Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 63
________________ १४ : योगसार दोहा जो णिम्मलु' अप्पा मुगहि छंडिवि सहु ववहारु । जिण-सामिउ' एमइ भणइ लहु पावइ भवपारु ॥ ३७ ॥ अर्थ-अहो हंस ! जो तू सकल कर्म उपाधि रहित निर्मल आत्मा है सो जाणि । अर सकल जे विवहार कहतां विभाव परिणाम जे कर्मके उदय करि परणमें भाव तिन छांणि करि, शुद्ध आत्माका आलंबन करि, जिनस्वामी या प्रकार कहै है । सुद्ध आत्माका अनुभवी जीव है सो तत्काल संसारका पारकू प्राप्त होय, मुक्ति जाय है ॥ ३७॥ सोरठा जीवाजीवहँ भेउ जो जाणइ ति जाणियउ। मोक्खहँ कारण एउ भणइ जोइ जोइहि भणिउँ ॥ ३८॥ अर्थ-जीव अर अजीव-इनिका भेद जो जाणे सो ही पुरुष ज्ञायक है, ज्ञाता है । अर मोक्षका कारण यह भेदग ( भेदक ) ज्ञान ही है, औसैं जोगींद्रदेव भी कहै है, अर पूर्व योगीहू से ही कह्या है ॥ ३८ ॥ सोरठा केवलणाण-तहाउ सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ। जइ चाहिहि सिवलाहु भणइ जोइ जोइहिँ भणिऊँ ॥ ३९ ॥ अर्थ-हे जीव ! तूं केवलज्ञान स्वभाव है, सो आत्मा जांनि । क्योंकि आत्मा बिनां केवलज्ञान स्वभाव कौंन के होय ! तातें तूं हे भव्य! आत्मा ही तें केवलज्ञान स्वभाव श्रद्धान करहु । जो मोक्षका लाभ चाहै है तो असैं जोगींद्रदेव कहै है, अर पूर्व जोगीहू कह्या है ॥ ३६॥ १. जइ : आ० । ८. ते . मि० । २. णिम्मल : मि० । ६. भणेइ : मि० । ३. छंड वि : मि० । १०. जो : मि० । ४. वि ववहार : मि०। ११. इहि : मि०। ५. सामी : मि० । १२. जो : मि० । ६. ऐहउ : मि०। १३. चाहहि : आ० । ७. भवपार : मि० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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