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२४ : योगसार
। अर्थ-इंद्र, फणेंद्र, नरेंद्र-ए स्वर्ग लोकके, अर अधोलोकके, अर मध्यलोकके-तीन लोकके स्वामी हू अपने कर्मफलकौं भोगताकौं सरण नांही होइ या जाणि ( जे ) मुनिप्रधान हैं ते आत्मा करि आत्माकू अनुभवै हैं ॥ ६८॥
दोहा इक्क उपज्जइ मरइ कुवि सुह-दुहु भुंजइ इक्कु ।
णरयहँ जाइ वि इक्क जिउ तह णिव्वाणहं इक्कु ॥ ६९ ॥ अर्थ-संसारविर्षे परिभ्रमण करता जीव पर्यायनि करि अकेला ही उपजै है, अर अकेला ही मरै है, अर ( अकेला ही ) सुख-दुःखनि... भोगें है, अर विभाव परिणामनि करि बांधे कर्म तिन करि अकेला हो नरक जाय है, तैसें ही स्वभाव भावनि करि परणम्यां जीव निर्वाण भी अकेला हो जाय है ॥६६॥
दोहा इक्कलउ' जाइजाइसिहि तउ' परभाव चएहि ।
अप्पा झायहि णाणमउ लहु सिव-सुक्ख लहेहि ॥ ७० ॥ अर्थ-अकेला जीव हो जन्में है, अकेला हो मरै है, तो परभावरागादिक तिनिनै छोड़ि अर ज्ञानमई आत्मानं ध्याय त्यौं शीघ्र हो मोक्ष सुखकौं प्राप्त होवै है ॥ ७० ॥
दोहा जो पाउ विसो पाउ भणि सव्वु इ को वि मुणेइ। जो पुण्ण वि पाउ वि भणइ सो बुहु' को वि हवेइ ॥७१।।
अर्थ-जो पापर्ने पाप सब ही कहै है, अर पुण्यनै पुण्य कहै है, अर जे परमार्थ का वेत्ता पुण्यनैं भी पाप कहै है, काहैत जो पुण्य पाप दोऊ बन्ध रूप हैं, संसार का कारण हैं, तातै सो कोइक ज्ञानी होइ है ॥७१॥
१. क्क : मि०। २. इक्क : मिः । ३. जिय : मि० । ४. इक्क : मि० । ५. एक्कुलउ : आ० । ६. जइ : आ० । ७. जाइसहि : मि० ।
८. तो : आ० । ६. णाणमलु : मि० । १०. पुण : मि० । ११. पाव : मि० । १२. बुह : आ० । १३. हवइ : मि०।
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