Book Title: Yogasara
Author(s): Kamleshkumar Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 29
________________ २८ अनुप्रेक्षा : तत्त्वों को गहराई से जानने के लिये उनका पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है । ये संख्या में बारह होने से द्वादशानुप्रेक्षाके नामसे जानी जाती हैं । इनका लोक प्रचलित दूसरा नाम बारह भावना भी है । ये वैराग्यवर्द्धक भावनाएँ मुक्तिपथ का पाथेय हैं । जिस प्रकार माँ पुत्र को उत्पन्न करती है, उसी प्रकार बारह भावनाएँ वैराग्य को उत्पन्न करने वाली हैं । जिस प्रकार हवा के लगने से अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार इन बारह भावनाओं के चिन्तन से समता रूपी सुख जागृत हो जाता है । ' ' ठाणं' में धर्मध्यानकी चार अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख है — एकत्व, अनित्य, अशरण और संसार । यतः योगसार में धर्मध्यान का विशेष रूप से विवेचन है, अतः उसमें उपर्युक्त चार अनुप्रेक्षाओं को ही स्थान दिया गया है और बतलाया है कि ये परिजन मेरे नहीं हैं ( अनित्य भावना ); इन्द्र, फणीन्द्र और नरेन्द्र भी जीवके शरण नहीं होते हैं ( अशरण भावना ) ; जीव अकेला पैदा होता है और अकेला ही मरता है तथा किसी भी सुख-दुःखको अकेला ही भोगता है । नरक भी जीव अकेला ही जाता है तथा निर्वाण को भी अकेला ही प्राप्त होता है ( एकत्व भावना ) । जीव अनन्तकाल से सुख प्राप्ति के लिये प्रयास करता चला आ रहा है, किन्तु कभी सुख को प्राप्त नहीं कर सका है, अपितु दुःख ही पाया है ( संसार भावना ) | इस प्रकार पुनः पुनः चिन्तन करने से जीव शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होता है । सम्यग्दर्शन : योगसार समस्त लोकव्यवहार का त्यागकर जो आत्मस्वरूप में रमण करता है वह सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर शीघ्र ही संसार सागर से पार हो जाता है । यद्यपि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ हैं, क्योंकि यह जीव अनन्तकाल से चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहा है, किन्तु सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं कर सका । तथापि यदि किसी पुण्योदय के कारण सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है तो उसका दुर्गति में गमन नहीं होता है । पूर्वकृत कर्मवशात् दुर्गति में गमन हो भी जाय तो कोई दोष नहीं है, अपितु इससे पूर्वकृत कर्मोंका क्षय ही होता है । जिसके सम्यक्त्व प्रधान है, वही ज्ञानी है और वही तीनों लोकों में प्रधान है । वह शीघ्र ही शाश्वत सुखके निधान केवलज्ञान को प्राप्त करता है । पृष्ठ १६ । १. बारह भावना : एक अनुशीलन, डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल, २. ठाणं ४ / ६८ । ३. योगसार, पद्य ६७-६८ । ४. वही, पद्य ४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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