Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 70
________________ योगसार : २१ अर्थ-रत्न, दीपक, सूर्य, दही-दूध-घ्रत, पाषाण, सोना, रूपा, ईसफाटिक, अग्नि- ए नव दृष्टांत करि जांननां; आत्माका विशेष आशय कुछ जाण्यां पढया नांही ॥ ५७ ॥ दोहा देहादिउ' जो परु' मुणइ जेहउ सुण्णु अयासु । सो लहु पावहि बंभु पर केवलु' करइ पयासु ।। ५८ ॥ अर्थ-देहादिकनिषं जो पर मानें, जैसे जड़ सूनां आकाश ताको नांई, ते जीव परमब्रह्म लोकालोक व्यापी ज्ञान-स्वरूप साक्षात प्रत्यक्ष अनुभव करै हैं, केवलज्ञान करि प्रकाश करै हैं ॥ ५८ ॥ दोहा जेहउ सुद्ध अयास' जिय तेहउ अप्पा वुत्तु । आयासु वि जडु जाणि जिय अप्पा चेयणुवंतु ॥ ५९॥ अर्थ-अहो जीव ! जैसे आकाश-द्रव्य शुद्ध अलेप आकाश है, तैसा हो एकोदेश आत्मा निर्लेप कह्या। हे जीव ! आकाशकू हू जड़ जांणि, अर आत्मा चेतनांवंत जांणि स्व-परप्रकाशक है ॥५६॥ दोहा णासग्गिँ अभितरह जे जोवहिँ असरीरु। बाहुडि जम्मिरण संभव हि पिवहिँ ण जणणी-खीरु ॥६०॥ अर्थ-हे आत्मन ! नाशाग्रदृष्टि करि अभ्यंतरविर्षे आत्माकू जो शरीर रहित देखै है, सो आत्मा वाहुडि जन्म नांही धारै है, अर माता का दूध नांही पीवै है ॥ ६०॥ दोहा असरीरु वि सुसरीरु१३ मुणि इहु" सरीरु जडु जाणि । मिच्छा" मोह परिच्चयहि मुत्ति नियंविणि माणि ॥६१॥ १. देहादिक : मि० । १०. असीरू : मि० । २. पर : मि० । ११. जम्म : मि० । ३. सुणहु : मि० । १२. संभवइ : मि० । ४. वनु : मि०। १३. सरीरू : मि०। ५. केवल : मि० । १४. इफु : मि० । ६. आयास : मि० । १५. मिछा : मि० । ७. जिआ : मि०। १६. सोहु : मि० । ८. जड : मि० । १७. मुत्तिय : मि० । ६. वुत्तु : मि० । १८. णियं वि ण : आ० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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