Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 84
________________ दोहा १०७ ॥ जे सिद्धा जे सिज्झहिहिँ जे सिज्झहिँ जिण उत्तु' । अप्पा- दंसणं ते वि फुड एहउ" जाणि णिभंतु ' ॥ अर्थ - जे सिद्ध भए, अर जे सिद्ध होयगे, अर जे सिद्ध हो है ते जिन का है । ते ही आत्माका ही दर्शन है, ए हो प्रगट भ्रांतिरहित जाणहु ॥ १०७ ॥ दोह संसारहँ भयभीयएण' जोगिचंद मुणिएण | अप्पा संबोण कया दोहा इक्क मणेण ॥ १०८ ॥ अर्थ - संसारको जो भय जामण मरण तातैं भयवान औसा जो जोगि मुनिचंद्र कहिए जोगींद्रदेव मुनि हूं, सो आत्मानें संबोध वाकै अर्थि ए दोहा एक सो आठ कीया, असा जांननां ॥ १०८ ॥ इति श्री योगींद्रदेव विरचित दोहा सूत्र की वचनिका समाप्ता । अथ वचनिका बननेका संबंध लिख्यते दोहा मंगल मूरति कौ रटौं, वाणी पद करि ध्यान । वणी वचनिका जा विधी सो हो करूं बखान ॥ १ ॥ शार्दूलविक्रीडित छंद योगसार : ३५ पून्यां सैर समीप कोश पनरा फलटनपुरी है बसी, नाना देशते आय वस्तु बिकती मनभावती है जसी । ताहां श्रावक धर्मरूप रहता शोभा कहा तक करै, नाना मंदिर चैतयालय सधैं देखें हो मनकूं हरै ॥ २ ॥ मालिनी छंद बुध फलटनवासी श्रावकी धर्मं राशी, हुमड वयक जाये दूलिचंदाभिधाए । जनम बिरमचारी याचना नैव कारी, जिन भऊन वरी है तोर्थ यात्रा करी है ॥ ३ ॥ १. सिज्झसिहि : मि० । २. उतु : मि० । ३. अप्पा - दंसण : मि० । Jain Education International ४. ऐहो : मि० । ५. णिभतु : मि० । ६. भयभीयहं : मि० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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