Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 90
________________ निर्मल ध्यान में स्थित होकर कर्मरूपी कलङ्कको नष्टकर आत्मस्वरूपको जिन्होंने प्राप्तकर लिया है, उन परमात्मा ( सिद्ध भगवान् ) को नमस्कार करके चार घातिया कर्मों का नाशकर अनन्त चतुष्टयको प्राप्त करने वाले अर्हन्त भगवान्के चरणों में नमस्कारकर अभीष्ट काव्य ( योगसार ) को कहता हूँ ॥ १-२ ॥ संसारसे भयभीत और मोक्षकी इच्छा के कारण आत्मा ( जीव ) के सम्बोधन अथवा आत्म-सम्बोधन के निमित्त एकाग्रचित्त होकर दोहा कहूँगा ॥ ३ ॥ क्योंकि हे जीव ! काल अनन्त है और यह भवसागर भी अनन्त है, किन्तु मिथ्यादर्शन और मोहके कारण कभी भी सुख प्राप्त नहीं हुआ, अपितु दुःख ही पाया है ॥ ४ ॥ हे जीव ! यदि चतुर्गति गमनके दुःखोंसे भयभीत है तो पर-पदार्थोंको त्यागकर निर्मल आत्माका ध्यानकर, जिससे मोक्ष सुख प्राप्त हो सके ॥ ५ ॥ परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्माके भेदसे आत्मा के तीन प्रकार जानकर बहिरात्माका त्याग करो और अन्तरात्मा सहित परमात्माका ध्यान करो ॥ ६ ॥ मिथ्यादर्शन और मोहके कारण पर-पदार्थों और आत्माको जो भिन्न-भिन्न नहीं मानता है, उसे भगवान् जिनेन्द्रदेवने बहिरात्मा कहा है और वह बहिरात्मा चतुर्गति रूप संसारमें भ्रमण करता है ॥ ७ ॥ जो आत्मा और पर-पदार्थों को भिन्न-भिन्न जानता है और परभावपरपदार्थों को त्यागता है, उसे पण्डित आत्मा ( उत्कृष्ट आत्मा ) जानो, वह पण्डित आत्मा संसारसे छुटकारा पा जाता है ॥ ८ ॥ जो निर्मल, निष्कलुष, शुद्ध, जिन ( कर्मरूपी बैरीको जोतने वाला), विष्णु ( ज्ञानमय होनेके कारण जगत् में व्याप्त), बुद्ध ( परकी सहायता रहित केवलज्ञानका धारक ), शिव ( सदा कल्याणकारी ) और शान्त ( अथवा सन्त अर्थात् सदाकाल विद्यमान ) है; उसे जिनेन्द्र भगवान्ने परमात्मा कहा है, ऐसा भ्रान्ति रहित होकर जानो ॥ ६ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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