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दोहा
सागारु विणागारु कु वि' जो अप्पाणि वसेइ । सो पावइ लहु सिद्ध-सुहु' जिणवरुर एम भणेइ ॥ ६५ ॥
अर्थ - आगार - जो घर सहित श्रावक होहु अथवा अनागार-घर रहित मुनि होहु जो आत्माविषै वसें है, सो शीघ्र हो सिद्ध सुखकूं पावै है, जिन भगवान से कहै है ॥ ६५ ॥
दोहा
विरला जाहिं तत्तु बुह ' विरला णिसुणहिं' तत्तु । विरला झायहिँ तत्तु' जिय विरला धारहिं तत्त् ॥ ६६ ॥
योगसार : २३
अर्थ-विरला ज्ञानी तत्व - जो निजात्म तत्व शुद्धात्मा, सिद्धात्मा सदृश तत्वज्ञान रूप आत्मानें जानें है, अर विरला तत्व सुण है, अर विरला जीव तत्वकूं ध्यावे है, अर विरला तत्वार्थं श्रद्धान रूप तत्वकूं धारण करें है ॥ ६६ ॥
दोहा
इहु परियण ण हु महतणउ' इहु सुहु' दुक्खहँ हेउ ।
इम चित्तहँ कि करइ लहु संसारहँ छेउ ॥ ६७ ॥
अर्थ - यह परिवार, स्त्री, पुत्र, धन आदिक मेरा नांही, अर यह विषय-सुख है सो दुःखका कारण है, जैसे चितवन करता कहा करें है ? शीघ्र ही संसारका छेद करै है - अनादिकालका विभाव परिणामका छेद करि आत्म-स्वभावकूं प्राप्त भया संसारका अभावकूं करै है ॥ ६७ ॥
दोहा
१०
इंद- फणिद-रिदय व जीवहँ सरणु" ण होंति ।
असर" जाणिवि मुणि-धवल
१. फुणि : मि० ।
२. सिद्धि - सुहु : आ० ।
३. जिणवर : मि० ।
४. जाणइ : मि० ।
५. बुहु : मि० । ६. णिसुणहु : मि० । ७. तभु : मि० ।
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अप्पा अप्प मुणंति ॥ ६८ ॥
८. महतो : मि० ।
८. 'सुहु' पद छूटा है : मि० ।
१०. फणेंद - णरेंदण : मि० ।
११. सरण : मि० ।
१२. असारण : मि० ।
१३. धवला : आ० ।
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