Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 51
________________ २ : योगसार अर्थ-संसारका जो भय ता करि भयभीय भया सन्ता अर मोक्षलक्ष्मोको लाल्हसा करि युक्त भया सन्ता, मैं हूँ सो मेरे संबोधनके अथि एकाग्रचित्त होय एक सौ आठ दोहा कहूँगा ॥३॥ आगै संसारका अर कालका स्वरूप कहै है दोहा कालु अणाइ अणाइ जिउ भवसायरु' जि अणंतु। मिच्छादसण'-मोहियउ णवि सुह-दुक्ख जि पत्तु ॥ ४ ॥ अर्थ-काल है सोहू अनादिका है अर जीवहू अनादि है अर संसारसागर अनन्ता है, सो मिथ्यादर्शन करि मोहित जीव है सो सुखकू नाही प्राप्त भया, अनादिकालका मिथ्यात्व करि मोहित अज्ञानी भया, आपाका ज्ञान बिनां दुःख ही पाया ॥ ४ ॥ दोहा जइ बीहउ चउ-इ-गमणा' तो परभाव चएहि । अप्पा झायहि जिम्मलउ जिम सिव-सुक्ख लहेहि ॥ ५॥ अर्थ-हे जीव ! जो तू च्यारि गतिका भ्रमणतै भयवान है, डरपै है, तो पर-पदार्थनिमैं आपा माननां छोड़ि, अर निर्मल, आत्मस्वरूप, कर्म-कलंक रहित, शुद्ध, चिदानन्द रूप निजात्म-तत्त्वकू ध्यावहुं, ज्यौं तूं शिव जो समस्त कर्म रहित अविनाशी स्वभावरूप मोक्षसुखक प्राप्त होइ॥५॥ दोहा तिपयारो अप्पा मुणहि पलं अंतर बहिरप्पु । पर-झायहि अंतरु'' सहिउ बाहिरु चयहि णिभंतु ॥ ६ ॥ अर्थ- आत्मा तीन प्रकार भेद सहित जान-एक तो परमात्मा अर दूजा अन्तरात्मा अर तीजा बहिरात्मा-जैसे तीन प्रकार आत्माके भेद जाणि करि बहिरात्मापनां छोड़ि, अर अन्तरात्मा सहित भ्रांति रहित भया संता परमात्माकं ध्यावहूं ॥६॥ १. जीउ : मि । ७. चऐवि : मि० । २. भवसायर : मि० । ८. लहेवि : मि० । ३. मिछादसण : मिः । ६. पर : मि०। ४. मोहिउ : मि० । १०. जायहि : आ० । ५. गमणु : मि० । ११. अंतर : आ० । ६. तउ : मि० । १२. वाहिर : मि० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108