Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ २० : योगसार दोहा पुग्गलु अण्णु जि अण्णु' जिउ अण्ण' वि सहु ववहारु । चयहि वि पुग्गलु' गहहि जिउ लहु पावहि भवपार ॥ ५५ ॥ अर्थ-अहो जीव ! पुद्गल अन्य है, जोव अन्य है। आत्मप्रदेश संघाततै क्षीर-नीरकी नांई मिल्या है, परन्तु परमार्थ करि आत्मा तो चेतना लक्षण अन्य है, अर पुद्गल जड़ है। सोऊ स्वभाव करि अन्य अन्य है। पुद्गल द्रव्य स्कंध भेदतै अन्य है। अर असंख्यात प्रदेशी आत्मा ज्ञायकस्वभाव यह जीव द्रव्य थकी न्यारा है। अनादिकालका कर्म अर पुद्गलसै मिल्या ह अन्य ही है। अर अन्य सकल व्यवहार हु अन्य ही है, तिसही कारणनै पुद्गल द्रव्यका संबंध त्याग करना, हेय जांणि। अर जीवकौं उपादेय जांणि अंगीकार करणां, यही कारणनै संसारका पार शीघ्र ही प्राप्त होयगा ॥ ५५ ॥ दोहा णवि मण्णहिँ जीव फुड जे णवि जीव मुणति । ते जिणणाहहँ उत्तिया णउ संसार मुचंति ॥ ५६ ॥ अर्थ-जे नास्तिक जीवकू नांही मानें है, पंचभूतते जुदा नाही मान है, अर जीव नांहो जाने है, सो जिन भगवान कहा है कि ते जीव नास्तिक संसारतें नांही छूट है ।। ५६ ॥ दोहा रयण दीउ दिणयर दहिउ दुद्ध घीउ" पासाणु"। सुण्ण रुप्प फलिहउ१६ अगणि" णव दिळंता जाण ॥ ५७ ॥ १. अणु : मि० । २. अणु : मि० । ३. अणु : मि० । ४. विवहार : मि० । ५. पुग्गल : मि० । ६. गहइ : मि० । ७. जीउ : मि० । ८. पावहु : मि० । ६. जी : मि० । १०. जो : मि० । ११. मुंचंति : मि० । १२. दियउ : मि०। १३. दूध : मि० । १४. घीव : आ० । १५. पाहाणु : आ० । १६. सुण रूप फलिउ : मि० । सुण्णउ रूउ फलिहउ : आ० । १७. अगिणि : आ० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108