Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 81
________________ ३२ : योगसार दोहा जो वि जाणई' अप्पु' परु गवि परभाउ चएइ । सो जाउ सत्थइँ सयल' ण हु सिव-सुक्ख लहेइ' ।। ९६ ।। अर्थ- जे मूढ़ आत्मा— आत्म-स्वरूप अर पर-स्वरूपकूं नांही जाणें है, अर ( पर) भाव - जे रागद्वेष विभाव भावकूं नांही त्याग है, सो आत्मशून्य सकल शास्त्र जाणता भी मोक्ष का सुखकों नांही पावै है ॥ ६६ ॥ दोहा वज्जिय सयल वियप्पयहँ परम-समाहि लहंति । जं विवहिं' साणंद फुड' सो सिव-सुक्ख भणति ॥ ९७ ॥ अर्थ - जे पुरुष सकल विकल्प- जाल तिननैं वर्ज करिअर परम समाधि प्राप्त होइ हैं, सो अपना आनन्द सुखकूं प्रगट जाणै है । सो ही सुख मोक्षका है है ॥ ६७ ॥ दोहा जो पिंडत्थु पयत्थु " बुह रूवत्थु वि जिण उत्तु । रूवातीतु" मुणेहि लहु जिम परु" होहि पवित्तु ॥ ९८ ॥ अर्थ - हे ज्ञानी ! जो जिन भगवान् पिंडस्थ ध्यान, पदस्थ ध्यान, रुपातीत ध्यान कहै है, सो हू शीघ्र ही जांननां जोग्य है, त्यो परम पवित्र होय है ॥ ६८ ॥ दोहा सव्वे जीवा णाणमया जो" समभाव मुणेइ । सो सामाय जाणि फुडु जिणवर एम भणेइ ॥ ९९ ॥ अर्थ - सर्वं जीव ज्ञानमय हैं, चेतना लक्षण हेतु है । यातें समभाव १. जाणई : मि० । २. अप्प : मि० । ३. परभाव : मि० । ४. चऐवि : मि० । ५. सछ सयलु : मि० । ६. लहेवि : मि० ७. वियप्पइँ : आ० । ८. वेददि : मि० । Jain Education International ८. साणंदु कवि : आ० । १०. पिंडत्थ : मि० । ११. पयत्थ : मि० । १२. रूवातीत : मि० । १३. मुणे : मि० । १४. पर : मि० । १५. जे : मि० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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