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योगसार : ७
पचीस । अर ज्ञान आठ प्रकार-सुज्ञान ५-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन.पर्ययज्ञान, केवलज्ञान; अर कुज्ञान ३-कुमति, कुश्रुति, कुअवधि-सैं आठ प्रकार ज्ञान है। अर संयम सात-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात, संयमासंयम, असंयम- सात संयम है। अर च्यारि दर्शन-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन-औसैं च्यारि दर्शन है। अर लेश्या छह-अशुभलेश्या ३-कृष्ण, नोल, कापोत,। अर शुभलेश्या तीनपीत, पद्म, शुक्ल-जैसे लेश्यानिमैं जीव है। अर भव्य, अभव्यइनिमैं जीव है । अर सम्यक्त्व छह-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक-इनि सम्यक्त्वनिके भावनिविर्षे जीव जांननां । अर संज्ञो, असंज्ञोमैं जीव है। अर आहारक, अनाहारकदोऊनिविर्षे जीव है-औसैं चौदह मार्गणानिमैं जीव जाननां तथा चौदह गुणस्थाननिमैं जीव जाननां-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, असंयत, देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगीजिन, अयोगीजिन-इनि चौदह गुण. स्थाननिमैं जीवका स्वरूप कह्या सो सर्व व्यवहारनयकी दृष्टि जाननी । अर निश्चयनय करि जो आत्मानै जैसैं जाणे तैसे ही परमेष्ठी पद पावै॥१७॥
दोहा गिहि-वावार-परिट्ठिया' हेयाहेउ मुणंति ।
अणुदिणु झायहिँ देउ जिणु लहु णिवाणु' लहंति ॥ १८॥ अर्थ-धरके व्यापार मांहि प्रवर्तता भी संसारके कार्य करता थका भी जो हेयाहेय-जो त्यागनैं जोग्य रागद्वेष, मोहादिक, काम-क्रोधादिक तिनकौं जानता त्याग है । अर ग्रहण करणे जोग्य जे तत्व श्रद्धानादिक अर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप आपका निज स्वरूपकौं जानता निरंतर ग्रहण करै है। अर जिनदेवकू ध्यावै है तो शीघ्र ही मोक्ष... प्राप्त होय है ॥ १८॥
१. गिह : मि० । २. परट्ठिया : मि० ।
३. अणुदिण : मि० । ४. णिव्वाण : मि० ।
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