Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 67
________________ १८ : योगसार आत्मन ! तेरी मनुष्य आयु तो या प्रमाद थकी हो गलै है, नष्ट होय है । अर तेरा विषय- कषायनिविषै अर पंच इंद्रियनिके विषयविषै मन नाही ग है । अर विषयनिकी चाहना रूप आशा नांही गलै । दिनदिन प्रति आयु तो गलै है अर आशा वृद्धिकूं प्राप्त होय है । अर मोहनीय कर्मकी प्रकृति आपके उदय करि आत्मानैं मोही करें है । सावधान आत्महित नाही होने दे है, याही कारणतै संसारविषै जीव है सो भ्रमैं है ॥ ४६ ॥ दोहा जेहउ मणु विसयहँ रमइ तिमु' जइ' अप्प मुणेइ । जोइउ भणइ रे जोइयहु लहु णिव्वाणु' लहेइ ॥ ५० ॥ अर्थ - योगींद्रदेव कहै है - हे जीव ! जो मन चंचल पांच इंद्रियनिके विषयनिविषै रमैं है, तैसें जो आत्मानें जाणें तो रे जोगी ! तेरे शीघ्र ही निर्वाणकी प्राप्ति होइ ॥ ५० ॥ दोहा जेहउ जज्जरु' नरय- घरु तेहउ बुज्झि सरीरु' । अप्पा भावहि' णिम्मलउ' लहु पावहि" भवतीरु " ॥ ५१ ॥ अर्थ - आचार्य शिष्यकं संबोध है जो शरोरविषै आशक्तताकूं करें है, रे जीव ! यह शरीर जर्जरा नरक जो विष्टाका घड़ा ता समान तेरा शरीरकूं जांणि । अर आत्मा कर्मकलंक रहित, शुद्ध, निर्मल, कर्म कालिमा रहित, शुद्ध हंसरूप उज्जल परमात्माकूं ध्यावहु, तातें शीघ्र ही संसारका पारकूं पावै ॥ ५१ ॥ दोहा धंध " पडियउ सयल जगि गवि अप्पा हु मुणंति । .१२ तहिं" कारणि" ए जीव फुडु ण हु णिव्वाणु लहंति ॥ ५२ ॥ १. तिम : मि० । २. जे : मि० । ३. हो : आ० । ४. जोइहु : मि० । ५. णिव्वणु : मि० ६. जज्जर : मि० । ७. सरीर : मि० । ८. भावहु : मि० । Jain Education International ६. मिलहु : मि० । १०. पावइ : मि० । ११. भवतीर : मि० । १२. धंधय : मि० । १३. पडियो : मि० । १४. तिहिं : मि० । १५. कारण : मि० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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