Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 50
________________ ओं नमः सिद्धेभ्यः अथ जोगसार जोगेंद्रदेव मुनिराजकृत प्राकृत ( अपभ्रंश ) दोहा को वचनिका लिखिए है । आगे मंगलकै निमित्त विघ्न मेटने के निमित्त सिद्धनिकं वंदना करे है ू श्रीमद्-योगीन्दुदेव- विरचित योगसार दोहा निम्मल-झाण- परट्टिया' कम्म कलंक डहेवि । अप्पा लद्धउ जेण परु' ते परमप्प णवेवि ॥ १ ॥ अर्थ - जो निर्मल ध्यानविषै तिष्ठि करि आठ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय - ए आठ कर्मरूप कलंककूं भस्म करि, अर जानैं आत्माकूं पाय, अर पर आत्मा (परमात्मा) भए – सिद्ध भए तिन सिद्धरूप परमात्माकूं नमस्कार करि, अर आगे अनि नमस्कार कर है ॥ १ ॥ दोहा घाइ चक्क हनेवि किए गंत चउक्कर पदिट्ठ । ताहि जिणिदइ' पय णविवि अक्खमि कव्व सुइट्ठ ॥ २ ॥ अर्थ - घातियाच्यारि - ज्ञानावरण अर दर्शनावरण अर मोहनीय अर अन्तराय—ये च्यारि घातियाकर्म नास करि, अनन्तचतुष्टय- - जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, अनन्तसुखकूं प्राप्त होय अर अर्हत भया ताकूं नमस्कार करि अथवा जिनेन्द्रके पद - जे चरण तिनिनें नमस्कार करि कछु इक भला इष्ट काव्यकूं कहो हौं ॥ २ ॥ आगे कहनेंकी प्रतिज्ञा जोगींद्रदेव कर है— दोहा संसारहें भयभीयहँ मोक्खहें लालसियाहँ' । अप्पा संबोहण कहीँ दोहा एक्कमणाहँ || ३ ॥ १. परिया : आ० । २. परु : मि० । ३. घाइचउक्कहँ किउ विलउ त-चक्कु : आ० । Jain Education International ४ तह जिणइंदहँ : आ० । ५. लालसयाहँ : आ० । ६. कयइ कय : आ० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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