Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 102
________________ णिच्छइँ लोय- पमाणु मुणि णिम्मल झाण-परट्ठिया णिम्मलु णिक्कल सुधु जिणु ताम कुतित्थइँ परिभम इ ४५ तित्थइ देवल देव जिणू तित्थहिँ देवल देउ णवि ४२ तिपयारो अप्पा मुहि तिहिँ रहियउ तिहिं गुण-सहिउ ७८ ६ ८३ ११ १० ५८ ४३ ५२ दंसणु जं पिच्छिइ बुह देहादिउ जे पर कहिया देहादिउ जे पर कहिया देहादिउ जो परु मुणइ देहा देवलि देउ जिणु धंधइ पडियउ सयल जगि धण्णा ते भयवंत ह धम्मु पढियइँ होइ पुग्गल अण्णु जि अण्णु जिउ पुण्ण पावइ सग्ग जिउ परिणामे बंधु जि कहिउ पुरिसायान्यमाणु जिय छंडिवि बे-गुण-सहिउ बे ते च पंच विवहँ बे-पंच रहिय मुहि मग्गण गुण ठाणइ कहिया म इंदिहि विछोडियइ Jain Education International २४ १ ६ ४१ ६४ ४७ ५५ ३२ १४ ६४ पद्यानुक्रमणिका : ५३ मच्छादि उ जो परिहरण मिच्छा दंसण- मोहियउ मूढा देवल देव वि रयणत्तय संजुत्त जिउ रयण दीउ दियर दहिउ राय-रोस बे परहरिवि राय - रोस बे परिहरिवि वउ तर संजमु सोलु जिय वज्जिय सयल वियप्पयहँ वय-तव-संयम-मूलगुण वय तव संजम सीलु जिय विरला जाणहि तत्तु बुह संसारहँ भयभीयएण संसारहँ भयभीयहँ सत्य पढ़ंत ते विजड सम्माइट्ठी जीव तुहुँ सव्व अचेयण जाणि जिय सव्वे जीवा णाणमया सागारु विणागारु कु वि सुद्ध-पए सहँ पूरियउ ७७ सुद्धप्पा अरु जिणवरहँ ७६ सुद्धु सचेणु बुद्धु जिणु ८० सुमहँ लोहहैं जो विलउ सो सिउ संकर विहु सो ५४ हिंसादिउ परिहारु करि १७ For Personal & Private Use Only १०२ ७ ४४ ८४ ५७ ४८ १०० ३३ ६७ २८ ३१ ६६ १०८ ३ ५३ ८८ ३६ ईर्द ६५ २३ २० २६ १०३ १०५ १०१ www.jainelibrary.org

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