Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 52
________________ योगसार : ३ दोहा मिच्छा-दसण-मोहियउ' पर अप्पा ण मुणेहि । सो बहिरप्पा जिण भणिउ पुण संसार भमेइ ॥७॥ अर्थ-मिथ्यादर्शन जो कुज्ञान, कुदर्शन, अर खोटा हिंसा सहित आचरण, अर परवस्तु जो परपदार्थ-धन, स्त्री, देह, हवेलो, मकान, तिनमैं आत्मा जांनि आपा माननां सो हो भया मिथ्यादर्शन ता करि मोहित जो जीव है, सो पर-पदार्थविष आत्मा जानैं, यह पदार्थ स्त्री, पुत्र, धन, मकान मेरा है; अर इनिका मैं हूँ-जैसे परमैं आत्मा जांनि रचै है सो बहिरात्मा जानि, जिन भगवाननै जैसे कह्या है, सो बहिरात्मा बहुरि संसार चतुरगतिरूप संसार ताविषै परिभ्रमण अनादिकालका करै है ॥७॥ ___ दोहा जो परियाणइ अप्पु' पर जो परभाव चएइ । सो पंडिउ अप्पा मुणहु सो संसारु मुएइ ॥ ८॥ अर्थ- जो आत्मा अपनां स्वरूप जाणे अर धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य अर पुद्गलद्रव्य--इनिका स्वरूप आपतै अन्य जाणै; अर परभाव जे राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ कषायइनिकौं त्यागै सो पंडितआत्मा जाणि; सो संसारनै अन्तरात्मा छूट है॥ ८॥ दोहा जिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणु विण्हु बुद्ध सिव संतु। सो परमप्पा जिण-भणिउ एहउ जाणि णिभंतु ॥ ९॥ अर्थ-निर्मल कहिए कर्मकलंक रहित, अर सात प्रकारका शरीरऔदारिक, औदारिकमिश्र, अर वैक्रियक, वैक्रियकमिश्र, अर आहारक, आहारकमिश्र, अर कार्माण-इनि शरीर रहित, शुद्धज्ञान स्वरूप शरीरभय, अर शुद्ध निज ज्ञानानन्दमय टंकोत्कीर्ण ज्ञानका पुंज, शुद्ध अर कर्मरूप बैरीकौं जीति जिनरूप, अर विष्णुरूप कहिए ज्ञान करि जगतविर्षे व्याप्त, अर बुद्ध कहिए परसहाय रहित ज्ञानका धारक बुद्ध अथवा देवनि करि पूज्य बुद्ध (बुद्धि के धारणें तें बुद्ध, अर शिव कहिए १. मिछा-दंसण-मोहिउ : मि०। ४. संसार : मि० । २. अप्प : मि० । ५. विएह : मि०। ३. मुणहि : मि० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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