Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 57
________________ ८ : योगसार दोहा जिणु' सुमिरहु जिणु' चितवहु जिणु झायहु सुमणेण । सो झायंतहँ परम-पउ लब्भइ एक्क'-खणेण ॥ १९ ॥ अर्थ-भो भव्यहो ! जिन भगवानकू सुमिरहु, अर जिन भगवानकू चितवन करिहु, अर भला मन करि जिन भगवानकू ध्यावहु । तिस भगवानकू ध्यावतां संता एक क्षण मात्रमैं परम पद जो मोक्ष पदकू पावै है ॥१६॥ दोहा सुद्धप्पा अरु जिणवरह भेउ म कि पि वियाणि । मोक्खहँ कारणे जोइया णिच्छ एउ विजाणि ॥ २० ॥ अर्थ-भों भव्य ! शुद्धात्मावि अर जिन भगवान विष क्यौंह भेद नहीं है । भो जोगिन ! मोक्षका कारण निश्चय करि एह जाणि ॥ २० ॥ दोहा जो जिणु सो अप्पा मुणहु इहु सिद्धतह" सारु । इउ जाणेविणु जोइयहोर छंडहु मायाचारु ॥ २१ ॥ अर्थ-जो जिन भगवान है, सो ही आत्मा जाणहु । चिदानंद ज्ञानमयी शुद्धनय करि निजात्मा ही जिन भगवान समान जाननां-एही सिद्धांतका सार है। या प्रकार जाणि करि भेद भावना नाही करि सकल मायाचार कर्मका द्वैतभावकू छोड़हु ॥२१॥ ___ दोहा जो परमप्पा सो जि हउँ जो हउँ सो परमप्पु । इउ जाणेविणु जोइया" अण्णु म" करहु वियप्पु ॥ २२ ॥ १. जिण : मि० । ६. णिछ : मि० । २. जिण : मि० । १०. दुहु : मि० । ३. जिण : मि० । ११. सिद्धांतहु : मि० । ४. झायहतह : मि० । १२. सार : मि० । ५. इक्क : मि० । १३. जोइहु : मि० । ६. स्वरेण : मि० । १४. जोइया : मि० । ७. किमपि : मि०। १५. असा म : मि० । ८. कारण : मि० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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