Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 55
________________ ६ : योगसार संसार परिभ्रमणका कारण है, ताहीत बहुरि संसारविर्षे परिभ्रमण करै है ॥ १५॥ दोहा अप्पा-दंसणु एक्कु परु अण्णु ण किं पि वियाणि । मोक्खहँ कारण जोइया णिच्छय' एहउ' जाणि ॥१६॥ अर्थ-आत्माका एक दर्शन ही उत्कृष्ट है । आत्माका दर्शन बिनां अन्य कछू नांही जाननां । हे योगिन ! मोक्षका कारण निश्चयनय करि ए हो जाननां, व्यवहारनय करि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, दान, पूजा, महाव्रत, अणुव्रत, मुनि-श्रावकका भेद रूप धर्म है सोहू परंपराय करि मोक्षका कारण है ॥ १६ ॥ दोहा मग्गण गुण ठाणइ कहिया विवहारेणवि दिठ्ठि । पिच्छय गय अप्पा मुणहि जिम पावहु परमेट्ठि ॥ १७ ॥ अर्थ-चोदह मार्गणाविषै जीवका स्वरूप कह्या तहां जोव जान लेना। गति च्यारते कौन-नरक, तिर्यंच, देवगति, मनुष्य-इनिविर्षे जीव-स्वरूप व्यवहारते जाननां । अर पांच इंद्रियते कौन-स्पर्शन, रसन, घ्रान, चक्षु, श्रोत्र । अर काय छै-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय । अर पनरा जोग - मनका जोग च्यारि-सत्यमन, असत्यमन, उभयमन, अनुभयमन । अर च्यारि वचनका जोग-सत्यवचन, असत्यवचन, उभयवचन, अनुभयवचन । अर कायका सात जोग-औदारिक, औदारिकमिश्र, वैक्रियक, वैकियकमिश्र, आहारक, आहारकमिश्र अर कार्माण । अर वेद तीन-पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद । अर कषाय २५-अनंतानुबंधी ४ कषायक्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान च्यारि कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ; अर प्रत्याख्यान कषाय ४-क्रोध, मान, माया, लोभ; अर संजुलनकषाय ४-क्रोध, मान, माया, लोभ; अर नोकषाय-हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद-औसैं १. सण : मि० । २. ऐक्क : मि०। ३. अणु ण कि : मि० । ४. पिछय : मि० । ५. ऐहु : मि० । ६. ठाण : मि० । ७. विविहारेण पदिट्ठि : मि० । ८. णिछय : मि० । ६. ण : आ० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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