Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 91
________________ ४२ : योगसार देहादिक जो परपदार्थ कहे गये हैं, उन्हें जो आत्मा जानता (मानता ) है, उसे जिनेन्द्र भगवान्ने बहिरात्मा कहा है और वह बहिरात्मा संसारसागरमें भ्रमण करता है ॥१०॥ देहादिक जो परपदार्थ कहे गये हैं, वे आत्मा ( अर्थात् आत्मस्वरूप) नहीं हैं, ऐसा जानकर हे जोव तूं आत्माको आत्मा जान ॥११॥ यदि आत्माको आत्मा जानता है तो निर्वाणको प्राप्त करेगा और • यदि परको ( परपदार्थों को ) आत्मा जानता है तो तूं संसारमें भ्रमण करेगा ॥१२॥ जो इच्छा रहित तप करता है और आत्माको आत्मा जानता है वह तो शीघ्र ही परमगति ( निर्वाण ) को प्राप्त होता है और फिर संसारमें नहीं आता है ॥ १३॥ (विभाव रूप ) परिणामसे बन्ध कहा है और ( स्वभाव रूप ) परिणामसे मोक्ष । इस प्रकार समझकर हे जीव ! तूं निश्चयनयसे उन भावोंको जान ॥ १४॥ ___अथवा आत्माको जानता नहीं है और समस्त पुण्य-कार्योंको करता है तो वह सिद्धि-( मोक्ष- ) सुखको प्राप्त नहीं कर सकता है और पुनः पुनः संसार में परिभ्रमण करता है ॥ १५ ॥ ___एक मात्र आत्माका दर्शन ( आत्मदर्शन ) ही श्रेष्ठ है, आत्माके दर्शन बिना अन्य कुछ भी नहीं है। अतः हे योगी ! निश्चयसे मोक्षका कारण इन्हें ही जान ॥ १६ ॥ मार्गणा और गुणस्थान व्यवहारनयसे कहे गये हैं। निश्चयनयसे आत्माको जानो, जिससे परमेष्ठी पदकी प्राप्ति होती है ॥ १७ ॥ धरके व्यापारमें लगा हुआ जो हेय और उपादेयको जानता है और प्रतिदिन जिनेन्द्रदेवका ध्यान करता है, वह शीघ्र ही निर्वाणको प्राप्त होता है ॥ १८॥ ___ भगवान् जिनेन्द्रदेवका स्मरण करो, चिन्तन करो और शुद्ध मनसे उन्हींका ध्यान करो। उन भगवान् का ध्यान करते हुये एक क्षणमें परमपद ( मोक्ष ) की प्राप्ति होती है ॥ १६॥ शुद्धात्मा और जिनेन्द्रदेवमें कुछ भी भेद मत मानो। हे योगो ! मोक्षका कारण निश्चयसे इसे ही जान ॥२०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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