Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 68
________________ योगसार : १८६ अर्थ - सकल संसारो जीव धंधा जो संसार के कारण स्त्री - सेवन, पुत्र विवाह, व्यापार, नोकरी, हाथकी मैनति अथवा द्वंद्व -दशा जो अज्ञान- दशा ताविषै सकल जगत पड्या है | अर आत्मा तीन जगतका प्रभु इंद्र, धरनेंद्र, चक्रवर्ति करि पूज्य - अँसा तीन लोकका ठाकुर निजात्माकूं नांही जाण है, ताही कारण करि यह जीव निश्चय करि निर्वाणकूं नही प्राप्त होय है ॥ ५२ ॥ दोहा सत्थ' पढ़तह ते वि जड अप्पा जे ण मुणंति । तहिँ कारणि' ए जीव फुडु ण हु णिव्वाणु' लहंति ॥ ५३ ॥ अर्थ - यद्यपि शास्त्र पढ़े है तो भी ते शास्त्र पढ़ने वाले जड़ ही है । है जो आत्माकं जे नांही जानें है आत्मज्ञान बहिर्भूत शास्त्र पढ़ें तो भी अज्ञानी ही जांननां । ताही कारणतै ए जीव प्रगट निर्वाण जो कर्मनितैं छूटि कर्म रहित अविनाशी सुखकूं नांही प्राप्त होय है ॥ ५३ ॥ दोहा मणु इंदिहि वि छोडियइ' बहु' पुच्छियइ ण जोइ' । राय पसरु" णिवारियइ" सहजहँ" उपजइ सोइ ।। ५४ ।। अर्थ - मन है सो इंद्रियनित विछोहा कीजिए, हे योगिन ! बहुत लोकनि मति पूछै । अर रागादिक भावनिका फैलाव मति होनें दे, सहज ही आत्मलाभ होयगा । अँसी गुरूनिको प्रेरणा जांननी ॥ ५४ ॥ १. सत्यह : मि० । २. तिहिं : मि० । ३. कारण : मि० । ४. णिव्वाण : मि० । ५. छोइयइ : मि० । ६ बुहु: आ० । ७. पुछियइ : मि० । Jain Education International ८. कोइ : आ० । ८. राय : मि० । १०. पसर : मि० । ११. णवारियर : मि० । १२. सहज : आ० । १३. उपज्जइ : आ० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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