Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 93
________________ ४४ : योगसार हे जीव ! व्रत, तप, संयम और शोल-ये सब व्यवहारनयसे कहे गये हैं, मोक्षका कारण तो एक निश्चयनय है और वही तीनों लोकोंमें सारभूत है ॥ ३३॥ जो जोव आत्माको आत्मभावसे जानता है और परभाव ( परपदार्थों ) का त्याग करता है, वह मोक्षनगरको प्राप्त करता है, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥ ३४ ॥ जिनेन्द्रदेवने जो छह द्रव्य, नव पदार्थ और ( सप्त ) तत्त्व कहे हैं, वे व्यवहारनयसे कहे हैं, उन्हें प्रयत्नपूर्वक जानो ॥ ३५ ॥ ऊपर कहे गये समस्त पदार्थ अचेतन हैं, उनमें एकमात्र सचेतन ( आत्मा ) सारभूत है, जिसको जानकर परम मुनि शीघ्र ही भवसागरसे पार हो जाता है ॥ ३६॥ समस्त व्यवहारको त्यागकर जो निर्मल आत्मा है, उसे जानो। इससे शीघ्र ही भवसागरसे पार हो जायेगा, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥ ३७॥ हे योगी ! जो जीव और अजीवके भेदको जानता हैं, वही मोक्ष ( मुक्ति प्राप्ति )के कारणको जानता है, ऐसा योगियोंने कहा है ॥ ३८ ॥ हे योगी ! यदि तुम मुक्ति लाभ चाहते हो तो जो केवलज्ञान स्वभाव रूप आत्मा है, उसे जीव जानो, ऐसा योगियों ने कहा है ॥ ३६ ॥ कौन समाधि ( समाधान ) करे, कौन पूजे और कौन छिपाकर अथवा बिना छिपाकर छल कपट करे? कौन किसके साथ हर्ष ( मैत्री) और कलह करे । क्योंकि सभी समान हैं । जहाँ जहाँ देखो, वहीं आत्मा दृष्टिगोचर होता है ॥ ४० ॥ ___ यह जीव तभी तक कुतीर्थोंमें परिभ्रमण करता है और तभी तक धूर्तता करता है, जब तक गुरुके प्रसादसे आत्मदेवको नहीं जानता है ॥४१॥ तीर्थों और देवालयों ( मन्दिरों) में देव ( परमात्मा ) नहीं है, ऐसा श्रुतकेवली ( अथवा शास्त्र और केवली ) ने कहा है। जिनदेव देह रूप देवालयमें विद्यमान हैं, ऐसा भ्रान्ति रहित जानो ॥४२॥ देह रूप देवालयमें जिनदेव हैं, देवालयों में जिनदेवको देखना वैसे हो मुँह पर हँसी उड़ाना है, जैसे सिद्धावस्थाको प्राप्त हो जाने पर भिक्षा ( कवलाहार ) के निमित्त भ्रमण करना ॥ ४३ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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