Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
६ : योगसार
सदाकाल कल्याणमय' सुखरूप, अर सत कहिए सदाकाल विद्यमान सो परमात्मा जिन भगवान करि कह्या भ्रांतिरहित जांणि, परमात्माका रूप जांननां ॥६॥
दोहा
देहादिउ जे पर कहिया ते अप्पाण' मुणेइ।
सो बहिरप्पा जिणभणिउ पुणु संसारु' भमेइ ।। १०॥ अर्थ-देहादिक जे परवस्तु है तहां द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिक, भावकर्म रागद्वेष-मोहादिक, अर नोकर्म औदारिकादिक सरीर-ए परवस्तु है, तिनकौं जो आत्मा जानैं सो बहिरात्मा जिनभगवान कह्या, सो बहुरि संसारविर्षे भ्रमण करै है ॥ १०॥
दोहा देहादिउ जे पर कहिया ते अप्पाणु होई।
एउ जाणि पुणु जीव तुहुँ" अप्पा अप्प मुणेहि ॥ ११ ॥ अर्थ-देहादिक जे पौद्गीलक भाव ते परभाव जांणि, ते देहादिक आप रूप नाही होइ, हे जीव ! तू असा जांणि, आत्मा ज्ञाता-दृष्टाकूँ आत्मा जाणि, ते देहादिक तो जड़ है ॥ ११॥ आगें औरहू कहै है
दोहा अप्पा अप्पउ जइ मुणहि तो णिवाणु लहेहि । पर" अप्पा जइ मुणहि तुहुँ तो संसार भमेहि ॥१२॥ अर्थ-जो आत्मा आत्मा जाणे तो निर्वाणकी प्राप्ति होइ, अर जो १. देहादिक : मि० ।
११. जाणेविण : आ० । २. परि : आ० ।
१२. तुहूँ : मि० । ३. अप्पाण : मि० ।
१३. मुणेइ : मि० । ४. पुण : मि० ।
१४. जउ : मि० । ५. संसार : मि० ।
१५. अर : मि० । ६. देहादिक : मि० ।
१६. जउ : मि० । ७. परि : आ० ।
१७. मुणिहि : मि० । ८. अप्पा ण : मि० ।
१८. तउ : मि० । ६. होहिँ : आ० ।
१६. भमेइ : मि० । १०. इउ : आ० ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108