Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 92
________________ योगसार : ४३ जो जिनेन्द्रदेव हैं, सो आत्मा है, यह सिद्धान्तका सार है, ऐसा जानकर हे योगो ! मायाचारका त्याग कर ॥ २१ ॥ जो परमात्मा है, सो मैं हूँ और जो मैं हूँ, सो परमात्मा है, ऐसा जानकर हे योगो ! अन्य विकल्प मत कर ।। २२ ॥ यह आत्मा शुद्ध प्रदेशोंसे पूरित लोकाकाश प्रमाण है, उस आत्माको जो निरन्तर जानता है, वह शीघ्र ही निर्वाणको प्राप्त होता है ॥ २३ ॥ उस आत्माको निश्चयसे तो लोक-प्रमाण जानो और व्यवहारसे तत्-तत् शरीर-प्रमाण, ऐसा जो आत्माका स्वभाव जानता है, वह संसारका शीघ्र ही अन्त करता है ॥ २४ ॥ यह जोव अनन्तकालसे चौरासी लाख योनियोंमें भ्रमण करता रहा है, किन्तु सम्यक्त्वको प्राप्त नहीं किया है, ऐसा निश्चयसे जानो ॥ २५ ॥ जो मुक्ति प्राप्त करना चाहते हो तो शुद्ध, सचेतन, बुद्ध, जिन और केवलज्ञान स्वभाव रूप उस आत्माको निरन्तर जानो ॥ २६ ॥ हे जीव ! जब तक तूं निर्मल आत्म-स्वभावको भावना नहीं करता है, तब तक तूं मुक्तिपथको प्राप्त नहीं कर सकता है, जहाँ तेरो इच्छा हो, वहाँ जा ॥ २७ ॥ ____जो तीनों लोकोंमें ध्यान करने योग्य जिनेन्द्र भगवान् हैं, वही आत्मा है, ऐसा निश्चयसे कहा गया है, इसमें किसी प्रकार को भ्रान्ति नहीं है ॥ २८ ॥ जब तक एक शुद्ध स्वभाव रूप पवित्र परमात्माको नहीं जानता है, तब तक मूर्ख ( मिथ्यादृष्टि ) के व्रत, तप, संयम और मूलगुणोंको मोक्ष का कारण नहीं कहा जा सकता है ॥ २६ ॥ व्रत और संयमसे युक्त जो ( जोव ) निर्मल आत्माको जानता है। वह शीघ्र हो सिद्धि-सुखको प्राप्त करता है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ॥ ३० ॥ हे जोव ! जब तक तूं एक शुद्ध स्वभाव रूप पवित्र परमात्माको नहीं जानता है, तब तक व्रत, तप, संयम और शोल-ये सब क्रियायें व्यर्थ हैं ॥ ३१॥ ___पुण्यसे जीव स्वर्ग प्राप्त करता है और पापसे नरकमें जाता है तथा जो पुण्य और पाप-इन दो को छोड़कर आत्माको जानता है, वह मोक्षको प्राप्त करता है ॥ ३२ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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