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युक्तिप्रबोधे
३३ ॥
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( ? ) किमपि “नास्तित्वाश्रवधः सम्यग्दृष्टेराश्रवनिरोधः । सन्ति पूर्वनिबद्धानि जानाति स तान्यवन् ॥ १ ॥ रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसम्भवः । तत एव न बन्धोऽस्य, ते हि बन्धस्य कारणम् ॥ २ ॥” तथा सम्यग्दृष्टः रागादिभावानामभावेन तद्बन्धाभावात्, केवला निर्जरब, यथा “विषमुपभुञ्जानो वैद्यः पुरुषो न मरणमुपयाति । पुद्गलकर्म्मण उदये यथा भुंक्तेनैव बध्यते ज्ञानी || १ ||" इत्यादि समयसारवाक्यानि समीक्ष्य सम्यग्दृष्टेरविरतत्वात्, अभक्ष्यात् द्रव्यतोऽप्यविरतः सम्यक्त्वे निश्चयेन प्राप्तेऽबन्धकोऽस्मीति धिया व्रतमार्गस्य व्यवहारेणापि अस्पर्शी व्रताचरणान्यस्पृशन् न दानं तपो ब्रह्म वा करोति, तत्कालापेक्षया वर्त्तमाना, व्रतानां पञ्चमृगुगस्थान एवं औचित्यादित्याशयः, तेन स्वकृतग्रन्थेऽपि तद्व्यवस्थापना यथा दया दान पूजादिक विषयकषायादि दोउ कम्मे भोग पे दुहुं का एक तु हैं । ज्ञानी मूरख करमकरत दोष एकसे परिणामभेद न्यारो न्यारो रस दैतुहे । ज्ञानवंत करणी करै पें उदामीनरूप ममता न धेरै ता ते निर्जराको हेतु है, वह करतूति मूढ करे पैं मगनरूप अंध भयो ममतासुं बंधफल लेतु है ॥ १ ॥ सीलतपसंजमुविरति दान पूजादिक अथवा असंजमकषाय विष भोगे हैं, कोऊ सुभरूप कोऊ असुमरूप मूलवस्तु विचारत दुविधकर्म्म रोग है। एसी बंधपद्धति बखानी वीतरागदेव आतमधरममे करम त्याग जोग है । ओजल के तरैया रागद्वेष को हरैया महामोख के करेंया एक सुद्ध उपयोग है ।। २ ॥ कोऊ शिष्य कहे स्वामी अशुभक्रिया अशुद्ध शुद्ध (भ) क्रिया सुद्ध तुम ऐसी क्यों ने बरनी । गुरु कहे जबलो क्रिया के परिणाम रहे तब लो चपलउपयोग जोग धरनी । थिरता न आवे तोलो सुद्ध अनुभौ न होइ याते दोउ क्रिया मोक्ख पंथ की कतरनी । बंधकी करैया दोउ द्रहुमें न भली कोड बाधक विचारि में निषिद्ध कीनी करनी ॥ ३ ॥ लीन भयो दवहारमें उ, कति न उपजे कोइ । दीन भयो प्रभु पद जपे, मुकति
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व्यवहारोस्थापन
॥ ३३ ॥