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योगसार : ३७
कुंडलिया जैपुर में ल्याये पछै सो हो सेठ सुजांन, चैत्यालय मंदिर घनें तहां धर्म को आंनि । तहां धर्म की आंनि शास्त्र के संघ विराज, भाई पण्डित ठांनि धर्म की भरै समाजै । धर्मात्म श्रावकांहि श्रावकनी भजै जिनैं गुर, जन्म अवर्था जाय ताहि नहिं देख्यो जैपुर ॥११॥
छंद रहत जैन गण चैन रैन दिन बैंन सुधारत, करत नैंन जिन जैन मैं न जु पौं न विसारत । जिन मंदिर चित राम काम हाटक मणि सोहै, देखत ही गंधर्व सर्व मुनिगन मन मोहै। घन वाग जाग लागत सजै गिरि किन्नर चहुं ओर वन । है रामसिंह जय नन पर अग्र नरपति उग्र धन ॥ १२॥
द्रुतविलंवित प्रथम आय रहै दुलिचंद धीचंद दिवाणजि का मंदिर विषै। तदनु तेरह पंथिन का बड़े जिन निवास रहे सुख चैनसैं ॥ १३ ॥
वहरि वास करायिह सज्जन, अमरचंद दिवाणक पौत्र जो। उदयलाल जिनालय आपनें, विनयपाल विशाल कला मने ॥१४॥
स्रग्धरा तत्पश्चात्मारादा का प्रवर वर मती बाबूजी दुलिचंज्जी कीया भण्डार च्यारूं जिनमत अनुयोग ग्रंथ सारे रखाये दूरा देशांतरातें बहु धन व्ययतें पुस्तकां ज्यौ मगाये ते ही सारे लिखाए निज वित अयुता खचिकै ज्यौ सुधाए ॥ १५ ॥
दोहा तिनका जो संबंध में चौधरि पन्नालाल ।
श्रावक कुल विख्यात है पांड्या खंडिलावाल ॥ १६ ॥ १. मूलप्रति 'मि०' में 'और' पाठ है।
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