Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 65
________________ १६ : योगसार अर्थ-देहरूप देहराविषं जिनदेव है, अर जे जिन देहरावि प्राप्त कर है, अथवा नमस्कार करै है, सो यह मुख उपरि हास्य होय है । जैसे सिद्ध होय भिक्षाकै निमित्त भ्रमण करै, तैसें जाननां ॥ ४३ ॥ दोहा मूढा देवलि देव' णवि णवि सिलि लिप्पइ चित्ति । देहा देवलि' देव जिणु सो बुज्झइ समचित्ति ॥४४॥ अर्थ-हे मूढ ! हे तत्व विवेक रहित ! देहुराविर्षे देव नांहो है। अर सिला लेप, चित्राम-इनिविर्षेहू जिनदेव नांही है। ( देहरूप देहराविषं जिनदेव है, असे जो जानें है ) सो समभावी जीव है, सो जानें है ॥ ४४ ॥ दोहा तित्थइ देवलि देव जिणु सव्वुरवि कोइ भणेइ। देहा देवलि जो मुणइ सो वुहु को वि हवेइ ॥ ४५ ॥ अर्थ-तीर्थविर्षे देहुराविषै जिनदेव है-असे सर्व कोई कहै है। अर देह रूप देहुराविर्षे जो जिनदेवकू जाणें है, सो वुधवांण पंडित विरले होइ है ॥४५॥ दोहा जइ जर३-मरण करालियउ तो जियधम्म करेहि । धम्म-रसायणु पियहि तुहं जिम अजरामर होहि ॥४६॥ अर्थ-हे जोव ! हे भव्य ! जो जरा-मरण करि पीडित है तो जिनभाषित धर्मकू करि। धर्म रूप रसायण जो सिद्ध औषधि ताकू पान करि । ज्यौं तू अजरामर देहि अविनाशी होइ ॥ ४६॥ १. देवल : मि० । ११. सव्व : मि० । २. देव : मि० । देउ : आ० । १२. देउलि : आ० । ३. सलि : मि० । १३. जरा : मि० । ४. चित्तु : मि० । १४. करालिउ : मि० । ५. देवल : मि० । १५. तउ : मि० । ६. बुज्झहि : आ० । १६. जिण : मि० । ७. समचित्तु : मि० । १७. रसायण : मि। ८. देउलि : आ० । १८. पिय : मि० । ६. देउ : आ० । १६. देहि : मि० । १०. जिण : मि० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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