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योगसार : २५
दोहा जह लोहम्मिय' णियड बुह' तह सुण्णम्मिय जाणि । जे सुहु असुह परिच्चयहिँ ते वि हवंति ण णाणि ॥७२॥ अर्थ-भो बुधहो ! जैसे लोह की बेड़ो इच्छा गमन निषेधै है, तैसैं ही सोना को बेडोहू इच्छा गमन का निषेध करने वाली जाननीं। तैसैं ही शुभ अशुभ जांनि इनिका परिचय ( संचय ) करै है, ते ज्ञानी नाही होय है।
भावार्थ-जब लग पुण्य-पाप का संयोग है, तब लग संसार ही जांननां । अर पुण्य-पाप का संचय करै है, ते परमार्थ जो शुद्धनय ताको अपेक्षा ज्ञानी नांहो जाननां ॥ ७२॥
दोहा जइया मणु णिग्गंथु जिय तइया तुहुँ णिग्गंथु।
जइया तुहुँ णिग्गंथु' जिय तो लब्भइ सिवपंथु ॥ ७३ ॥ अर्थ-हे जीव ! जो मन निग्रंथ है तो तू निग्रंथ हो है, चोदा प्रकार का अभ्यंतर परिग्रह त्याग्या है तो तू हे जोव ! निग्रंथ हो है। अर बाह्य दस प्रकार का परिग्रह त्याग्या है तो हे जीव ! तू निग्रंथ ही है, तो शिव का मार्ग प्राप्त होगा ॥ ७३ ॥
दोहा
जं वडमज्झहँ बीउ फुडु बीयहं वडु वि हु जाणु । तं देहहँ देउ मुणहि' जो तइलोय-पहाणु ॥ ७४ ॥ अर्थ-जैसैं वडविर्षे बोज प्रगट है, अर बोज-विर्षे वड प्रगट है, तैसे ही अनुभवगम्य देहविर्षे परमात्मा जांनि। कैसा है परमात्मा ? तीन लोकविर्षे प्रधान है ॥ ७४ ॥
१. लोयम्मिय : मि० । २. घुहा : मि० । ३. सो : मि० । ४. सुह : मि० । ५. हुं : आ० । ६. णिग्गंथ : मि० । ७. जिया : मि० ।
८. तिहु : मि० । ६. णिग्गंथ : मि० । १०. जिया : मि० । ११. बीज : मि० । १२. ह : मि० । १३. मुणइ : मि० ।
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