Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 59
________________ १० : योगसार असे ऐकेंद्रोको जोनि पृथ्वी को सात लाख, अपकी सात लाख, तेजको सात लाख, वायुकी सात लाख, प्रत्येक वनस्पतीकी दश लाख, इतरनिगोद सात लाख, नित्य निगोद सात लाख अर विकलत्रयकी वेंद्रो दोय लाख, तेंद्री दोय लाख, चोइंद्री दोय लाख, पंचेद्रो नारकी च्यार लाख, तिरजंच च्यार लाख, देव च्यार लाख, मनुष्य चोदा लाखजैसे चौरासो लाख जोनि भेदनिमैं भ्रमण कर है ॥ २५॥ दोहा सुधु सचेयणु बुद्ध जिणु केवलणाणु सहाउ । सो अप्पा अणुदिणु मुणहु जो चाहहु सिव-लाहु ॥ २६ ॥ अर्थ-शुद्ध, सचेतन, बुद्ध, जिन, केवलज्ञान है स्वभाव जाका, असा आत्माकू जो मोक्षका लाभ चाहै है तो निरंतर जानहु । भावार्थ-हे जीव ! तू शुद्ध नय करि आपकौं जाणि। कैसा शुद्ध कहिए कर्म कलंक रहित अर चेतना सहित स्वयं बुद्ध जिन भगवान त्रयोदश गुणस्थानवर्ती केवलज्ञान स्वभाव सो निरंतर अनुभवन करिह जो तेरै मोक्षको चाहि है तो तेरै जैसे भावना भावतें मोक्षका लाभ होयगा ॥ २६ ॥ दोहा जामण भावहि जीव तुहुँ णिम्मल अप्प सहाउ । तामण लगभइ सिव-गमणु जहिँ भावई तहिँ जाउ ।। २७ ॥ अर्थ-हे आत्मन ! जितनें निर्मल आत्मस्वभावकू नाही भाव है, तितनैं मोक्षका गमनकू नांही प्राप्त होयगा। जहां भावै तहां ही जाहु ॥ २७॥ दोहा जो तइलोयहँ झेउ जिणु सो अप्पा णिरु वत्त । णिच्छया-णय एमइ१३ भणिउ एहउ जाणि णिभंतु ॥२८॥ १. सचेयण : मि० । ८. लभइ : मि० । २. बुद्ध : मि० । ६. भावहु : मि० । ३. केवलणाण : आ० । १०. झेवु : मि० । ४. जइ : आ० । ११. णिरू वुतु : मि० । ५. चाहु : मि० । १२. णिछइ : मि० । ६. जाव : मि० । १३. इम : मि० । ७. भावहु : मि० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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