Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ योगसार : ई अर्थ - जो परमात्मा है सो मैं हूँ, अर जो मैं हूँ सो परमात्मा है । अहौ जोगीश्वर यह जांणि अर दूजा विकल्प मति करें, आत्मामैं अर परंमात्मा मैं निश्चयकरि भेदभाव मति करै, अनंतगुणात्मा आत्माने तू जाणि । जो परमात्मा सो ही मैं हूँ, लोकका स्वामी मेरा आत्मा है ॥ २२ ॥ पूरियउ लोयायास पमाणु । सुद्ध-पएस हँ सो अप्पा अणुदिणु' मुहु' पावहु लहु निव्वाणु ॥ २३ ॥ अर्थ - यह आत्मा है सो शुद्ध प्रदेस जे असंख्यात प्रदेशनिकरि पूरित लोकाकास प्रमाण है । सो आत्मा जो निरंतर जाने है, अनुभव करें है, सो पुरुष शीघ्र हो मोक्ष पावै है || २३ || दोहा पिच्छइँ लोय-पमाणु मुणि ववहारें" सुसरीरु । एहउ अप्प सहाउ मुणि लहु पावहि भवतीरु ॥ २४ ॥ दोहा अर्थ - निश्चयनय करि आत्मा लोक प्रमाण तूं जांणि । अर व्यवहारनय करि आत्मा सरीर प्रमान जांणि । औसा आत्मा निरंतर जानें है, सो पुरूष शीघ्र ही निर्वाणकूं पावै है । वा भव जो संसारका जामणमरण ता का तीर जो अभाव सो ही निर्वाण कहिए मोक्षकूं जाय है ॥ २४ ॥ दोहा चउरासी' लक्खहिं' फिरिउ' कालु" अणाइ अनंतु । पर सम्मत्तु " ण लधु जिय एहउ जाणि भिंतु ॥ २५ ॥ अर्थ - चौरासी लाख जोनिविषै हे जीव ! तू कर्म बंधके योग अनादि अनंतकाल पर्यंत फिर्या, परंतु केवल शुद्ध तत्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यक्त्वकूं नांही पाया, यह तू निश्चै जाणि । यामैं भ्रांति नांही जांन । १. अणुदिण : मि० । २. मुहु: मि० । ३. छिइ : मि० । ४. पमाण : मि० । ५. ववहारइ : मि० । ६. पावहु : मि० । Jain Education International ७. चौरासी : मि० । ८. लक्ख : मि० । ६. फिर : मि० । १०. काल : मि० । ११. समतु : मि० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108