Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 97
________________ १८ : योगसार किन्तु जो पुण्यको भी पाप कहता है-ऐसा कोई बिरला ही विद्वान् है॥७१॥ हे पण्डित ! जिस प्रकार लोहेको जजीर है, उसीप्रकार सोनेको भी जान । जो शुभ, अशुभ भावोंका सञ्चय करते हैं, वे ज्ञानी नहीं होते हैं ॥ ७२॥ हे जीव ! जब तेरा मन निर्ग्रन्थ है, तब तूं भी निर्ग्रन्थ है और जब तूं निर्ग्रन्थ है तो तुझे मोक्ष-मार्ग प्राप्त होगा ॥ ७३ ॥ जैसे बरगदके पेड़के मध्यमें बीज स्पष्ट रूपसे है, उसी प्रकार बीज के मध्य बरगदका पेड़ है, ऐसा निश्चयसे जान। वैसे ही देहके मध्य उस देवता ( परमात्मा ) को जान, जो तीनों लोकों में प्रधान है ॥७४॥ जो जिनेन्द्र भगवान् हैं, वही मैं हूँ और वही जीव है, ऐसा भाव भ्रान्ति रहित है और हे योगी ! मोक्षका कारण कोई अन्य तन्त्र-मन्त्र नहीं है ॥ ७५ ॥ दो, तीन, चार, पाँच, नौ, सात, छः, पाँच और चार गुण सहितये लक्षण जिसमें हो उसे परमात्मा जानना चाहिये ।। ७६ ॥ ___ दो ( राग और द्वेष ) को छोड़कर दो गुण ( ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग ) सहित जो अपनी आत्मा में निवास करता है. वह शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होता है-ऐसा जिन स्वामीने कहा है ॥ ७७ ॥ तीन ( राग, द्वेष, मोह ) और तीन ( रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्य. ग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ) सहित जो अपनी आत्मामें निवास करता है, वह शाश्वत सुखका भाजन है-ऐसा जिनेन्द्र भगवान्ने कहा है ।। ७८ ॥ चार कषाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ ) और चार संज्ञा ( आहार, भय, मैथुन, परिग्रह ) रहित तथा चार गुण ( अनन्त चतुष्टय-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य ) सहित (शुद्ध ) आत्मा कहा गया है। हे जीव ! तूं ऐसा आत्मा जान, जिससे तू परम पवित्र हो सके ॥ ७६॥ जो ( पञ्चेन्द्रियके पाँच विषयों एवं हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, और परिग्रह रूप पाँच अव्रतों-इन ) दससे रहित और (पञ्चेन्द्रियोंके दमन तथा पञ्च महाव्रतोंके धारण रूप ) दस सहित तथा ( उत्तमक्षमादि ) दस गुण सहित है, उसे निश्चयसे आत्मा कहा गया है ।। ८०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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