Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 98
________________ योगसार : ४६ आत्माको दर्शन और ज्ञानमय जानो तथा आत्माको ही चारित्र समझो। आत्मा ही संयम है, तप है, शील है और आत्मा ही प्रत्याख्यान है ॥१॥ जो आत्मा और परको जानता है, वह भ्रान्ति रहित होकर परका त्याग करता है, उसे ही तूं संन्यास जान-ऐसा केवलज्ञानीने कहा है ॥ २॥ जिससे देखा जाता है, वह दर्शन है और निर्मल महान् आत्मा ज्ञान है तथा जो बार-बार आत्माकी भावना करना है, वह पवित्र चारित्र है ॥ ८३॥ रत्नत्रय संयुक्त जीव ही उत्तम तीर्थ है और हे योगी ! वही ( रत्नत्रय ) मोक्षका कारण कहा गया है, अन्य कोई तन्त्र-मन्त्र मोक्षका कारण नहीं है ॥ ८४॥ जहाँ आत्मा है, वहीं समस्त गुण हैं-ऐसा केवली भगवान् कहते हैं। इसी कारण समस्त जीव स्पष्ट रूपसे निर्मल आत्माको जानते हैं ॥ ८५॥ एकाको ( निर्ग्रन्थ ) इन्द्रियों ( इन्द्रिय-विषयों ) से विरक्त होकर मन, वचन और काय-इन तीनोंकी शुद्धिकर आत्माको आत्मा जान, जिससे तूं शोघ्र ही मोक्ष-सिद्धिको प्राप्त करेगा ॥८६॥ यदि बद्धको मुक्त जानेगा ( अथवा आत्माको बद्ध और मुक्त रूप जानेगा ) तो निश्चयसे तूं ( कर्म- ) बन्धको प्राप्त होगा और यदि सहज स्वरूप आत्मामें रमण करेगा तो शान्त मोक्षको प्राप्त करेगा॥८७॥ हे सम्यग्दृष्टि जीव ! तेरा दुर्गतिमें गमन नहीं होता है और यदि (पूर्वकृत कर्मवशात् ) जाता भी है तो कोई दोष नहीं है, अपितु पूर्वकृत कर्मका क्षय होता है । ८८ ॥ __समस्त लोक व्यवहारका त्यागकर जो आत्म-स्वरूपमें रमण करता है वह सम्यग्दृष्टि है और वह शीघ्र ही संसारसे पार हो जाता है ॥८६॥ जहाँ अजर-अमर और गुणोंके समूहका स्थान आत्मा स्थिर हो जाता है, वहाँ वह आत्मा नवीन कर्मोसे बद्ध नहीं होता है और पूर्व सञ्चित कर्मोका विलय हो जाता है ॥६० ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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