Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 78
________________ योगसार : २६ अर्थ -- जहां आत्मा है तहां सकल गुण है केवली या प्रकार कहै है । तिहि कारण करि जीव है सो प्रगटपन निर्मल आत्मा का अनुभव करें है ॥ ८५ ॥ दोहा - इक्कल' इंदिय रहियउ मन वय काय ति सुद्धि । अप्पा अप्पु मुणेहि तुहुँ लहु पावहि सिव-सुद्धि ॥ ८६ ॥ अर्थ -- अकेला इंद्रियां रहित मन, वचन, काय - तीनों को शुद्धता करि आत्माकूं आत्मा जांणि; तू शीघ्र ही मोक्षकी शुद्धताकूं पावै ॥ ८६ ॥ दोहा जइ बद्धउ' मुक्कउ मुणहि तो बंधयहि णिभंतु । सहज-सरुवइ जइ रमहि' तो पावहिं सिव-संतु ॥ ८७ ॥ अर्थ - यद्यपि संसारावस्थाविषै बंध-मोक्ष अवस्था है, परंतु निश्चय द्रव्यार्थिक (क) रि देखिए तो न तो आत्मा बंध युक्त है अर न मुक्त है, अर जो बंध मुक्त रूप जांगें है तो भ्रांति रहित बंधकूं प्राप्त होय है । अर जो सहज स्वरूपविषै रमैं तो स्वभाव रूप शिवस्थानकूं पावै है ॥ ८७ ॥ दोहा सम्माइट्ठी जीव तुहुँ" दुग्गइ गमणु ण होइ । जइ जाइ वि तो दोसु" णवि पुन्च कियउ" खउ होइ ॥ ८८ ॥ अर्थ - हे सम्यग्दृष्टी जीव ! तेरा दुर्गतिविषै गमन नांही होय । अर जो कदाचित पूर्वकर्मकृत दोष करि दुर्गंतिविषै भी गमन होय तो दोष नांही, पूर्वकृत कर्मका क्षय होय है । भावार्थ - सम्यग्दर्शन करि शुद्ध दुर्गंतिनिविषै नांही उपजै है, जो पूर्वं बंध गति ( आ ) का नांही कीया होइ तो नरक गति, तिर्यंच गति, नपुंसक गति, स्त्रीपणा, खोटा कुल, अर अल्प आयु, अर दरिद्री - इत्यादिक १. एक्कलउ : आ० । २. रहिउ : मि० । ३. अप्प : मि० । ४. मुणेइ : मि० । ५ पावहु : मि० । ६. वद्धो : मि० । ७. सरूवई : मि० । Jain Education International ८. रमइ : मि० । ८. पावइ : मि० । १०. जीवडहँ : आ० । ११. दोस : मि० । १२. पुव्वक्किउ : आ० । १३. खउगोइ : मि० । खवणेइ : आ० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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