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योगसार : १७
सोरठा धम्मु ण पढियई होइ धम्मु ण पोत्था-पिच्छिय।
धम्मु ण मढिय-पएसि धम्मु ण मत्था' लुंचियइँ ॥४७॥ अर्थ-धर्म है सो पढ्यां नांही होइ। अर धर्म है सो पोथी वांचे नांही होइ । अर धर्म है सो पीछो धारे नांही होइ । अर धर्म मंढीविर्षे प्रवेश कीयां नांही होइ। अर धर्म मुनि भेष धारें अर मस्तकविष लौंचादिक कोए नांही होइ । ए समस्त क्रिया परमार्थशून्यकै धर्म नांही करि सके है । केवल आत्मशून्य को क्रिया कार्यकारो नांही ॥ ४७ ॥ आगें औरहू कहै है
दोहा राय-रोस बे परहरिवि जो अप्पाणि वसेइ ।
सो धम्मु वि जिण-उत्तियउ जो पंचम गइ देई॥४८॥ अर्थ-पूर्वै कह्या तैसैं धर्म नांहो होय तो धर्म कैसे होइ है ? असैं पूछ कहै है-जो रागद्वेष दोइ जो परित्याग करि अर जो आपके आत्मध्यानविर्षे प्रवेश करै, सोइ धर्म जिन भगवाननैं कह्या है। सोइ धर्म पंचम गति जो मोक्ष ताक् देव है।
भावार्थ-रागद्वेष ही संसारका मूल कारण जांनि । यातें रागद्वेष हेय जांनि त्यागनां ॥४८॥
दोहा आउ गलइ णवि मणु गलइ णवि आसा हु गलेइ । मोह° फुरइ णवि अप्पहिउ इम संसार भमेइ ॥ ४९ ॥ अर्थ-आयु है सो गलै है, अर मन है सो चंचल होइ है, अर पंचइंद्रियनिके विषयविर्षे दोड़े है। अर आसाहू नांहो गलै है। अर मोह कर्म है सो स्फुरायमान होप है अर आत्महित नाही स्फुरायमान होय है । या प्रकार करि ही संसारमै भ्रमै है।
भावार्थ-या संसारविर्षे पूर्व पुन्यका उदय थकी मनुष्य भया सो संसारविर्षे प्रमादी होय रह्या है। अर सावधान नाही होत है । हे १. पढिया : मि०।
६. परहरइ : मि०। २. पिछयइ : मि० ।
७. अप्पान : मि० । ३. मढिये पेसि : मि० ।
८. उतियो : मि०। ४. मिछा : मि० ।
६. णेइ : आ० । ५. लुच्चियइ : मि०।
१०. मोह : मि० ।
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