Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 76
________________ योगसार : २७ अर्थ - अर तीन - राग, द्वेष, मोह इनि करि रहित, अर इनि तीन सहित रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय युक्त जो आत्माविषै तिष्टै है, सो पुरुष सास्वता सुखका भाजन है, जिन भगवान या प्रकार कहै है ॥ ७८ ॥ दोहा चउ कसाय सण्णा - रहिउ चउ-गुण-सहियउ' वुत्तु । सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ जिम परु' होहि पवित्तु ॥ ७९ ॥ अर्थ - अर च्यारि कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ इनि करितो रहित, अर च्यारि संज्ञा - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह रहित, अर‍ च्यारि गुण - अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य इनि गुणनि सहित सो चैतन्यनिधान आत्मा तू जांनि ज्यौं तू परम पवित्र होइ ॥ ७६ ॥ दोहा बे-पंचहँ रहियउ' मुणहि बे-पंच संजुत्तु' | बे-पंचहँ जो गुण-सहिउ' सो अप्पा णिरु वत्तु' ॥ ८० ॥ अर्थ --- वे पंच कहिए दश प्रकार परिग्रह रहित - क्षेत्र, हवेली, रुपया, महोर ( मुहर ), सोना, धन, धान्य, दासो, दास, रूईका वस्त्र - इनि दश प्रकारका परिग्रह रहित, अर दश प्रकार धर्म - उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संजम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य एह दशलक्षण धर्म सहित सो आत्मा निश्चय करि कह्या ॥ ८० ॥ दोहा अप्पा दंसणु णाणु " मुणि अप्पा चरणु" वियाणि । ११ अप्पा संजमु १ सील तउ अप्पा पच्चक्खाणि ॥ ८१ ॥ अर्थ - आत्मा दर्शन- ज्ञानमय जाणि, अर आत्मा हो चारित्र जाणि, आत्मा ही संजम, शील, तप है, अर आत्मा ही प्रत्याख्यान है । इहां द्रव्याथिक नय करि गुण-गुणोके भेद नांही कह्या ॥ ८१ ॥ १. सहिउ : मि० । २. पर : मि० । ३. मोहि : मि० । ४. पवत्तु : मि० । ५. रहियो : मि० । ६. संजुत्त : मि० । ७. सो : मि० । Jain Education International ८. सहियो : मि० । ८. र वुत्त : मि० । १०. दंसण : मि० । ११. णाण : मि० । १२. चरण : मि० । १३. संजम : मि० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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