति त्वं रागं गतः ॥ २३ ॥ 'सिंभेत्ति० कफे पित्ते-मायुषि मूत्रे-प्रस्रवणे गूथे-विष्ठायां 'वसाइ'त्ति, |वसायां स्नसायां 'दंतकुंडीसुत्ति हडभाजने, यद्वाऽनुस्वारोऽलाक्षणिकः दन्तकुड्यां, यद्वा 'दंतकुंडीसुत्ति दंष्ट्रासु |3|| भण-कथय किमर्थ तवाशुचावपि वर्धितो रागः ? ॥२४॥ 'जंघ.' 'जंघट्टियासु ऊरू'त्ति जास्थिकयो-| | रूरू प्रतिष्ठितौ 'पइट्टिया तट्टिया कडीपिट्ठी'त्ति अत्रायं पदसम्बन्धः-तयोरूवोः स्थिता तत्स्थिता कटिः-श्री-| जाणिभवति, कट्यां प्रतिष्ठिता स्थिता 'पिट्ठी'त्ति पृष्ठिर्भवति कथ्यस्थिवेष्टितान्यष्टादश १८ पृष्ठ्यस्थीनि भवन्ति |शरीरे इति ॥ २५॥ 'दो अद्वे अक्ष्यस्थिनी भवतः, पोडश ग्रीवास्थीनि ज्ञातव्यानि, पृष्ठिप्रतिष्ठिताः द्वादश ॥४३॥ किलेति प्रसिद्ध पंशुल्यो भवन्ति ॥ २६ ॥ 'अट्ठिय०' अस्थिभिः 'कढिणे' कठिनेऽस्थिकठिने यद्वा-कठिनान्यस्थिकानि | यत्र तत्तथा तस्मिन् , शिरास्त्रसानां लम्वितराणां बन्धनं यत्र तत्तथा तस्मिन् , मांसचर्मलेपे विष्ठाकोष्ठागारे-वर्चस्कगृहोपमे दीप अनुक्रम [१०९-१३३] ~88~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------------- मूलं [१७...]/गाथा ||८८-११२|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१७] -११२|| कलेवरे हे जीव! तव को रागः? ॥ २७ ॥ 'जह' यथेति दृष्टान्तोपदर्शने नामेति कोमलामन्त्रणे सम्भावने वा 'वच्चकू- वोत्ति वर्चस्ककृपो विष्ठाभृतकपो भवति, किंभूतः?-'भिणिभिणी'त्ति शब्द भणंत'त्ति भणतां-भृशं कथयतां काकाना र कलिः-वायसानां सङ्ग्रामो यत्र स भिणिभिणिभणत्काककलिः, कृमिकैः-विष्ठानीलंगुभिः सुलुसुलेत्येवंशब्दं करोतीतिसुलुसुलायते, स्रोतोभिश्च-रेल्लकैः पूतिक-परमदुर्गन्धं वहति-स्रवतीत्यर्थः विष्ठाकूपः, तथेदमपि शरीरं ज्ञातव्यं मृतावस्थायां रोगाद्यवस्थायां वेति ॥२८॥ अथ शरीरस्य शवावस्थां दर्शयति गाथात्रयेण| उद्वियनयणं खगमुहविकट्टियं विप्पइन्नबाहुलयं । अंतविकट्टियमालं सीसघडीपागडीघोरं ॥२९॥ (११३) |भिणिभिणिभणंतसई विसप्पियं सुलमुलिंतमंसोडं। मिसिमिसिमिसंतकिमिय थिविथिविधिविअंतबी-15 भच्छं ॥ ३० ॥ (११४) पागडियपंमुलीयं विगरालं सुक्कसंधिसंघायं । पडियं निचेयणयं सरीरमेयारिसं जाण ॥ ३१॥ (११५) वचाउ असुइतरं नवहिं सोएहिं परिगलंतेहिं । आमगमल्लगरूवे निधेयं बच्चह सरीरे ॥ ३२॥ (११६) दो हत्था दो पाया सीसं उच्चंपियं कबंधमि । कलमलकोडागारं परिवहसि दयादयं वच्चं ॥३३॥ (११७) तं च किर रूववंतं वर्चतं रायमग्गमोइण्णं । परगंधेहिं सुगंधय मन्नतो अप्पणो गंधं ॥ ३४॥ (११८) पाडलचंपयमल्लियअगरुयचन्दणतुरुक्कवामीसं । गंधं समोयरंतं मनतो अप्पणो गंधं ॥३५॥ (११९) सुहवाससुरहिगंधं वायसुहं अगरुगंधियं अंगं । केसा पहाणसुगंधा कयरोते अप्पणो गंधो? ॥३६।। (१२०) अच्छि-| |मलो कन्नमलो खेलो सिंघाणओय पूओ अ। असुईमुत्तपुरीसो एसो ते अप्पणो गंधो ॥३७॥ (१२१) (सूत्रं १८) दीप अनुक्रम [१०९-१३३] शरीरस्य शव-अवस्थां दर्शयते ~89~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------- मूलं [१८]/गाथा ||११३-१२१|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१८] ११3. -१२१|| तं. वै. प्र.18 उदिभिणि पाग' उद्धृते-निष्कासिते काकादिभिनयने-लोचने यस्य यस्मिन् यस्माद्वा तदुद्धृतनयनं, खग-1 शबशरी |रयोः स्वमुखैः-विहगतुण्डैः 'विकट्टियंति विकर्त्तितं-विशेषेण स्थाने स्थाने पाटितं खगमुखविकर्तितं, विप्रकीणों-अवकीणोंद्र ४४॥ विरलावित्यर्थः 'यालय'ति बाहू-प्रवेष्टौ यस्य शवस्य तद् विप्रकीर्णबाहु 'अंतविकट्टियमालं'ति विकर्षितान्त्रमालं| रूपं गा. शृगालादिभिरिति 'सीसघडीपागडी'त्ति प्रकटया शीर्षघटिकया-तुम्बलिकया घोरं-रौद्रं ॥ २९॥ 'भिणि' 'भिणि ११३-१२१ भिणिभणंत'त्ति धातूनामनेकार्थत्वादुत्पद्यमानः शब्दो यत्र तत् भिणिभिणभणच्छब्दं मक्षिकादिभिर्गणगणायमान सू.१८ मित्यर्थः, विसर्पद्-अङ्गादिशिथिलत्वेन विस्तारं व्रजत् 'सुलुसुलिंतमंसोडंति सुलुसुलायमानासपुटं 'मिसिमिसिमिसं तकिमियति मिसिमिसित्ति-मिसन्तः शब्दं कुर्वन्तः कृमयो यत्र तत् मिसिमिसिमिसत्कृमिक 'थिविधिविथिविअंत-18 तबीभच्छंति छवछबायमानैरन्वीभत्सं-रौद्रमित्यर्थः ॥३०॥ 'पग' प्रकटिता:-प्रकटत्वं प्राप्ताः पांशुलिका यत्र तत्प्रकटितपांशुलिक, विकराल-भयोत्पादक, शुष्काश्च ताः सन्धयश्च शुष्कसन्धयस्तासां सङ्घातः-समुदायो यत्र तच्छु-11 कसन्धिसहात, पतितं गर्तादौ निश्चेतनक-चैतन्यविवर्जितं शरीरं-वपुः एतादृशं-पूर्वोक्तधर्मयुक्तं त्वं 'जाण'त्ति 5 जानीहि, 'जाणे' इति पाठे तु निश्चेतनकं शरीरमहमीदृशं जानामीति ॥ १॥ 'वच्चाउ०' नवभिः स्रोतोभिः परिग-15 लद्भिः वर्चस्कात्-गूथात् अशुचितरं-अपवित्रतमं 'आमगमल्लगरूवे'त्ति अपक्कशरावतुल्ये शरीरे निर्वेद-वैराग्यं | जत, विष्णुश्रीशरीरे विक्रमयशोराजस्येव ॥३२॥ 'दो हत्था द्वे हस्ते द्वे पादे 'सीसं उचंपियंति शीर्षमुत्-प्रा-18|| बल्येन चम्पितं यत्र तच्छीपर्पोच्चम्पितं तस्मिन् , यद्वा-शीर्षणोत्-प्राबल्येन चम्पितं-आक्रमितं यत्तत् तथा तस्मिन् ,प्राकृतत्वाद MODMROSCARSACH दीप अनुक्रम [१३४-१४२] ॥४४॥ JHNEditutio- mil ~ 90 ~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं [१८]/गाथा ||११३-१२१|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक [१८] PARSANELSCREAST ||११३-१२१|| है नुस्वारः, कलमलकोष्ठागारे एवंविधे कबन्धे 'दुयादुर्य'ति शीघ्रं शीघ्रं किं वर्चस्कं परिवहसि त्वमिति, अत्र यथायोगं विभ-है शक्तिपरिणामो ज्ञेय इति ॥३॥'तं च कि०' च पुनस्तच्छरीरं 'किरत्ति सम्भावनायां रूपवत् प्रजत् राजमार्ग 'ओइन्नति प्राप्त, तत्र परगन्धैः-पाटलचम्पकादिभिः सुगन्धकं जातं, तत्र च त्वमात्मनो गन्धं 'मन्नतो'त्ति जानन् हर्षयसीति ॥३४॥ परगन्धं दर्शयति-'पाड' पाटलचम्पकमल्लिकाऽगुरुकचन्दनतुरुष्कमिश्रं वा-अथवा मिश्र-संयोगोत्पन्नं यक्षकर्दमादिकं| गंधं कस्तूर्यादिकं किं भूतं?-'समोयरंत'ति सर्वतो विस्तरत्, एवंविधं परगन्धमात्मनो गन्धमिति 'मन्नतोत्ति जानन् हर्षयसीति ॥ ३५ ॥ 'सुहवा.' शुभवासैः-सुन्दरचूर्णैः सुरभिगन्धो-सुष्टुगन्धो यत्र तत् शुभवाससुरभिगन्धं वातैः शीतलादिभिः सुखं शुभं वा यत्र तत् वातसुर्ख, अगुरुगन्धो धूपनादिप्रकारेण जातोऽस्येति अगुरुगन्धि, तत् है एवंविधं अझंगात्रं वर्तते 'केसा पहाणसुगंध'त्ति ये च केशा:-कचास्ते स्नानेन-सवनेन सुगन्धा वर्त्तन्ते, अथ कथय त्वं कतर:-कतमस्ते-तव आत्मनो गन्ध इति ? ॥ ३६॥ आत्मगन्धं दर्शयति यथा-'अच्छि०' अक्षिमलो-दूषिकादिः कर्णमलः श्लेष्मा-कण्ठमुखश्लेष्मा 'सिंघाणउत्ति नासिकाश्लेष्मा चशब्दादन्योऽपि जिह्वामलगुह्यमलकक्षामलादिः, किंभूतः ?-'पूईओ यत्ति पूतिको-दुर्गन्धस्तथाऽशुचि-सर्वप्रकारैरशुभं मूत्रपुरीषं-प्रस्रावगूथं एषः-अनन्तरोक्तस्ते-तवात्मनो गन्धः ॥ ३७॥ अथ वैराग्योत्पादनार्थ स्त्रीचरित्रं दर्शयति, यथा जाओ चिय इमाओ इत्थियाओ अणेगेहिं कइवरसहस्सेहिं विविहपासपडिबद्धेहिं कामरागमोहहिं वन्नियाओ ताओऽवि एरिसाओ, तंजहा-पगइविसमाओ १ पियवयणवल्लरीओ २ कइयवपेमगिरितडीओ ३ दीप अनुक्रम [१३४-१४२] K a jaibesitatiry.org अथ स्त्री-स्वरुपम् दर्शयते ~91~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१९] + |||१२१.|| दीप अनुक्रम [१४३] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं+अवचूर्णि:) मूलं [१९] / गाथा || १२१...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं. वै. प्र. ॥ ४५ ॥ अवराहसहस्सघरणीओ ४ पभवो सोगस्स ५ विणासो बलस्स ६ सूणा पुरिसाणं ७ नासो लज्जाए ८ संकरो अविणयस्स ९ निलयो नियडीणं १० खणी वरस्स ११ सरीरं सोगस्स १२ भेओ मज्जायाणं १३ आसाओ रागस्स १४ निलओ दुच्चरियाणं १५ माईए संमोहो १६ खलणा नाणस्स १७ चलणं सीलस्स १८ विग्धो धम्मस्स १९ अरी साहूणं २० दूसणं आयारपत्ताणं २१ आरामो कम्मरयस्स २२ फलिहो मुखमग्गस्स २३ भवणं दरिदस्स २४ अवियाओ इमाओ आसीविसोविव कुबियाओ २५ मत्त गओ विव मयणपरवसाओ २६ वग्धीविव दुहिययाओ २७ तच्छन्नकृबोविव अप्पगासहिययाओ २८ मायाका| रओ विव उवयारसयबंधणपउत्तीओ २९ आयरियसविधपिव बहुगिज्झसन्भावाओ ३० फुंफुयाविव अंतोदहणसीलाओ ३१ नग्गयमग्गो विव अणवद्वियचिताओ ३२ अंतो दुवणो विव कुहियहिययाओ ३३ किण्हसप्पोविव अविस्ससणिजाओ ३४ संघारोविव छन्नमायाओ ३५ संज्झन्भरागोचिव मुहुत्तरागाओ ३६ समुद्दवीचिविव चलस्सभावाओ ३७ मच्छोविव दुष्परियत्तणसीलाओ ३८ वानरोविव चलचित्ताओ ३९ मधूविच निविसेसाओ ४० कालोविव निरणुकंपाओ ४१ वरुणो विव पासहत्थाओ ४२ सलिलमिव निन्नगामिणीओ ४३ किवणोविव उन्तानहत्थाओ ४४ नरओविव उत्तासणिजाओ ४५ खरोविव दुस्सीलाओ ४६ दुट्टस्सोविव दुद्दमाओ ४७ बालो इव मुहतहिययाओ ४८ अंधयारमिव दुप्पवेसाओ ४९ विसवल्लीविव अणहिलपणिजाओ ५० दुट्टग्गाहा इव वापी अणवगाहाओ ५१ ठाणभट्ठोविव इस्सरो अप्पसंसणिजाओ ५२ Fur Prate & Pomonal Use Only ~92~ स्त्रीस्वरूपं सू. १९ ।। ४५ ।। jainelibrary.org Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१९] • |||१२१.|| दीप अनुक्रम [१४३] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं+अवचूर्णि:) मूलं [१९] / गाथा || १२१...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र- [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: Jass Education I किंपागफलमिव मुहमहुराओ ५३ रिक्तमुट्ठीविव बाललोभणिजाओ ५४ मंसपेसीगहणमिव सोवदवाओं ५५ जलियचुडिलीविव अमुच्यमाणदहणसी लाओ ५६ अरिट्ठमिव दुल्लंघणिज्जाओ ५७ कूटकरिसावणो विव कालविसंवायणसीलाओ ५८ चंडसीलोविव दुक्खरक्खियाओ ५९ अहविसाओ ६० दुर्गुछियाओ ६१ दुरुवचा| राओ ६२ अगंभीराओ ६३ अविस्ससणिजाओ ६४ अणवत्थियाओ ६५ दुक्खरक्खियाओ ६६ दुक्खपालियाओ ६७ अरइकराओ ६८ कक्कसाओ ६९ दढवेराओ ७० रूवसोहग्गमओमत्ताओ ७१ भुयगगइकुडिलहिययाओ ७२ कंतारगट्टाणभूयाओ ७३ कुलसयणमित्तभेयणकारिकाओ ७४ परदोसपरगा सियाओ ७५ कयग्धाओ ७६ बलसोहियाओ ७७ एगंतहरणकोलाओ ७९ चंचलाओ ७९ जोहभंडोवरागो विव महरागविरागाओ ८० अवियाई ताओ अंतरंगभंगसयं ८१ अरज्जुओ पासो ८२ अदारुया अडवी ८३ अणलस्स निलओ ८४ अइक्खा बेयरणी ८५ अणामिया वाही ८६ अविओगो विप्पलाओ ८७ अरु उवसगो ८८ रहवंतो चित्तविन्भमो ८९ सवंगओ दाहो ९० अणग्भया बज्रासणी ९१ असलिलप्पवाहो ९२ समुहरओ ९३ 'जाओ चिय इमाओ' इत आरभ्य 'असिव छिज्जिडं जे' इति पर्यन्तं गद्यं, या एव इमाः- वक्ष्यमाणाः स्त्रियः अनेकैः कविवरसहस्रैः विविधपाशप्रतिवद्धैः कामरागमोह :- मन्मथरागमूढैः 'वन्नियाउ'त्ति वर्णिताः शृङ्गारादिवर्णनप्रकारणेति 'ताओबि'त्ति ता अपि ईदृश्यः- वक्ष्यमाणस्वरूपा ज्ञातव्याः, तद्यथा-'पगइविसमाओ' ति प्रकृत्या स्वभा वेन विषमा वक्रभावयुक्ताः, आवश्यकोक्कपतिमारिकादिवत् १ 'पिय०' प्रियवचनवलर्यः- मिष्टवाणीमञ्जर्यः ज्ञातो. Fu Prate & Pemonal Use Only ~93~ jainelibrary.org Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: खीस्वरूपं सू. १९ [१९] ||१२१.॥ तं. .प्र. 1 जिनपालितजिनरक्षितोपसर्गकारिणीरत्नदीपदेवीवत् २ 'कइ.' कैतवप्रेमगिरिनद्या, कुशिष्यकूलवालुकपातिका- मागधिकागणिकावत् ३ 'अवरा०' अपराधसहस्रगृहरूपाः, ब्रह्मदत्तमातृचुलनीवत् ४ 'पभवो' अयं स्त्रीरूपो वस्तु- ॥४६॥ स्वभावः प्रभवः-उत्पत्तिस्थानं, कस्य ?-शोकस्य, सीतागमने रामस्येव ५ 'विणा०' विनाशो बलस्य-पुरुषबलस्य, क्षयहेतुत्वाद्, उक्तश्च-"दर्शने हरते चित्तं, स्पर्शने हरते बलम् । सङ्गमे हरते वीर्य, नारी प्रत्यक्षराक्षसी ॥१॥" यद्वा-5 दिविनाश:-क्षयः, कस्य :-बलस्य-सैन्यस्य कूणिकस्त्रीपद्मावतीवत् ६ 'सूणा०' पुरुषाणां शुना-वधस्थानं सूरीकान्ता- राज्ञीवत् ७ नाशो लज्जायाः, लज्जारहितत्वात् , लक्ष्मणप्रार्थनकारिकासूर्पणखावत्, यद्वा लज्जानाशः अस्याः सङ्गे पुरुषस्य लज्जानाशो भवति, गोविन्दद्विजपुत्रवत् , यद्वा नाशः-क्षयः 'लज्जाए'त्ति लज्जायाः-संयमस्याषाढभूतियतिदाचारित्ररजलुण्टिकानटपुत्रिकावत् ८ 'संक०' शंकरः-अवकरः उकरडो इति जनोक्तिः, कस्य ?-अविनयस्य, श्वेतातभल्यादिपुरुषाणां भार्यावत् ६'निल' निलयो-गृह, कासां ?-निकृतीनां-आन्तरदम्भानामित्यर्थः,चण्डप्रद्योतप्रेषिताभय|कुमारवश्चिकावेश्यावत् १० 'खणीति खनिः-आकरः, कस्य ?-वैरस्य, जमदग्नितापसस्त्रीरेणुकावत् ११ शरीरं शोकस्य | वीरककान्दविकखीवनमालावत् १२ भेदो-नाशः मर्यादायाः-कुलरूपाया श्रीपतिश्रेष्ठिपुत्रीवत् यद्वा मर्यादायाः संय-| मलक्षणायाः विनाशः, आर्द्रकुमारसंयमस्य आर्द्रकुमारपूर्वभवस्त्रीवत् १३ 'आसाउ'त्ति आशावाञ्छा रागस्य-कामरागस्य तद्धेतुकत्वात् , यद्वा आश्रयः-स्थानं रागस्य, उपलक्षणत्वात् द्वेषस्यापि, आर्षत्वादाकारः, यद्वा आ-ईपदपि अ इति | निस्वादः आ अस्वादः, कस्य !-रागस्येति-धर्मरागस्य १४ 'निल' निलयो-गेहं, केषां ?-दुश्चरित्राणां भूयगमचौरभ LOCCASTLESSOCTORS दीप अनुक्रम [१४३] ४६॥ ~94~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१९] + ||१२९.|| दीप अनुक्रम [१४३] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं+अवचूर्णि:) मूलं [१९] / गाथा || १२१...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: Jass Education गिनीवीरमतीवत् १५ 'माई०' मातृकायाः समूहः कमलश्रेष्ठिसुतापद्मिनीवत् १६ 'ख०' स्खलना-खण्डना ज्ञानस्य - श्रुतज्ञानादेः उपलक्षणाच्चारित्रादेः रण्डाकुरण्डामुण्डिकादिबहुप्रसङ्गे तदभावत्वादन कक्षुल्लकवत् १७ 'चल० चलनं शीलस्य - ब्रह्मव्रतस्य, ब्रह्मचारिणां तस्याः सङ्गे तन्न तिष्ठतीतिभावः १८ 'विग्घो० 'त्ति विघ्नः - अन्तरायः धर्मस्यश्रुतचारित्रादेः १९ 'अरि०' अरिः-निर्दयो रिपुः केषां १ - साधूनां - मोक्षपथसाधकानां, चारित्रप्राणविनाशहेतुत्वात् महानरककारागृहप्रक्षेपकत्वाच्च कूलवालुकस्य मागधिकावेश्यावत् २० 'दूष०' दूषणं- कलङ्कः, केषां ? - 'आया०' ब्रह्मव्रताद्याचारोपपन्नानां २१ आरामः - कृत्रिमवनं, कस्य :-कर्मरजसः - कर्मपरागस्य, यद्वाकर्म च - निविडमोहनीयादि रश्च - कामः चश्च चौरः कर्मरचं तस्यारामो-वाटिका २२ 'फलिहो'त्ति अर्गला यद्वा झंपकः मोक्षमार्गस्य- शिवपथस्य २३ भवनं गृहं दारिद्र्यस्य कृतपुण्यकाश्रितवेश्यावत् २४ 'अवि याओ इमाओ'त्ति अपि च इमा वक्ष्यमाणाः स्त्रियः एवंविधाः भवन्ति, 'आसीविसो विव कु०' वियशब्दो इवार्थे, आशीविषवत्-दंष्ट्राविषभुजङ्गमवत् कुपिताः- कोपं गताः भवन्ति | २५ मत्तगज - उन्मत्तमतंगज इव मदनपरवशा मन्मथविह्वला भवन्ति, अभयाराज्ञावत् २६ 'वग्घी ०' व्याघ्रीवत् दुष्टह दयाः- दुष्टचित्ताः, पालगोपाला परमातामहालक्ष्मीवत् २७ 'तण०' तृणछन्नकूप इव-तृणसमूहाच्छादितान्धुवत् अप्रका शहृदयाः, शतकश्रावकभार्यारेवतीवत् २८ 'माया' मायाकारक इव-परवञ्चकमृगादिबन्धक इवोपचारशतेन बन्धनशतप्र योनयः, तत्रोपचारशतानि - औपचारिकवचन चेष्टादिशतानि बन्धनानि रज्जुस्नेहादिबन्धनशतानीव तेषां 'पउन्तीड 'तिकर्न्यः २८ 'आयरि०' अत्रापि विवशब्द इवार्थे, आचार्य सविधमिव-अनुयोगकृत्समीपमिव बहुभिः - अनेकप्रकारैरने Pre & Pomonal Use Only ~ 95~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व], प्रकीर्णकसूत्र-[५] "तंदलवैचारिक" मलं एवं विजयविमल गणि कता अवचर्णि: तं. वै.प्र. 6-2-96 ॥४७॥ ||१२१.॥ कपुरुषर्वा ग्राह्यः-ग्रहीतुं शक्यः यद्वाऽऽर्षत्वात् 'अगिा 'त्ति अग्राह्यः सर्वथा ग्रहीतुमशक्यः सद्भावः-आन्तरचित्ताभि- स्त्रीस्वरूपं & प्रायो यास ताः बहुग्राह्यसद्भावाः बहुअग्राह्यसद्भावा वा २९ 'फुफु'फुकः-करीषाग्निः कोउ इतिजनोक्तिस्तद्वत् | | अन्तो दहनशीलाः पुरुषाणामन्तो दुःखाग्निज्वालनात् , उक्तश-"पुत्रश्च मूों विधवा च कन्या, शठं च मित्रं चपलं कलत्रम् । विलासकालेऽपि दरिद्रता च, विनाऽग्निना पञ्च दहन्ति देहम् ॥१॥" ३० 'नग्ग' विषमपर्वतमार्गवत् अनवस्थितचित्ताः नैकत्रस्थापितान्तःकरणा इत्यर्थः, अनङ्गसेनसुवर्णकारजीवस्त्रीवत्, यद्वा नग्नकमागवत्-जिनकल्पिपन्थ-IC वत् नैकत्रचित्ताः यद्वा नग्नकमार्गवत्-भूतावेष्टिताचारवत् नैकत्रचित्ताः ३१ अंतोदु०' अन्तर्दुष्टत्रणवत् कुथितहृदयाः, तिलभटोन्मत्तरामावत् ३२ 'किण्ह' कृष्णसर्पवत् 'अवि०' विश्वासं कर्तुमयोग्या इत्यर्थः ३३ 'संघा.' संहारवत्-| बहुजन्तुक्षयवत् 'छन्नमाया०' प्रच्छन्नमातृकाः ३४ 'संझ०' सन्ध्याभरागवत् मुहूर्तरागाः तथाविधदुष्टवेश्यावत् ३५ 'समुद०' समुद्रवीचिवत्-सागरतरङ्गवत् चलस्वभावा:-चञ्चलस्वाभिप्रायाः ३६ 'मच्छो' मत्स्यवत् दुष्परिवत्तेनशीलाः | |महता कष्टेन परिवर्तनं-पश्चाद् वालयितुं शीलं-स्वभावो यास तास्तथा ३७ 'वान' वानरवत् चलचित्ता:-चञ्चलाभिल प्रायाः ३८ 'मच्चुवि०' मृत्युवत्-मरणवत् निर्विशेषाः-विशेषवर्जिताः ३९ 'कालो'त्ति दुर्भिक्षकालः एकान्तदुष्षमा-8 कालो वा यद्वा लोकोक्तौ दुष्टसर्पः तद्वन्निरनुकम्पाः-दयांशवर्जिताः, कीर्तिधरराजभार्यासुकोसलजननीवत् ४० ॥४७॥ 'वरु०' वरुणवत् पाशहस्ताः पुरुषाणामालिङ्गनादिभिः कामपाशबन्धनहेतुहस्तत्वात् ४१ 'सलिल' सलिलमिव& जलमिव प्रायो नीचगामिन्यः स्वकान्तनृपनदीप्रक्षेपिकाधमपङ्गुकामुकीराज्ञीवत् ४२ 'किव०' कृपणवत् उत्ता %20-67-62-60-56-- दीप अनुक्रम [१४३] 0-%% NEucational ~96~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: C [१९]] ||१२१.॥ नहस्ताः सर्वेभ्यो मातापितृवन्धुकुटुम्बादिभ्यो विवाहादावादानहेतुत्वात् ४३ 'नरउ०' नरकवत् उपासनीयाः,दुष्टकर्मकारित्वात् महाभयङ्कराः लक्षणासाध्वीजीववेश्यादासीघातिकाकुलपुत्रभार्यावत् ४४ 'खरो' खरवत्-विष्ठाभक्षकगर्दभवत्। दुःशीला:-दुष्टाचाराः, निर्लजत्वेन यत्र तत्र ग्रामनगरारण्यमार्गक्षेत्रगृहोपाश्रयचैत्यगृहग वाटिकादौ पुरुषाणां वाञ्छाकारित्वात् , तथाविधवेश्यादुष्टदासीरण्डिकामुण्डिकादीनामिव ४५ 'दुहस्सो' दुष्टाश्ववत्-कुलक्षणघोटकवत् दुर्दमाः । सर्वप्रकारैर्निर्लजीकृताः, अपि-पुनः पुरुषसंयोगे स्वकामाभिप्रायकर्षणहेतुत्वात् ४६ 'बालों' वालवत्-शिशुवत् मुहूर्तहृदयाः, मुहूर्त्तानन्तरं प्रायोऽन्यत्र रागधारकत्वात्, कपिलब्राह्मणासक्तदासीवत् ४७ 'अंधका०' कृष्णभूतेष्टादिभवमन्धकारं अरुणवरसमुद्रोद्भवतमस्कार्य वा तद्वद् दुष्प्रवेशा मायामहान्धकारगहनत्वेन देवानामपि दुष्प्रवेशत्वात् ४८ 'विस विषवल्लीवत्-हालाहलविषलतावत् 'अण' अनाश्रयणीयाः-सर्वथा सङ्गादिकनुमयोग्याः, तत्कालप्राणप्रयाणहेतुखात् पर्वतकराज्ञो नंदपुत्रीविषकन्यावत् ४९ 'ट्ट' दुष्टग्राहा-निर्दयमहामकरादिजलजन्तुसेवितवापीवत् अनवगा-ल ह्याः-महता कष्टेनापि अप्रवेशयोग्याः सुदर्शनश्रेष्ठिवत् ५. 'ठाण' स्थानभ्रष्टः ईश्वरो-ग्रामनगरादिनायकस्तद्वत् यद्वा स्थानं-चारित्रगुरुकुलवासादिकं तस्मात् भ्रष्टः ईश्वरः-चारित्रनायकः साधुरित्यर्थः तद्वत् , यद्वा स्थानसिद्धान्तव्याख्यानरूपं तस्मात् भ्रष्टः, उत्सूत्रप्ररूपणेन, ईश्वरो-गणनायक आचार्य इत्यर्थः तद्वत्, यद्वा स्थानभ्रष्टो-दुष्टा-15 चारे रक्त इत्यर्थः, ईश्वरः-सत्यकीविद्याधरस्तद्वत, अप्रशंसनीयाः-साधुजनैःप्रशंसां कर्नु योग्या नेत्यर्थः ५१ किंपाग किंपाकफलमिव-विषवृक्षफलमिव मुखे-आदौ मधुराः महाकामरसोत्पादकाः परं पश्चाद्विपाकदारुणाः ब्रह्मदत्तचक्रि दीप अनुक्रम [१४३] ~97~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) --------------- मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ॥४८॥ [१९ ||१२१.॥ तं. वै.प्र.14वत् ५२ 'रित्तमुट्ठी' रिक्कमुष्टिवत्-पोलकमुष्टिवत् बाललोभनीयाः-अव्यक्तजनभोलनयोग्याः वल्कलचीरितापसवत् ५३ 'मंस' मांसपेसीग्रहणमिव सोपद्रवाः, यथा केनापि सामान्यपक्षिणा कुतश्चित्स्थानात् मांसपेसी प्राप्ता तस्यान्य- II दुष्टपक्षिकृताः अनेके शरीरपीडाकारिण उपद्रवा भवन्ति तथा रामाग्रहणेऽनेके इहभवे परभवे च दारुणा उपद्रवा| जायन्ते, यद्वा यथा मत्स्यानां मांसपेसीग्रहणं सोपद्रवं तथा नराणामपि स्त्रीग्रहणमित्यर्थः ५४ 'जलि.' अमुश्चन्तीअत्यज्यमाना 'जलियचुडिलीविव' प्रदीप्ततृणपूलिकेव 'दहनसीला' ज्वालनस्वभावा ५५ 'अरि०' अरिष्ठमिव निबिडपापमिव दुर्लकनीयाः ५६ कूड' कूटकार्षापण इव असत्यनाणकविशेष इव कालविसंवादनशीला:-कालविघटनस्वभावाः अकालचारिण्य इत्यर्थः ५७ 'चंड' चण्डशील इव-तीवकोपीव दुःखरक्षिताः ५८ 'अतिविसात्ति अतिविषादाः दारुणविषादहेतुत्वात् , यद्वा 'अतीति अतिक्रान्तो गतोऽकार्यकरणे विषादः-खेदो यासां तास्तथा, यद्वा अतीति-भृशं विषं अतिविष अतिविष आ-समन्तात् ददति पुरुषाणां सूरीकान्तावत् यास्ताः अतिविषादा, यद्धा अतीति भृशं वीति नानाविधः स्वादो-विषयलाम्पव्यं यासां ता अतिविस्वादाः, अथवा अतिविषयात्-प्रबलपञ्चेन्द्रियलाम्पट्यात् षष्ठी नरकभूमि यावत् सुसढमातृवत् गच्छन्ति यास्ता अतिविषयगाः, प्राकृतत्वाद्यकारलोपे सन्धिः, यद्वा स्वेन्द्रियविषयाप्राप्ती अतिविषादः-तीव्रखेदो यासां ताः अतिविषादाः, यद्वा अतिकोपात् अतिविर्षतीव्रविषमदन्ति-भक्षयन्तीति अतिविषादा इति, यद्वा अतिवृष-तीनं पुण्यं येषां ते अतिवृषा-मुनयस्तेषामा-समन्तात् वसत्यन्तो बहिश्च 'कायते' यमायते यम इवाचरति चारित्रमाणकर्षणत्वेन यास्ता अतिवृषाकार, यद्वा-'कायंति' अग्न 256456456456254456-1569ॐ * * दीप अनुक्रम [१४३] * rill॥४८॥ * * ~ 98~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-८), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: 5256k [१९]] ||१२१.॥ यन्ति समितिगृहज्वालनेन यास्ता अतिवृषाकाः, यद्वा-लोकानामतिवृषे-तीव्रपुण्यधने आ-भृशं चायंति-चौर इवाचरन्ति यास्ता अतिवृषाचाः ५९ 'दुगुं०' जुगुप्सनीया जुगुप्सां कर्त योग्याः मुनीनां ६० 'दुरु०' दुरुपचाराः-दुष्टोप-18 चाराः-दुष्टोपचारान्वितवचनादिविस्तारो यासां तास्तथा ६१ अगंभीराः-गांभीर्यादिगुणरहिताः ६२ 'अवि.' अविश्वसनीयाविश्वम्भं कर्तुं योग्या न ६३ 'अण' अनवस्थिता, नैकस्मिन् पुरुष तिष्ठन्तीत्यर्थः ६४ दुःखरक्षिताः-कष्टेन रक्षणयोग्या यौवनावस्थायाम् ५५ दुःखपालिता-दुःखेन पालयितुं शक्याः बालावस्थायाम् ६६ अरतिकरा-उद्वेगजनकाः ६७12 कर्कशा:-इह परत्र च कर्कशदुःखोत्पादकत्वात् ६८ दृढवैराः-इह परत्र च दारुणवैरकारणत्वात् ६९ रूपसौभाग्यमदोन्मत्ताः, तत्र रूप-चार्वाकृतिः सौभाग्यं स्वकीर्तिश्रवणादिरूपं मदो-मन्मथजगर्वः ७० 'भु०' भुजगगतिवत् कुटिलहृदयाः ७१ 'कंता' कान्तारगतिस्थानभूताः-कान्तारे-दुष्टश्वापदाकुले महारण्ये गतिश्च-एकाकित्वेन गमनं स्थानं च-एकाकित्वेन | वसनं तयोभूताः-तुल्याः, दारुणमहाभयोत्पादकत्वात् ७२ 'कुल' कुलस्वजनमित्रभेदनकारिका:-वंशज्ञातिसुहृद्विनाश-18 जनिकाः ७३ 'पर' परदोषप्रकाशिकाः-अन्यदोषप्रकटकारिकाः ७४ 'कय' कृतं-वस्त्राभरणपात्रादि प्रदत्तं प्रन्तिसर्वथा नाशयन्तीत्येवंशीलाः कृतघ्नाः ७५ 'बलसों०' बलं-पुरुषवीर्य प्रति सङ्गेऽसङ्गे वा शोधयन्ति-गालयन्तीत्येवंशीलाः | बलशोधिकाः, यद्वा बलेन-स्वस्वामर्थ्यलक्षणेन निशादी जारपुरुषादीनां शोधिकाः-तच्छुद्धिकारिकाः बलशोधिकाः | यद्धा बक्यो रलयोरक्यात् वरशोधिकाः स्वेच्छया पाणिग्रहणकारित्वात् धम्मिल्लस्त्रीवृन्दवत् ७६ 'एक०' एकान्ते-विजने | हरणं नेतन्यपुरुषाणां विषयार्थमेकान्तहरणं यद्वा एकान्ते-दूरग्रामनगरदेशादी स्व कुटुम्बादिजनरहिते हरण-तत्र दीप अनुक्रम [१४३] ykSOCTORS SC-GOR-MS-OCT SCRECA-1-5-16 व.वै.प्र.९ ~99~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ----------- मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ॥४९॥ [१९] ||१२१.॥ ॐॐॐ55555 पुरुषाणां विषयार्थ लात्वा गमनमित्यर्थः, तत्र कोला:-वनशूकरतुल्याः, यथा शूकरः कमपि सारं कन्दादिकं भक्ष्यं प्राप्य विजने | स्त्रीस्वरूपं गत्वा भक्षयति तथेमाः ७७ चञ्चला:-चपलाः ७८ 'जोइभंडोवरागो विव मुहरागविरागाओ'त्ति ज्योतिर्भाण्डो-18 सू.१९ परागवत्-अग्निभाजनसमीपरागवत् मुखरागविरागाः यथाऽग्निभाजनसमीपं मुखं रागवत् भवति अन्ते विराग तथेमाः यद्वा 'जोइभंडो विव रागाओत्ति०' पाठे तु ज्योतिर्भाण्डस्येवोपरागाः, यथा ज्योतिर्भाण्डं-अग्निभाजनं उप-समीपे । | रागवत् भवति तथेमा वस्त्रादिभिरुप-समीपे रागवत्यो भवन्तीत्यर्थः ७९ 'अवि याइंति.' अपिचेत्यभ्युच्चये 'आई'ति | 8 || वाक्यालङ्कारे 'ताओं' ताः स्त्रियः 'अंतरं' अन्तरङ्गभङ्गशतं-अभ्यन्तरविघटनशतमस्याः पक्षपाते पुरुषस्य परस्परं| | मैत्र्यादिविनाशहेतुत्वात्, यद्वा अन्तः-मध्ये 'रंग'ति पुरुषाणां ब्रह्मव्रतचारित्रादिरागस्तस्य भङ्गशतं तस्य विघ्नहेतु-17 त्वात् ८० अरग्जुकः पाशः रज्जुकं विना बन्धनमित्यर्थः ८१ 'अदारुय'त्ति अदारुका-काष्ठादिरहिता अटवी-कान्तारं, | यथा अदारुकाऽटवी मृगतृष्णाहेतुर्भवति तथेमाः यद्वा काष्ठादिरहिताऽटवी कदापि न ज्वलति तथेमाः पापं कृत्वा न | ज्वलन्ति, न पश्चात्तापं कुर्वन्तीत्यर्थः, वृषभकलङ्कदात्रीश्रावकभार्यावत् ८२ 'अणाल' न आलस्यं-अनुत्साहोऽनालस्यं 81 तस्य निलयः, अकार्यादी सादरं प्रवृत्तिहेतुत्वात् ८३ 'अइक्ख० ईक्ष दर्शनाङ्कनयो'रितिवचनात् अनीक्ष्यवैतरणी-अदृश्यवैतरणी परमाधार्मिकविकुर्वितनरकनदी तत्सङ्गे तदवाप्तिहेतुत्वात् ,अतीक्ष्णवैतरणी वा ८४ 'अणा०' अनामिको-नामरहितो 'जाइमभंडोवगारोविध महरागविरागाओ' इत्यपि पाठः व्याग्या च तत्र जात्यभाण्डोपकारवत् मुख रागविरागा। यथा जातिभाण्टख उपकारालावसरे स्तुतिकरणरूपो मुखरागो भवति अन्तश्च विरागो-पागाभावः एवं खीजनस्थापीतिभावः, युक्तश्चार्य पाठः दीप अनुक्रम [१४३] ~ 100~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व], प्रकीर्णकसूत्र-[५] "तंदलवैचारिक" मलं एवं विजयविमल गणि कता अवचर्णि: A [१९]] ||१२१.३॥ CRORESCRECOREAMGAROGRESHERE व्याधिः-असाध्यरोगः इह परत्र च तत्कारणत्वात् ८५ 'अविओ०' न विद्यते वियोगः-पुत्रमित्रादिविरहो यत्र सः अवियोगः एवंविधो विप्रलापः-परिदेवनं ८६ 'अरु०' अरुक्-रोगरहितः उपसर्गः, यद्वाऽपत्वाद् वकारलोपे अरूपोरूपरहितः उपसर्गः-उपपातः ८७ 'रई' रतिः-कामप्रिया विद्यते अस्येति रतिमान् कन्दर्पोऽयमिति चित्तभ्रमः चित्तभ्रमकारणत्वात् , यद्वा रतिमान्-सुखदायी मनोभ्रमो-मनोविकारः ८८ 'सबंग' सर्वाङ्गः-सर्वशरीरव्यापी दाहः ८९ 'अणब्भया बजासणी'ति अनधका-अभ्रकरहिता वज्राशनिः-विद्युत् , यद्वा इयं-स्त्री 'असणी'त्ति अशनिः-विद्युत्, |किंभूता-अनभ्रका-आकाशरहिता मेघरहिता वा, पुनः किंभूता ?-वज्रा-वज्रतुल्येत्यर्थः, दारुणविपाकहेतुत्वात् , 'अपसूया वज्जासणी'ति पाठे अप्रसूता-अपत्यजन्मरहिता वजेति वर्या-सुन्दराकारा एवंविधा रामा असणीति-अशनिःविद्युत् , बालानां नरकादौ दारुणदहनहेतुत्वात् 'अप्पसूया वजासुणी'त्ति पाठे तु अप्रसूता-नवयौवना परिणीता अपरिणीता वा सालङ्कारा अनलङ्कारा वा मुण्डा अमुण्डावा एवंविधा रामा 'सुणीति हडुकिलाशुनीवत्-मण्डलीवत् 'वजे ति |वा सर्वथा साधुभिर्मोक्षकाटिभिः ब्रह्मचारिभिश्च-चतुर्थव्रतरक्षाकाटिभिः वर्जनीयेत्यर्थः कायवाङ्मनोभिरिति ९०% "असलि०' अजलप्रवाहः 'असलिलप्पलावो'त्ति पाठान्तरं अजलप्लावः-जलं विना रेलिरित्यर्थः ९१ 'समुद्दर'त्ति समु वेगः केनापि धर्जुमशक्यत्वात् 'समर'त्ति पाठे तु सम्यक् अर्ध यस्मात् स समर्धः, एवंविधः 'रउ'त्ति वेगः परमस्नेहवतां बान्धवानां परस्परं स्त्रीकलहे सति गृहाद्यर्धकरणहेतुत्वात् , भद्रातिभद्राख्यो श्रेष्ठिपुत्राविव ९२] दीप अनुक्रम [१४३] ~ 101~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| ------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं. वै. प्र. महार मापस विडापती ५०॥ [१९] ||१२१.॥ 15-45-423645645425645-4-525 | अवि याई तासिं इत्थियाणं अणेगाणि नामनिरुत्साणि पुरिसे कामरागपडिबद्धे नाणाविहेहिं उवायस-11 यसहस्सेहिं वहबंधणमाणयंति पुरिसाणं नो अन्नो एरिसो अरी अस्थित्ति नारीओ, तंजहा-नारीसमा नरनारीस्वनराणं अरीओ नारीओ, नाणाविहेहिं कम्मेहिं सिप्पियाईहिं पुरिसे मोहंतित्ति महिलाओ, पुरिसे मत्ते करंतित्ति पमयाओ, महंतं कलिं जणयंतित्ति महि लियाओ, पुरिसे हावभावमाईहिं रमंतित्ति रामाओ, पुरिसे अंगाणुराए करंतित्ति अंगणाओ, नाणाविहेसु जुद्धभंडणसंगामाडवीसु मुहाणगिण्हणसीउण्हदुक्खकिलेसमाईसु पुरिसे लालंतित्ति ललणाओ, पुरिसे जोगनिओएहिं बसे ठावंतित्ति जोसियाओ, पुरिसे नाणाविहेहिं भावहिं वपणंतित्ति वणियाओ, काई पमत्तभावं काई पणयं सविन्भमं काई ससई सासिब | ववहरंति काई सत्तु रोरो इव काई पयएसु पणमंति काई उवणएमु उवणमंति काई कोउयनमंति काई सुकडक्खनिरिक्खिएहिं सविलासमहुरेहिं उवहसिएहिं उबग्गहिएहिं उवसहेहिं गुरुगदरिसणेहिं भूमिलिहणविलिहणेहिं च आरुहणनत्तणेहिं च वालयउवगृहणेहिं च अंगुलिफोडणथणपीलणकडितडजा-18 यणाहिं तजणाहिं च अवि याई ताओ पासो व ववसि जे पंकुब खुप्पि जे मचुच मरि जे अगणिवाद डहिउँ जे असिब छिजिउं जे (सूत्रं १९) 'अवि याईति पूर्ववत् 'तासिं इ०' तासामुक्तवक्ष्यमाणानां स्त्रीणामधमाधमानां दासीकुरण्डादीनामनेकानि-विविध-13 प्रकाराणि नामनिरुक्कानि-नामपदभञ्जनानि भवंति, 'पुरिसे' इत्यादि यावत् 'नारी'त्ति 'नारीओत्ति खण्डयति, दीप अनुक्रम [१४३] CRENCCRORSCROSS Malainesibraryana... ~ 102~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ----------- मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: [१९]] ||१२१.३॥ HAMAKADCLARSASARA कथम्?-ना आ अरी इति, ना इति नानाविधैरुपायशतसहस्रः कामरागप्रतिबद्धान् पुरुषान् वधवन्धनं प्रति आ इतिआणयंति-प्रापयन्ति अरीति पुरुषाणां च नान्य ईदृशः अरि:-शत्रुः अस्तीति नार्यः, 'तंजह'त्ति तत्पूर्वोक्तं यथेति दर्शयति-'नारी' नारीणां समा न नराणामरयः सन्तीति नार्यः १ नानाविधैः कर्मभिः-कृषिवाणिज्यादिभिः शिल्पकादादिभिश्च-कुम्भकार १ लोहकार २ तन्तुवाय ३ चित्रकार ४ नापित ५ विज्ञानः पुरुषान्मोहयन्तीति-मोहं प्रापयन्तीति धातूनामनेकार्थत्वात् विडम्बयंतीत्यर्थः इति महिलाः, यद्वा नानाविधैः कर्मभिः-मैथुनसेवादिभिः शल्यादिभिश्च मस्त8 कादौ कवर्यादिविज्ञानैः पुरुषान्-बालनरान् मोहयन्तीति-आत्मसात्कुर्वन्तीति स्वस्वार्थपूरणायेति महिलाः २ 'पुरि। पुरुषान् मत्तान्-उन्मत्तान् मुक्तगुरुजनकजननीबान्धवभगिनीमित्रादिलज्जादीन् कुर्वन्तीति प्रमदाः ३ महान्तं कलिंराटिं जनयन्ति-उत्पादयन्तीति महिलिकाः ४ 'पुरि०' पुरुषान् हावभावादिभिः मकारोऽलाक्षणिकः रमयन्ति-क्रीडय-1 |न्तीति रामाः, श्रीअरिष्ठनेमिना सह गोविंदनितम्बिनीवत्, तत्र हावा:-कामविकाराः भावा:-भावसूचका अभि-| प्रायाः आदिशब्दात् विलासा नेत्रविकारादयः ५ 'पुरि०' पुरुषान्, किंभूतान् ?-अङ्गे-स्वशरीरे पयोधरनितम्बजघनस्मरकूपिकादिरूपे अनुरागो येषां ते अनुरागास्तानङ्गानुरागान् कुर्वन्तीत्यङ्गनाः ६ 'नाणा' नानाविधेषु | | युद्धभण्डनसङ्ग्रामाटवीषु मुधार्णग्रहणशीतोष्णदुःखक्केशादिषु पुरुषान् लालयन्ति-विविधं कदर्थयन्तीति ललनाः, तत्र युद्धं-मुष्ट्यादिना परस्परताडनं, भण्डनं-वाकलहः, सङ्घामः-कुन्तादिना महाजनसमक्षकलहः, अटवी-अरण्यं तत्र भ्रामणा-| |दिकारापणेन मुधा-निष्फलं ऋणं-उद्धारस्तत्कारापणेन यद्वा मुधा-निष्फलं 'अण'मिति शब्दकरणगाल्यादिप्रदान दीप अनुक्रम [१४३] J Enication ~ 103~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: रूपं सू.१९ ||१२१.॥ ANSARASHARE तेन 'गिण्हणन्ति' कामातुरादिप्रकारेण पुरुषग्रहणं तेन शीतेन कोपाटोपात् माघमासादौ वस्त्रोद्दालनगृहबहिःकर्ष- | विशेषतो Mणादिना उष्णेन-स्वकार्यकारापणेनातपादौ भ्रामयन्ति दुःखेनापत्यादिभरणादिपीडादर्शनेन क्लेशेन-रामाद्विव्यादि-14 योगे सति परस्परकलहोत्सादनेन, आदिशब्दादन्यैरप्यनाचारसेवाद्यनर्थोत्पादनैः पुरुषान् पीडयन्तीति ललनाः ७ 'पुरि |पुरुषान् योगाः-बाह्याः स्ववाकायोद्भवव्यापाराः हास्यकरणाङ्गविक्षेपादयः नियोगाः-आन्तराः स्वमनसि भवाः कामवि-| लकारादयस्तोगनियोगः वशे-स्ववशे स्थापयन्ति-रक्षयन्तीति योषितः, यद्वा पुरुषान् योगनियोगः-कार्मणवशीकरणादिन कारैः स्ववशे स्थापयन्तीति योषितः 'पुरि०' पुरुषान् नानाविधैः भावैः-अभिप्रायविलासादिभिर्वर्णयन्ति कामोद्दीपनगुणान* विस्तारयन्तीति वनिताः ९ 'काई पमत्तभावं'ति काश्चित् कामिन्यः प्रकर्षेण मत्तभावं-उन्मत्तभावं व्यवहरन्ति-प्रवर्त-18 यन्ति पुरुषाणां पातनाथ 'काई' कोश्चित् प्रकर्षेण जनं नम्रत्वं-प्रणतं कुर्वन्ति, किंभूतं ?-सहविभ्रमेण-सविलासेन वर्तते इयत्तत्सविचमं पुरुषाणां पाशबन्धनार्थं 'काई.' 'ससई सासिव ववहरंति'त्ति काश्चित् सशब्दं यथा स्यात्तथा व्यवह रन्ति-स्वचेष्टां दर्शयन्तीत्यर्थः, क इव ?-'सासिब श्वासोच्छासरोगिवत् , पुरुषाणां स्नेहभावोत्पादनार्थ, 'काई' काश्चित् |शत्रुवत् प्रवर्त्तयन्ति मारणार्थ मर्मस्थानग्रहणेन, यद्वा स्वभादीनां भयोत्पादनार्थं रिपुवत् प्रवर्त्तयन्ति, 'रोरो इव का काश्चित्कामतृष्णातृषिता रोर इव-रङ्कः इव रंकपुरुषाणामपि पादयोः पादान् वा प्रणमन्ति-लगन्तीत्यर्थः, 'काई। काश्चिदुपनतैः नृत्यप्रकारैरुपनमन्ति सकलाङ्गादिदर्शनार्थ, 'काई कोउ०' काश्चित् कौतुकं-वचननयनादिभावं कृत्वा-1 १ काश्चित् सेचिता लासं प्रणयं खेहं व्यवहरन्ति पुरुषाणां पाशबन्धनार्थ इत्यपि । दीप अनुक्रम [१४३] ~ 104~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१९] • |||१२१.|| दीप अनुक्रम [१४३] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र -५ (मूलं+अवचूर्णि:) मूलं [१९] / गाथा || १२१...|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र- [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: Jass Education विधाय नमन्ति नराणां हास्याद्युत्पादनार्थ, 'काइ' इति पदमग्रेऽपि योज्यम् 'सुकडनिरिक्खिहिं'ति काश्चित् सुकटाक्षनिरीक्षितैः- सुष्ठुनेत्रविकार निरीक्षणैः बालान् पातयन्तीति शेषः, 'सविलासमहुरेहिं 'ति सविलासानि च-विलाससहितानि मधुराणि च सविलासमधुराणि एवंविधानि गीतानि वचनानि चेति शेषस्तैः काश्चित् पुरुषान् मोहयन्तीति, 'उपहसिएहि न्ति उपहसितैः काश्चित् हास्यचेष्टाकरणैः कामिनां हास्यमुत्पादयन्तीति, 'उवग्गहिए हिं' ति उपगृहितानि - | पुरुषस्यालिङ्गनलिङ्गग्रहणकरग्रहणादीनि तैः काश्चित् नराणां स्वप्रेमभावं दर्शयन्तीति, 'उबसदेहिं ति उपशब्दानि - सुरतावस्थायां वलवलायमानादीनि प्रच्छन्नसमीपशब्दकरणानि वा तैः काश्चित् कामिनां कामरागं प्रकटयन्तीति, 'गुरुगदरिसणेहिं त्ति गुरुकाणि च प्रौढानि - पयोधरनितम्बादीनि स्थूलोच्चत्वात् सुन्दराणि वा यानि दर्शनानि च - आकृतयस्तानि गुरुकदर्शनानि तैर्दूरस्था एव काश्चित् कामिनः स्ववशे कुर्वन्तीति १ यद्वा 'गु' इति गुह्यप्रकाशनेन पुरुषं पातयन्ति, यद्वा गु-इति गुरुं स्वजनकभर्त्रादिकमपि विप्रतार्याकार्ये प्रवर्त्तयन्ति, 'रु' इति रुदनकरणेन पुरुषं सस्नेहं कुर्वन्ति २ 'ग०' इति स्वपितुर्गृहगमनादिप्रस्तावे पुरुषमत्यन्तं रागवन्तं कुर्वन्तीति ३ 'द' इति दर्शनेन रक्तकृष्णादिदन्तदर्शनेन कामिनो मोहयन्तीति ४ 'रि' इति सम्भाषणे रे मां मुञ्च रे ! मां मा कदर्थयेत्यादिकथनेन कुरामाः पुरुषं सकामं कुर्वन्तीति आर्षत्वात् 'रि' इति यद्वा अरि इति रतिकलहे - अरे मया सह मा कुरूपहासमित्यादिरतिकलहकरणेन पुरुषं क्रीडयन्तीति आर्यत्वात् अरि इति ५ 'स' इति अन्योक्तशृङ्गारगीतादिशब्दकरणेन साधूनपि कामान् कुर्वन्तीति ६ 'ण' इति सकज्जलसविकारसजलाभ्यां नेत्राभ्यां पुरुषं सकामं स्ववशं सगद्गदं स्वकार्यकर्त्तारमपराधमोतारं कुर्वन्तीति Pre & Pomonal Use Only ~ 105~ jainelibrary.org Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ||१२१.॥ वै.प्र.131गुरुगदरिसणेहिं । 'भूमिलिहणविलिहणेहिं चेति भूमिलिखनानि-भूमौ पादादिनाऽक्षरलेखनानि विलिखनानि-विशेषतो विशेषतो हि रेखास्वस्तिकादिकरणानि तैः स्वगुह्यं पुरुषाणां ज्ञापयन्ति इति भूमि(लेखनवि)लेखनैरिति चकारौ अत्र समुच्चयाथों 'आरुहण- नारीरू५२॥ *नणेहिं च'त्ति आरुहणानि-वंशाग्रादिचटनानि नर्तनानि-भूमौ नृत्यकरणानि तेः आरुहणनतनैः पुरुषादिकमाश्चर्यवन्तं कुर्व-1 रूपं जन्तीति, 'वालयउवगृहणेहिंचे ति बालकाः-मूर्खाः कामिन इत्यर्थः तेषामुपगृहनानि-प्रच्छन्नरक्षणादीनि तै|लकोपगू- सू. १९ |हनैः कुरण्डाः स्वकामेच्छां पूरयन्तीति, यद्वा वालकाः-केशकलापास्तेषामुपगूहनानि-रचनास्वच्छवस्त्राच्छादितादीनि तैमन्मथग्रस्तानधमाधमान् स्ववशे कृत्वा बलिवईवत् वाहयन्तीति, चशब्दात् कपिवत् भ्रामयन्ति, अश्ववारयन्ति श्रेणिकभार्याधनश्रीराज्ञीवत्, स्वार्थाप्राप्तौ प्राणत्यागमपि कुर्वन्तीति, 'अंगुलि०' अङ्गुलिस्फोटनानि-कडिकाकर-3 दणानि यद्वा अङ्गलीनां परस्परं 'ताडनानि' स्तनपीडनानि-कराभ्यां पयोधरचम्पनानि हस्ताभ्यां कुचमर्दनानि वा कटितटयातनानि-श्रोणिभागपीडनानि कराभ्यां वक्रगत्या वा तैः कामिनां चित्तान्यान्दोलयन्तीति, 'तज्जणाहिं चेति तर्जनानि-अङ्गलिमस्तकतृणादिचालनानि तैर्मन्मथपीडामुत्पादयन्ति कामिनां, चशब्दादुद्भटनेपथ्यकरणैराभरणशब्दो-15 त्पादनैः सविलासगत्या चतुष्पथादौ प्रवर्त्तनैरित्याद्यनेकप्रकारैर्नरान् बइलतुल्यान् कुर्वन्त्यतः संयमार्थिभिः साधुभिरासां सङ्गस्त्याज्यः सर्वथा सर्वदैव इति । तथा 'अवि याईति पूर्ववत् 'ताओ पासो व ववसिउं जे'इति 'जे'इतिप्राकृतत्वात् लिङ्गव्यत्ययः याः कुरण्डादयः स्त्रियः सन्ति जगति 'ताज'त्ति ताः पुरुषान् पाशवत्-नागपाशवागुरादि-150 बन्धनवत् 'ववसितुं' धातूनामनेकार्थत्वात् बन्धितुं वर्तन्ते, इह परभवे नराणां बन्धनकारणत्वात् , 'पंकुछ खुप्पि-| CAUSESSIOSASNOSTISES* दीप अनुक्रम [१४३] ACANCIANS Jinnitution K m ~ 106~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ----- ------ मूलं [१९]/गाथा ||१२१...|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व), प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: 44 [१९]] ||१२१.३॥ उं जे'त्ति 'ताउ'त्ति अग्रेऽप्यनुवर्तते, याः कुलटादयः सन्ति विश्वे ताः नरान् पङ्कवत्-अगाधाबहुलसमुद्रादिकर्दमवत् 'खुप्पिउं०' क्षेप्तुं खूचयितुं वर्त्तन्ते, 'मच्चुच मरि जेत्ति याः स्वैरिण्यादयः सन्ति ताः नरान् मृत्युवत्-कृतान्तवत् 'मत्त' मारणार्थमित्यर्थः मारयितुं प्रवर्तन्ते, 'अगणिव डहिउँ जेत्ति या जगति गणिकादयः सन्ति ताः कामिनः अग्निवत दग्धु-ज्वालयितुं परिभ्रमन्ति, 'असिव छिजिउं जेत्ति याः तरुणीपरित्राजिकादयः सन्ति ताः कौटिल्यकरण्डाः साधूनप्यसिवत्-खड्गवत् छेत्तुं-द्विधाकर्तुमुत्सहन्ते । अथ स्त्रीवर्णनं पद्येन वर्णयति यथा___ असिमसिसारच्छीणं कंतारकवाडचारयसमाणं । घोरनिउरंवकंदरचलंतवीभच्छभावाणं ॥१॥ (१२२) दादोससयगागरीणं अजससयविसप्पमाणहिययाणं । कइयवपन्नत्तीर्ण ताणं अन्नायसीलाणं ॥२॥ (१२३) अन्नं रयंति अन्नं रमंति अन्नस्स दिति उल्लावं । अन्नो कडअंतरिओ अन्नो पडयंतरे ठविओ ॥३॥ (१२४) 13/गंगाएँ वालुयाए सायरे जलं हिमवओ य परिमाणं । उग्गस्स तवस्स गई गम्भुप्पत्तिं च विलयाए ॥४॥ (१२५ ) सीहे कुडंबुयारस्स पुद्दलं कुक्कुहाईयं अस्से । जाणंति बुद्धिमंता महिलाहिययं न जाणंति ५॥ (१२६) एरिसगुणजुत्ताणं ताणं कइयत्वसंठियमणाणं । न हमे वीससियवं महिलाणं जीवलो-11 18 गमि ॥६॥ (१२७) निद्धन्नयं च खलयं पुप्फेहिं विवजियं व आरामं । निहुद्धियं च घेणुं लोएवि अतिदल्लियं पिंड ॥ ७॥ (१२८) जेणंतरेणं निमिसंति लोयणा तक्खणं च विगसंति । तेणंतरेवि हिययं चित्त सहस्साउलं होई ॥८॥ (१२९) CALCCACACADACAUSAGAR दीप अनुक्रम [१४३] Jiantostoni ~ 107~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१९...]/गाथा ||१२२-१२९|| --- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-व], प्रकीर्णकसूत्र-[५] "तंदलवैचारिक" मलं एवं विजयविमल गणि कता अवचर्णि: प्रत __ + ||१२२ -१२९|| 555555 'असिमसि' नारीणां सर्वथा विश्वासो न विधेयः, किंभूतानाम् !-असिमषीसदृक्षीणां-करवालकज्जलतुल्यानां, अय-12 स्त्रीस्वरूपमाशयः-यथा खड्गः पण्डितेतरान् नरान् निर्दयतया छेदयति तथाऽनार्या नार्योऽपि नरानिह परत्र दारुणदुःखोत्पादनेन पद्यानि छेदयन्ति, यथा च कज्जलं स्वभावेन कृष्णं अस्य श्वेतपत्रादिसङ्गमे सति तस्य कृष्णत्वं जनयति तथोन्मत्तनारी स्वभा- १२२-९ वेन कृष्णा दुष्टान्तःकरणत्वात् तत्सङ्गमे उत्तमकुलोत्पन्नानामुत्तमानामपि कृष्णत्वमुत्पादयति यशोधनक्षयराजविटम्बना|दिहेतुत्वात् , पुनः किंभूतानां ?-कान्तारकपाटचारकसमानां-अरण्यकपाटकारागृहतुल्यानाम् , अयमाशयः-यथा गहन| वनं व्याघ्राद्याकुलं जीवानां भयोत्पादकं भवति तथा नराणां नार्योऽपि भयं जनयन्ति, धनजीवितादिविनाशहेतुत्वेनेति, यथा प्रतोल्यां कपाटे दत्ते केनापि गन्तुं न शक्यते तथा हृदयप्रतोल्यां नारीरूपे कपाटे दत्ते सति केनापि कुत्रापि धर्मवनादौ गन्तुं न शक्यते, यथा च जीवानां कारागृहं दुःखोत्पादकं भवति तथा नराणां नार्योऽपीति, पुन किंभूतानां ?'घोरनि०' घोरो-रौद्रः प्राणनाशहेतुत्वात् निकुरम्ब-घनमगाधमित्यर्थः यत्कमिति-जलं तस्मादिव दरो-भयं यस्मात्र ४ भावात् साङ्केतपुराधिपदेवरतिराजस्येव स निकुरम्बकन्दरः कमित्यव्ययशब्दः उदकवाचकः, चलन्-पुरुषं पुरुष प्रति भ्रमन् बीभत्सो-भयङ्करः, इह परत्र महाभयोत्पादकत्वात्, एवंविधो भाव:-आन्तरमायावत्रस्वभावो यासां ताः घोरनिकुरम्बकन्दरचलबीभत्सभावास्तासां घोरभावानाम् १ 'दोससय.' दोषशतगर्गरिकाणां दोषाः-परस्परकलह- ॥ ५३॥ ४ मत्सरगालिप्रदानमर्मोद्घाटनकलङ्कप्रदानाजल्प्यजल्पनशापप्रदानस्वपरप्राणघातचिन्तनादयस्तेषां शतानि तेषां गर्गरिकाः भाजनविशेषास्तासां दोषशतगर्गरिकाणां, 'अजस' यशसः शतानि यशःशतानि न यशाशतान्ययशःशतानि , दीप अनुक्रम [१४४ -१५१] JHEditutioniaidal ~ 108~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) (२८-व) .................- मलं [१९...]/गाथा ||१२२-१२९|| ----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सत्राक [१९..] ||१२२-१२९|| तेषु विसर्पत-विस्तारं गच्छत् हृदयं-मानसं यासां ता अयशःशतविसर्पहृदयास्तासां तथा 'कइयवत्ति कैतवानि. कपटानि नेपथ्यभाषामार्गगृहपरावर्त्तादीनि 'पन्नत्ती'ति प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररूप्यन्ते याभिस्ताः कैतवप्रज्ञप्तयः, यद्वा कैतवानादम्भानां प्रकृष्टाः ज्ञप्तयो-ज्ञानानि कमलश्रेष्ठिसुतापद्मिनीवत् यासु ताः कैतवप्रज्ञप्तयः, यद्वा कैतवेषु प्रज्ञाया बुद्धेराप्तिः-आदानं यासां ताः कैतवप्रज्ञाप्तयस्तासां कैतवप्रज्ञप्तीनां २ कैतवप्रज्ञाप्तीनां वा, तथा 'ताणति तासां नारीठाणामज्ञातशीलानां-पण्डितैरप्यज्ञातस्वभावानां, यदुक्तं-'देवाण दाणवाणं मंतं मंतंति मंतनिउणा जे । इत्थीचरियमि लापुणो ताणवि मंता कह नहा ? ॥२॥ जालंधरेहिं भूमीहरेहिं विविहाहिं अंगरक्खेहिं । निवरक्खियावि लोए रमणी दीसहर पभडमज्जाया ॥२॥ मच्छपयं जलमज्झे आगासे पंखियाण पयपंती । महिलाण हिययमग्गो तिन्निवि लोए न दीसंति ॥॥" इति, यद्वा न ज्ञातं-नाङ्गीकृतं शीलं-ब्रह्मस्वरूपं याभिस्ताः अज्ञातशीलास्तासां, यद्वा नञः कुत्सार्थत्वात् कुत्सितं, दिज्ञातं शीलं साध्वीनां याभिः परित्राजिकाभिः योगिन्यादिभिस्ता अज्ञातशीलास्तासां मुनिवरैः प्रसङ्गैकान्तजल्पनैकत्र-14 वासविश्वाससहचलनादिव्यापारो वर्जनीय इति २ 'अन्नं रयंति.' द्विव्यादिपुरुषसम्भवेऽन्यं-स्वभावसमीपस्थं नरं रजति-अर्थवीक्षणादिना कामरागवन्तं कुर्वन्तीत्यर्थः, पल्लीपतिलघुभ्रातरं प्रति अगडदत्तस्त्रीमदनमञ्जरीवत् , यद्वा । स्वकुशीलत्वे केनापि ज्ञाते सति 'अन्नं रयंति'त्ति अन्यद्-विषभक्षणकाष्ठभक्षणादिकं रचयन्ति-कपटेन निष्पादयन्ति यद्वा जारस्य स्वान्तःकरणज्ञापनाय 'अन्नं रयन्ति'त्ति अन्यदात्मव्यतिरिक्त-तृणतन्तुदंडादि रदन्ति-उत्पाटनं कुर्वन्तीत्यर्थः, 'रद विलेखने'इति विलेखनमुत्पाटनमिति, 'अन्नं रमंति'त्ति अन्य-स्वकान्तव्यतिरिक्तं नरं रमन्ति-मैथुनतत्पराः दीप अनुक्रम [१४४-१५१] ~ 109~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१९...]/गाथा ||१२२-१२९|| --- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत [१९..] ५४ SESSE १२२-९ ||१२२-१२९|| क्रीडन्तीत्यर्थः, पातालसुन्दरीवत्, यद्वा 'अन्नं रयंति'त्ति अन्य-स्वकान्तव्यतिरिक्तं पुत्रभातृकान्तमित्रादिकं प्रति रामा-अधमकामाः रयि गतौ रबु गतौ च रयते रम्बन्ति वा गच्छन्ति तथा द्यूतादिप्रकारेण क्रीडयन्ति वा पद्यानि 18'अन्नस्स दिति उल्लावति अन्यस्य-उक्तव्यतिरिक्तस्य ददति-प्रयच्छन्ति 'उल्लावंति वचनं-बोलरूपं यद्वा अनेक नरपरिवृता अध्यन्यस्य नरस्य मार्गादि गच्छतः स्थितस्य वोत्-प्राबल्येनोल्लापं-मन्मथोद्दीपनशब्दं ददतीति, 'उल्लाय'ति |पाठे तु कामिनरद्वित्यादिसम्भवे सति उन्मत्ताः कुरामाः अन्यस्य ददति उल्लात-प्रबलपादप्रहारमित्यर्थः, तथा अन्यः कश्चिद् वलिवईरूपः कटान्तरितः-कटान्तवत्तीं प्रच्छन्नरक्षितो भवतीति, तथा अन्यस्तत्कटाक्षबाणसमूहेन ग्लानीकृतः पटकान्तरे-वस्त्रविशेषान्तरे स्थापितो भवेत् ग्लानवदिति ॥३॥ 'गंगाए० सीहे कु०' अनयोाख्या-गङ्गायां: वालुकां-बेलुकणान् सागरे-समुद्रे जलं-जलपरिमाणमित्यर्थः हिमवतो-महाहिमवन्नगस्य परिमाणम्-ऊर्ध्वाधस्तिर्यपरिधिप्रतरघनमानं, उग्रस्य-तीव्रस्य तपसो गति-फलप्राप्तिरूपां गर्भोत्पत्तिं च 'विलयाए'त्ति वनिताया-नार्याः सिंहे कुण्डबुकारमिति रूढिगम्यं पुट्टलं-निजजठरोद्भवं 'कुक्कुहाइयंति गतिकाले शब्दविशेष अश्वे-घोटके जानन्ति-अवग-15 च्छन्ति बुद्धिमन्तः-प्रज्ञावन्तः महिलायाः कूटकपटद्रोहपरवञ्चनपरायाः प्रबलमन्मथाग्निधगधगायमानायाः अतर्कितातुछोच्छलितकलकण्ठोद्गीयमानमधुरगेयध्वनिमृगीकृतमुनिवराया ललाटपट्टतटघटितघनश्रीखण्डतिलकचन्द्र चकोरीकृतचतुरायाःपीनपयोधरपीठलुठनिर्मलामलकस्थूल मुक्ताफलहारश्वेतहाविषभुजङ्गमगतविवेकचैतन्यकृतानेकपण्डितायाः हृदयं-15॥५४॥ गूढान्तःकरणं न जानन्ति-न सम्यगवगच्छन्तीति, उक्तञ्च-"स्त्री जाती दाम्भिकता भीरुकता भूयसी वणि SHRSXXX दीप अनुक्रम [१४४-१५१] CASSANGUIG Jinnitutiond it ~110~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१९..] ||१२२-१२९|| दीप अनुक्रम [१४४ -१५१] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णिः) मूलं [१९...]/ गाथा || १२२-१२९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: तं.. प्र. १० Jass Education गुजाती। रोषः क्षत्रियजातौ द्विजातिजाती पुनर्लोभः ॥ १ ॥ न स्नेहेन न विद्यया न च धिया रूपेण शौर्येण वा, नेर्ष्याचाटुभयार्थदानविनयको धक्षमामार्दवैः । उज्जायौवन भोगसत्यकरुणासस्यादिभिर्वा गुणैर्गृह्यन्ते न विभूतिभिश्च ललना दुःशीलचित्ता यतः ॥ १ ॥ ॥ ४ ॥ ५ ॥ 'एरिसगुण ०' ईदृशगुणयुक्तानां उक्तवक्ष्यमाणलक्षणान्वितानां तासां नारीणां कपिकवत् - वानरवत् (अ) संस्थितमनसां नैव 'भ' भवद्भिः विश्वसितव्यं महिलानां जीवलोके इति ॥ ६ ॥ 'निडन्नयंο' यादृशमिति गम्यते, निर्धान्यकं धान्यकणविवर्जितं 'खलयं'ति धान्यपवित्रीकरणस्थानं तादृशं महिलामण्डलमरमणीयत्वात् सुखधान्यकणाभावाच्च, यादृशं पुष्पैः सुगन्धिकुसुमैर्विवर्जितं चारामं तादृशं तरुणीमण्डलं शुभभावनाकुसुमरहितत्वात् यादृशा निर्दुग्धिका - दुग्धरहिता धेनुः - गौस्तादृशा भ्रष्टतिनी धर्मध्यानदुग्धाभावात्, तथा लोके अपिशब्दः पूरणार्थे यादृशं 'अतिल्लियं ति सर्वथा तैलांशरहितं पिण्डं-खलखण्डं तादृशं महिला व्याघ्रीमण्डलं परमार्थेन स्नेहतैलविवर्जितत्वात् ॥ ७ ॥ 'जेनंत०' स्त्रीणां येन परमवलभेन सर्वार्थसम्प्राप्तिकारकेणान्तरेण विना लोचनानि प्रफुल्लनेत्राणि तत्क्षणे 'निमिसंति०' सङ्कुचितभावं गच्छन्तीत्यर्थः च पुनस्तेनैव परमवल्लभेन स्वार्थप्राप्य कारकेणान्तरेण- विना विकसन्ति- प्रफुल्लनेत्राणि भवन्तीत्यर्थः, 'तेणंतरे०' इति प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी, अपिशब्द एवार्थे, तथा कुस्त्रीणां हृदयं कदाचित् स्वबल्लभे ( न प्रवर्त्तते स्ववल्लभे ) सत्यपि कदाचित् तासां चित्तं - स्वमानसं सहस्राकुलं - स्वकान्तव्यतिरिक्त पुरुषान्तरसहस्रेषु आकुलं मन्मथभावेन परिभ्रमद् भवतीत्यर्थः, शाकिनीवत्, अतो मुनिवरैः - रत्नत्रय रक्षण Pre & Pomonal Use Only ~ 111~ jainelibrary.org Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-वृ) प्रत सूत्रांक [१९..] ||१२२ -१२९|| दीप अनुक्रम [१४४ -१५१] “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णिः) मूलं [१९... ] / गाथा || १२२-१२९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र -[ २८-वृ], प्रकीर्णकसूत्र [५] “तंदुलवैचारिकं मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: .वै.प्र. ॥ ५५ ॥ परैर्मुक्तगृहारम्भभरैरासां कुरण्डामुण्डीदासीयोगिन्यादीनां यथा कथञ्चित् परिचयो न कार्य इति । अस्या अन्यदपि व्याख्यान्तरं सद्गुरुप्रसादात् कार्यमिति ॥ ८ ॥ अथोपदेशान्तरं दददाह जाणं वड्डाणं निचिन्नाणं च निविसेसाणं । संसारस्यराणं कहियंपि निरत्थयं होइ ॥ ९ ॥ ( १३० ) किं पुत्तेहिं पियाहिं वा अत्थेणवि पिंडिएण बहुएणं । जो मरणदेसकाले न होइ आलंबणं किंचि ॥ १० ॥ (१३१) पुत्ता चयंति मित्ता चयंति भज्जावि णं मयं चयइ । तं मरणदेसकाले न चयइ सुविअजिओ धम्मो ॥११॥ (१३२) 'जड्डाणं व०' जड्डानां द्रव्यभावमूर्खाणां वड्डानां केषांचित् मठपारापतसदृशानां वृद्धानां निर्विज्ञानानां विशिष्टज्ञानरहितानां निर्विशेषाणां - अपवादोत्सर्गज्येष्ठेतरादिविशेषरहितानां संसारशुकराणां एवंविधानां गृहस्थानां साध्वाभासानामपि कथितमपि उक्तं वक्ष्यमाणं निरर्थकं भवति, ब्रह्मदत्तोदाईनृपमारकादिवत् ॥९॥ 'किं पुत्ते० ' पुत्रैः - अङ्गजैः किं ?, न किञ्चित् पितृभिर्वा किं ?, अर्थेनापि पिण्डितेन मीलितेन बहुकेन-प्रभूतेन किं ?, नन्दमम्मणादीनामिव योऽङ्गजादिकलापः | मरणदेशकाले - मरणप्रस्तावे न भवत्यालम्बनं - आधाररूपं किञ्चिदिति ॥ १० ॥ 'पुत्ता च०' मातापितरौ पुत्रास्त्यजन्ति * 'मित्तं' मित्राणि त्यजन्ति, सहजमित्रपर्वमित्रवत् भार्याऽपीमं प्रत्यक्षं जीवन्तमित्यर्थः मृतं वा स्वकान्तं त्यजति यद्वा | भार्याऽपि णमिति वाक्यालङ्कारे आर्पत्वादकारविश्लेषेऽमयमिति अमृतं जीवन्तं त्यजति जीवन्तमेव स्वकान्तं मुक्त्वाऽन्यत्-पुरुषान्तरं भर्तृत्येन प्रतिपद्यते वनमालावत्, यस्मिन् प्रस्तावे ते पुत्रादयस्त्यजन्ति 'त' मिति तस्मिन् प्रस्तावे मरण अथ उपदेश-गाथाः कथयते Fur Prate & Pomonal Use Only ~ 112~ उपदेशः गा. १३० २ ।। ५५ ।। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१९...]/गाथा ||१३०-१३२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२८-], प्रकीर्णकसूत्र-[५] "तंदलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कता अवचर्णि: प्रत सूत्रांक [१९..] ||१३०-१३२|| दी देशकाले च न त्यजति 'सु'इति जिनाज्ञापूर्वकदृढभावेन 'वी'ति विशेषेण निरन्तरकरणेनार्जितो धर्मः-श्रुतचारित्ररूप इति ॥ १२ ॥ अथ गाथाचतुष्टयेन धर्ममाहात्म्यं वर्णयन्नाह धम्मो त्ताणं धम्मो सरणं धम्मो गई पइट्टा य। धम्मेण सुचरिएण य गम्मइ अजरामरं ठाणं ॥१२॥ (१३३) पीइकरो वन्नकरो भासकरो जसकरो य अभयकरो। निव्वुइकरो य सययं पारित्तबिइज्जओ धम्मो 2॥१३॥ (१३४) अमरवरेसु अणोवमरूवं भोगोवभोगरिद्धी य । विनाणनाणमेव य लब्भइ सुकरण धम्मेण| ४॥ १४॥ (१३५) देविंदचक्कवट्टित्तणाइ रजाई इच्छिया भोगा । एयाई धम्मलाभा फलाई जं चावि ★ निवाणं ॥१५॥ (१३६) PI 'धम्मो त्ता' धर्मः-सम्यग्ज्ञानदर्शनचरणात्मकः त्राणं-अनर्थप्रतिहन्ता अर्थसम्पादकश्च तद्धेतुत्वात् धर्मः शरणंपारागाधरिभयभीरुकजनपरिरक्षण, धर्मो गम्यते-दुःस्थितैः सुस्थितार्थमाश्रीयते इति गतिः, धर्मः प्रतिष्ठा-संसारगपित-12 लपाणिवर्गस्याधारः, धर्मेण सुचरितेन-सुष्ठ सेवितेन चशब्दादनुमोदनेन साहाय्यदानादिना गम्यते-अवश्यं प्राप्यते अजरामरं स्थानं-मोक्षलक्षणमित्यर्थः देवकुमारवत् ॥११॥ 'पीइकरो' प्रीतिकरः-परमप्रीत्युत्पादकः वर्णकरः-एकदिगव्यापिकीर्तिकरः यद्वा वपुषि गौरत्वादिवर्णकरः यद्वा शुद्धाक्षरात्मकज्ञानकरः भाकरः-कान्तिकरः यद्वा भाषाकरःवचनपटुत्वमाधुर्यादिगुणकर इत्यर्थः, यशःकरः-सर्वदिग्व्यापिकीर्तिकरः, चशब्दाच्श्लाघाशब्दकरः, तत्र श्लाघा| तत्स्थान एव साधुवादः शब्दः-अर्धदिगूव्यापीति, अभयकरो-निर्भयकरः निर्वृत्तिकर:-सर्वकर्मक्षयकरः 'पारित्तवि दीप अनुक्रम [१५२ -१५४] अथ धर्म-माहात्म्य वर्णयते ~ 113~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) ............-- मलं [१९.../गाथा ||१३३-१३६|| -..-.-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-२८-८], प्रकीर्णकसूत्र-[9] “तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: -१३६|| तं. वै.प्र. 1 इज'त्ति परत्रद्वितीयः, जीवानां परलोके द्वितीय इत्यर्थः ॥ १३ ॥ 'अमरवर०' अमरवरेषु-महामहर्धिकदेवेषु-अनुप-18 सा Iमरूपं भोगोपभोगऋद्धयश्च विज्ञानं ज्ञानमेव च लभ्यते सुकृतेन धर्मेण प्रदेशिराजमेघकुमारधन्यानगारानन्दादीनामिवाटा १३.६ तत्र भोगाः-गन्धरसस्पशाः, यद्वा सकृद् भोज्या अन्नादयः उपभोगाः-शब्दरूपविषयाः यद्वा सकृद् भोगाः पुनः पुनःउपसंहार 31 उपभोगाः ते च वस्त्रपात्रादयः ऋद्धयो-देवदेव्यादिपरिवारभूताः, विज्ञानं अनेकप्रकाररूपादिकरणं, ज्ञान-मतिश्रुता-181 १३७-९ वधिरूपं, यद्वा देवेषु रूपादयः प्राप्यन्ते, इह च 'विन्नाण'त्ति केवलज्ञानं 'नाणं'ति ज्ञानचतुष्क त्रिकं द्विका चेति ॥ १५॥ 'देविंद देवेन्द्रचक्रवर्त्तित्वानि राज्यानि गजाश्वरथपदातिभाण्डागारकोष्ठागारवप्रलक्षणानि, यद्वा स्वाम्य १ मात्य २ जनपद ३ दुर्ग ४ बल ५ शस्त्र ६ मित्राणीति ७, इप्सिता भोगाः, एतानि धर्मलाभात् फलानि भवन्ति, यच्चापि निर्वाणमिति ॥ १५ ॥ अथात्रोक्तं निरुपयति| आहारो १ उच्छासो २ संधि ३ सिराओ य ४ रोमकूवाइं ५। पित्तं ६ रुहिरं ७ सुकं ८ गणियं गणियप्पहाणेहिं ॥१६॥ (१३७) एवं सो सरीरस्स वासाणं गणियप्पागडमहत्थं । मुक्खपउमस्स ईहह सम्मत्त-18 सहस्सपत्तस्स ॥१७॥ (१३८) एवं सगडसरीरं जाइजरामरणवेयणाबहुलं । तह घत्तह कार्ड जे जह मुचह सबदुक्खाणं ॥१८॥(१३९) इति 'तन्दुलवेयालिय' समाप्तम् । दीप अनुक्रम [१५५ -१५८] ~114~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२८-व) “तन्दुलवैचारिकं” - प्रकीर्णकसूत्र-५ (मूलं+अवचूर्णि:) -------- मूलं [१९...]/गाथा ||१३७-१३९|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२८-वृ), प्रकीर्णकसूत्र-[9] "तंदुलवैचारिक मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक [१९..] ||१३७-१३९|| CASSAMACAAAAAAAEXX 'आहारो' अत्र-प्रकीर्णके जीवानां गर्भे आहारस्वरूपं १ गर्भे उच्छासपरिमाणं २ शरीरे सन्धिस्वरूपं ३ शरीरे है शिराप्रमाणं ४ वपुषि रोमकूपानि ५ पित्तं ६ रुधिरं ७ शुक्र ८ चशब्दान्मुहूर्त्तादिकमेतत्पूर्वोक्तं गणित-सङ्ख्या प्रमाणतो निरूपितं. कैः?-गणितप्रधानः-तीर्थकरगणधरादिभिः ॥१६॥ 'एयं सोउं' एतत्पूर्वोक्तं श्रुत्वा-आकर्ण्य शरीरस्य तथा वर्षाणां गणितं प्रकटं श्रुत्वा, किंभूतं ?-महान अर्थो-ज्ञानवैराग्यादिको यस्मात् स महार्थस्तत् यूयं मोक्षपद्ममीहत-वाञ्छत, किंभूतं ?-'सम्मत्त'त्ति अनन्तज्ञानपर्यायानन्तदर्शनपर्यायानन्तागुरुलघुपर्यायादिसहस्रपत्राणि यत्र तत्सम्यक्त्वसहस्रपत्रं, अत्र कर्मणि षष्ठी ॥ १७ ॥ 'एयं स०' एतच्छरीरशकटं जातिजरामरणवेदनाबहुलं 'तह घत्तह'त्ति तथा यतध्वं-तथा यत्नं कुरुतेत्यर्थः, यद्वा तथा खेटयत 'काउ' कृत्वा-विधाय तपःसंयमादिकमिति शेषः, 'जे'इति पादपूरणे, यथा मुञ्चत, केभ्यः? सर्वदुःखेभ्यः, बलसारराजर्पिवदिति ॥ १८ ॥ इति श्रीहीरविजयसूरिसेवितचरणेन्दीवरे श्रीविजयदानसूरीश्वरे विजयमाने वैराग्यशिरोमणीनां मुक्तशिथिलाचाराणां घनभावधनभव्यशिलीमुखसेवितक्रमणविसप्रसूनानां श्रीआनन्दविमलसूरीश्वराणां शिष्याणुशिष्येण विजयविमलाख्येन पण्डितश्रीगुणसौभाग्यगणिप्राप्ततन्दुलवैचारिकज्ञानांशेन श्रीतन्दुलवैचारिकस्येयमवचूरिः समर्थिता । अत्र मया मूर्खशिरोमणिना जिनाज्ञाविरुद्धं यद् व्याख्यातं लिखितं च तन्मयि रङ्के परमदयां कृत्वाऽऽगमज्ञैः संशोध्यमिति भद्रम् । इति तन्दुलवेयालियं विवृत्तितः समाप्तम् । दीप अनुक्रम [१५९-१६१] मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र २८-वृ) तन्दुलवैचारिक” परिसमाप्त: ~115~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 28 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। "तन्दुलवैचारिक-प्रकीर्णकसूत्रम्” (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “तन्दुलवैचारिक” मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: - Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~116~