Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 77
________________ २८ : योगसार दोहा जो परियाणइ अप्प परु सो परु चयइणिभंतु । सो सणासु मुणेहि तुहुँ केवलणाणि' वुत्तु' ।। ८२ ।। अर्थ-जो शुद्ध आत्मा आत्मानै अर परनै जानैं है सो परनैं भ्रांति. रहित छोड़े है । सो ही तू संन्यास जांणि, केवलज्ञानी असे कह्या है। __ भावार्थ-जो आपनैं अर पर जाणेगा तब आपकू आप जागा, अर परकू छोड़ेगा तब स्वभावका ग्रहण परभावका त्याग होगा, सो ही संन्यास जांणनां ॥ ८२॥ दोहा दसणु जं पिच्छियइ बुह अप्पा विमल महंतु। पुणु पुर्ण अप्पा भावियइ° सो चारित्त पवित्तु ।। ८३१॥ अर्थ-दर्शन सो हो है जो पंडित विमल महंत आत्माकू देखै । अर बार बार आत्माकी भावना करै सो ही पवित्र चारित्र जांनि ॥ ३ ॥ दोहा रयणत्तय-संजुत्त जिउ उत्तमु३ तित्थय उत्त"। मोक्खहँ कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु ।। ८४ ॥ अर्थ-रत्नत्रय-जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इनि करि संयुक्त आत्मा ही तीर्थ कह्या, सो ही भो योगिन् ! मोक्ष का कारण है और दूसरा कोई मोक्ष का कारण मंत्र-तंत्र नांही है ॥ ८४॥ दोहा जहिँ अप्पा तहिँ सयलगुण केवलि एम भणंति । तिहिँ कारणएँ जीव फड अप्पा विमलु मुणंति ।। ८५ ॥ १. परिआणइ : मि०। १०. भावियए : आ० । २. पर चय : मि०। ११. ८४ : आ० । ३. सणास : मि० । १२. रयणतय : मि० । ४. मुणे : मि० । १३. उत्तिमु : मि० । ५. केवलणाणी : मि० । १४. तित्थु पवित्तु : आ० । ६. वुतु : मि० । १५. ८३ : आ० । ७. दंसण : मि० । १६. जोइ : आ० । ८. पिछइ : मि० । १७. विमल : मि०। ६. पुण पुण : मि०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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