Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 85
________________ ३६ : योगसार शिखरिणी छंद गृहत्यागी नहिं किछुक द्रव्यार्जन करै, अपाने जीवाने असन कर जावै पर घरें। घनें देशां देशां फिरत फिर आए अवसरै, लहै नाना मानादिक सहित विद्वज्जन वरै ॥४॥ मदलेखा इन्के मित्र सहाई हीराचन्दजि भाई। साधर्मा कुल जाई विद्या भोत सिखाई ॥५॥ भुजंगप्रयात छंद वहांसू लि आए इनै भागचंज्जी, तथा सेठ वंडी किसीतूरचंज्जी। बहू शास्त्रनामी बहू तीर्थगामी, दुई धर्मपालो दुई शीलशामी ॥ ६ ॥ देवलिया परतापहिगढ्ढ, जिनमंदिर ता बहुत ही बढ्ढ ।। तहां दुलीचंद आए राज, मंदिर की परतिष्टा काज ॥ ७॥ सोरठा फतेचंद कुसला व्हासै ल्याए सेठ जी। परतिष्टा करला मंदिर इंदौर की ॥८॥ दोहा मूलचंदजि नेमीचंद सेठजि ल्या ले जाय। व्हांसें भी अजमेरकू रहै किछुक दिन पाय ॥६॥ भाषा छंद गुणखांनि चतुर सुजांनि सुंदर वांनि जिनमत मानिजू, धनदांनि गत-अभिमांनि धर्म रसानि पूरण ज्ञानि जू । मदमंद भाग विलंद करुणा कंद मूलचंद जी, जिन वंद पदम करंद राज जिनंद नेमीचंद जी ॥१०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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