Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 83
________________ ३४ : योगसार अर्थ - सूक्ष्म लोभका जो नाश होनां, अर परिणाम सूक्ष्म होनां, सो सूक्ष्मचारित्र जांणि, सो ही सास्वता सुखका मंदिर जाननां ॥ १०३ ॥ दोहा अरिहंतु वि सो सिद्ध' फुड सो आयरिउ विद्याणि । सो उवझायर' सो जि' मुणि णिच्छइँ अप्पा जाणि ॥ १०४ ॥ अर्थ - अरिहंत, सो ही सिद्ध, सो ही आचार्य, सो ही उपाध्याय अर सो ही मुनि - ए पंच परमेष्ठी पद हैं, सो व्यवहारनयकरि कहनां है, निश्चय ( नय ) करि आत्मा ही जानौं ॥ १०४ ॥ सो सिउ संकरु' विण्हु सो सो' रुद्द वि सो बुद्धु । सो जिणु ईसरु बंभु सो सो अनंतु फुडु सिद्धु ॥ १०५ ॥ अर्थ- सो ही आत्मा शिव है कर्म रूप उपद्रवके नाशतै, अर सो ही आत्मा शंकर है सकल जीवनिके सुखकारी पणांतें, अर सो ही आत्मा विष्णु है समस्त जगतविषै व्यापक पणांत ( अर सो ही आत्मा रुद्र है, ) अर सो ही बुद्ध है ज्ञान स्वरूप पणां थकी, सो ही जिन भगवान् है काहै तैं ? कर्म जे रागद्वेषादिक अटारा दोष रहित पणांतें, अर सो ही ईश्वर है त्रैलोक्यका प्रभुषणां थकी, अर आत्मा हो ब्रह्मा है, अर सो ही अनंत-अक्षय है, सिद्ध स्वरूप आत्मा हो है ॥ १०५ ॥ दोहा एव हि लक्खण लक्खियउ जो परु णिक्कलु' देउ । देहहँ मज्झहिँ " सो वसइ तासु ण विज्जइ भेउ ॥ १०६ ॥ अर्थ- इनि लक्षणनि करि चिह्नित जो परमात्मा शरीर रहित देव है सोह के मध्य बसे है, तिसविषै दूसरा भेद नांही विद्यमान है ॥ १०६ ॥ १. सिद्ध : मि० । २. उज्झावो : मि० । ३. ज : मि० । ४. छिय : मि० । ५. संकर : मि० । Jain Education International ६. 'सो' पद छूटा है : मि० । ७. जिण ईसर : मि० । ८. ऐहिय : मि० । ६. णिक्कल : मि० । १०. मज्झहं : मि० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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