Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 20
________________ प्रस्तावना १६ इस हस्तलिखित प्रति के अन्त में प्रति लेखनकाल इस प्रकार दिया गया है संवतसर उनइससे पुन इकतालीस जान । पौष सुदि जौ अस्टमी पूरन भई प्रमान ॥ लिखितं नाथूराम डेबोडिया परवार की श्री बड़े मन्दिर मिरजापुर के लानें लिखी ॥ इससे स्पष्ट होता है कि यह प्रतिलिपि श्री नाथूराम डेवड़िया ने वि० सं० १६४१ की पौष शुक्ला अष्टमी को मिरजापुर के बड़े मन्दिर के लिये की थी । ( २ ) 'आ०' प्रति - यह मुद्रित प्रति है । इसका सम्पादन डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने चार हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर पाठान्तरों के साथ किया है । इसका प्रकाशन श्रीमद् राजचन्द्र जैन शास्त्रमाला के अन्तर्गत अगास ( गुजरात ) से सन् १६३७ में परमात्मप्रकाश के साथ हुआ है । इसका संकेत 'आ० ' दिया है । (ख) सम्पादन की विशेषताएँ : सम्पादन में हमने जिन मानदण्डों को स्वीकार किया है, वे इस प्रकार हैंपाठालोचन - १. मूलपाठों के निर्धारण में सामान्यतः उन्हीं पाठों को स्वीकार किया गया है, जिनको आधार मानकर पं० पन्नालाल चौधरी ने देशभाषा वचनिका लिखी है । तुलनात्मक दृष्टि से निम्नलिखित पाठ द्रष्टव्य हैं— दोहा क्रमाङ्क ४३ ६१ ७२ ८४ ८५ ८६ ६४ Jain Education International सम्पादन में स्वीकृत पाठ जिणु नियंविणी हवंति ण णाणि तित्थय उत्तु जीव सिवसिद्धि गुण- णिम्मलउ डॉ० उपाध्ये का पाठ For Personal & Private Use Only नियं विण हवंति हु णाणि तित्थु पवित्तु जोइ सिवसुद्धि गुण-गण-लिख www.jainelibrary.org

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