Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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योगसार : ५ जो पर पुद्गलादिक. आत्मा जानेंगा तो संसारविर्षे परिभ्रमण करेगा, असा जांननां ॥ १२॥
दोहा इच्छा रहियउ तव' करहि अप्पा अप्पु' मुहि ।
तो लहु पावहि परम-गइ फुड' संसारु ण एहि ॥१३॥ अर्थ-इच्छा रहित तो तप करै अर आत्माने आत्मा जाणे, मुक्ति आदि पदार्थकी हू वांछा नाही करै, निरवांछक होय तप करै, आत्मानं आत्मा जाने, शुद्धोपयोग रूप प्रवर्ते, शुद्ध दृष्टि राखै तो शीघ्र ही परम- - गति जो मोक्षगतिकू पावै, फिर संसारविर्षे नांही आवै ॥ १३ ॥
दोहा परिणामे बंधु जि कहिउ मोक्ख वि तह जि वियाणि । इउ जाणेविण जीव तुहुँ तहभाव हु परियाणि ॥१४॥
अर्थ-हे जीव ! विभाव भाव परिणामनि करि ही तू बंध जाणि, अर स्वभाव भाव करि मोक्ष होय है इह जाणि । हे जीव ! तू बंधमोक्ष का कारण परिणाम ही जाणि ॥ १४ ॥
दोहा अह पुणु अप्पा णवि मुणहि पुण्णु जि३ करहि असेस" । तो वि ण" पावहि सिद्धि सुहु पुणु संसारु भमेस" ॥ १५॥
अर्थ-अथवा बहरि आत्माकं तो नांहो जाणे अर केवल मिथ्या स्वभाव करि मोहित भया संता समस्त पुण्यादिक कर्म करै तो भी सिद्ध सुखकू नाही पावै है, काहेते आत्मज्ञान बहिर्भूतकी क्रिया समस्त १. इछा रहिउ तउ : मि० । ११. पुण : मि० । २. अप्प : मि० ।
१२. मुणइ : मि० । ३. ता : मि०।
१३. पुण वि : मि० । ४. पावइ : मि० ।
१४. असेसु : मि० । ५. फडु : मि० ।
१५. णु : मि० । ६. संसार : भि० ।
१६ पावहु : मि०। ७. जि० : मि० ।
१७. पुण : मि० । ८. जाणेविण : मि०।
१८. संसार : मि० । ६. हि : मि० ।
१६. भमेसु : मि०। १०. परयाणि : मि० ।
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