Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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योगसार : ३१
दोहा जह सलिलेण ण लिप्पियइ कमलणि-पत कया वि।
तह कम्मेहिण लिप्पियइ जई रई अप्प-सहावि ॥ ९२॥ अर्थ-जैसे कमलणी का पत्र जल करि नांही लिप्त होइ है, तैसे ही जो जीव आत्म-स्वभावमैं रत रहै सो कर्म करि नांही लिपै है ।। ६२॥
दोहा जो सम-सुक्ख णिलीणु बुहं पुण पुण अप्पु मुणेइ । कम्मक्खउ करि सो वि फडु लहु णिव्वाण' लहेइ ।। ९३ ॥ अर्थ- जो ज्ञानी समभाव रूप सुख जो रागद्वेषरहित विर्षे लोन होय है, बहुरि आत्मा का अनुभव करै है, सो पुरुष कर्म का क्षय करि शोघ्र ही निर्वाणकौं प्राप्त होय है ॥ ६३ ।।
दोहा पुरिसायार-पमाणु जिय अप्पा एहु पवित्तु ।
जोइज्जइ गुण णिम्मलउ णिम्मल-तेय-फरंति ॥ ९४ ॥ अर्थ-जो पुरुषाकार जो चरम शरीर-प्रमाण आत्मा यह पवित्र जानहु । अर निर्मल गुण रूप देखहु निर्मल तेज जामैं स्फुरायमान
दोहा जो अप्पा सुद्ध मुणेइ असुय-सरीर-विभिण्णु६ ।
सो जाणइ सत्थई सयल सासय-सुक्खहँ लोणु ।। ९५॥ अर्थ -जो आत्माने अशुचि शरोरतें भिन्न शुद्ध मानें है सो पुरुष हो सकल शास्त्र जाणे है, सास्वता सुखविर्षे लीन होत है ॥६५॥ १. लिप्पइ : मि० ।
१०. पुरसायार : मि० । २. कम्मेण : मि० ।
११. ऐहु पवितु : मि० । ३. लिप्पइ : मि० ।
१२. गुण-गण-णिलउ : आ० । ४. जह : मि० ।
१३. फुरंतु : आ० । ५. रहइ : मि० ।
१४. वि मुणइ : आ० । ६. णिलीण : मि० ।
१५. असुइ : आ० । ७ अप्प : मि० ।
१६. विभणु : मि० । ८. सोउ : मि० ।
१७. सत्थ सयलु : मि० । ६.णिव्वान : मि० ।
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